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सम्यग्दर्शन
हुआ दर्शन कहलाता है। २. दर्शन शब्द से निजशुद्धात्म भानरूप सम्यग्दर्शन ग्रहण करना चाहिए।
४. उपरोक्त दोनों अयका समन्वय
पा.पा./मू./१८ सम्म पस्सदि जादि गाणेण दव्यंपजाया । सम्मेण यदि परिहरदि परितो यह आरमा सम्यग्दर्शनसे सत्तामात्र वस्तुको देखता है और सम्यग्ज्ञानले द्रव्य व पर्यायको जानता है । सम्यक्त्वके द्वारा द्रव्य पर्यायस्वरूप वस्तुका श्रद्धान करता हुआ चारित्रजनित दोषों को दूर करता है । दे. मोहनीय/२/१/ में प. /- १. दर्शन रुचि प्रत्यय श्रद्धा और स्पर्शन ये सन एकार्थवाचक नाम है (वे. मिश्र/१/१ में प./१/१६६) - २. या आत्मायें, बागम और पदार्थोंमें रुचि या श्रद्धाको दर्शन कहते हैं.
घ. १/९.१.१३३ / २०४/४ अस्मपि न कदाचिदच्या मोपलभ्यत इति चेन तस्य महिरङ्गोपयोगावस्थायामन्तरोपयोगानुभाव - प्रश्न- अपने आपके संवेदनसे रहित आमाकी तो कभी भी उपलब्धि नहीं होती ? उत्तर- नहीं, क्योंकि, बहिरंगपदार्थों की उपयोगरूप अवस्था में अन्तरंग पदार्थका उपयोग नहीं पाया जाता है।
प. म./टी./२/११/१२०/८ तत्वार्थश्रद्धानरुचिरूपं सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गो भवति नास्ति दोषः पश्यति निर्विकल्परूपेणावलोकयति इत्येवं यदुक्तं तत्सत्तालोकदर्शन कथं मोक्षमार्गो भवति यदि भवति चेतर्हि तरसताव लोकदर्शनव्यानामपि विद्यते तेषामपि मोक्षो भवति स चागमविरोध इति परिहारमाह शेष निर्वित्तायलोकदर्शनं महिषिये विद्यते न चान्यन्तरशुरमविषये
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प. प्र./टी./२/३४/१५४/१२ निजात्मा तस्य दर्शनमयलोकन दर्शनमिति व्याख्यातं भवद्भिरिदं तु सत्तावलोकदर्शनं मिथ्यादृष्टीनामप्यस्ति तेषामपि मोक्षो भवतु परिहारमाह। चतुरचतुरधिकेवलमेदेन चतुर्धा दर्शनम् । अत्र चतुष्टयमध्ये मानसमचक्षुर्दर्शनमात्मग्राहक भवति, तच मिध्यात्वादिसमवृत्युपशमक्षयोपक्षयनित स्वार्थश्रद्धानलक्षणसम्यक्त्वाभावात शुद्धात्मतत्वमेवोपादेयमिति श्रद्धानाभावे सति तेषां मिथ्यादृष्टीनां न भवत्येवेति भावार्थ: । - १. प्रश्न'तत्वार्थ श्रद्धा या तत्त्वार्थरुचिरूप सम्यग्दर्शन (दे. सम्यग्दर्शन /II / १ ) मोक्षमार्ग होता है' ऐसा कहनेमें दोष नहीं; परन्तु 'जो देखता है या निर्विकल्परूपसे अवलोकन करता है' ऐसा सत्तावलोकनरूप दर्शन जो आपने कहा है, वह मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है। यदि 'हो तो है. ऐसा मानो तो वह सत्तावलोकनरूप दर्शन तो अमक्योंके भी होता है, उनको भी मोक्ष होना चाहिए और इस प्रकार आगम के साथ विरोध आता है उत्तर उनके निर्विकल्प सत्तावलोकरूप दर्शन बाह्य विषयोंमें ही होता है. अत्यन्त शुद्धात्म तत्त्वके विषय में नहीं । २. प्रश्न- निजात्मा के दर्शन या अवलोकनको आपने दर्शन कहा है, और वह सतावलोकरूप दर्शन मिध्यादृष्टियों के भी होता है। उनको भी मोक्ष होना चाहिए ! उत्तर - चक्षु. अचक्षु, अवधि और केवलके भेद से दर्शन चार प्रकारका है। इन चारोंमें से यहाँ मानस अचक्षु दर्शन आत्मग्राहक होता है । और वह मिथ्याखादि सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय और योपशम जनित तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षणवाले सम्यग्दर्शनका अभाव होनेके कारण, 'शुद्धात्मतत्त्व ही उपादेय है' ऐसे श्रद्धानका अभाव है। इसलिए वह मोक्ष उन मिथ्यादृष्टियों के नहीं होता है।
दे सम्यग्दर्शन /11 / 2 (सच्चा स्वार्थ गद्वान वास्तव आरमानुभव सापेक्ष ही होता है।
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I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश
६. सम्यग्दर्शन के अपर नाम
म.पु./१/१२३ श्रद्धारुचिस्पत्याचेति पर्ययाः ॥ १२३॥ बद्धा, रुचि, स्पर्श और प्रत्यय या प्रतीति ये सम्यग्दर्शनके पर्याय हैं । ( पं. ध० /उ. ४१११
७. सम्यक्त्वकी विराधना व पुनः पुनः प्राप्ति सम्बन्धी नियम
दे. सम्यग्दर्शन /1V/२/- [ मनुष्योंनें जन्म होनेके आठ वर्ष पश्चात् देव नारकियोंमें अन्तर्मुहूर्त पश्चात् और चोंको दिवस पृथत्व के पश्चात् प्रथम सम्यक्त्व होना सम्भव है, इससे पहला नहीं ।] ये सम्यग्दर्शन / IV/२/० [ उपशम सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त काल परचाद अवश्य छूट जाता है । ]
दे. सम्यग्दर्शन / IV / ४ /७ [ वेदकसम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से च्युत होते हैं पर अत्यन्त अल्प । ]
दे. सम्यग्दर्शन / IV/५/९ [ क्षायिक सम्यग्दर्शन अप्रतिपाती है। ] ये सम्यग्दर्शन /1V/४/८ | एक बार गिरनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालसे पहले सम्यक्त्व पुनः प्राप्त नहीं होता । ]
दे. आयु /६/८ [ वर्द्धमान देवायुवालेका सम्यक्त्व विराधित नहीं होता । ]
2 [ तीर्थंकर प्रकृति सत्कमिकका सम्यक् विराधित नहीं होता।]
३. श्या/२/१ [ शुभ वेश्याओं में सम्यक्प विराधित नहीं होता ।] दे. संयम / २ / १० [पशमिक व वेदक सम्यस्व व अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पन्यके असंख्यातवें भाग बार विराधित हो सकते हैं, इससे आगे वे नियमले मुक्त होते हैं।]
दे. श्रेणी/३ उपसमश्रेणी के साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व अधिक से अधिक चार बार विराधित होता है।]
सम्यग्दर्शन /1/५/४ [ क्षायिक सम्यग्दृष्टि जपन्यसे भय और उत्कर्ष से ७-८ भवोंमें अवश्य मुक्ति प्राप्त करता है । ]
२. सम्यग्दर्शनके अंग अतिचार आदि
१. सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का नाम
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मू. अ. / २०१ णिस्सं किद णिक्कंखिद निव्विदगिच्छा अमूढदिट्ठी य । उवग्रहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ । २०११ - निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अनूढदृष्टि, उपग्रहन, स्थितिकरण, वाक्य और प्रभावना ये आठ सम्यक्त्व के अंग या गुण जानने चाहिए | २०११ ( स. सि./६/२४/३३८/६ ); (रा. वा./६/२४/१/५२६/4); (४) (पं. . . / ४०१-४८०)
२. आठों अंगों की प्रधानता
२. क. श्रा./२१ नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसंततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरम्यूनो निहन्ति विषवेदनां ॥ २१ ॥ = जैसे एक दो अक्षररहित अशुद्ध मन्त्र विषकी वेदनाको नष्ट नहीं करता है, वैसे है अंगरहित सम्यग्दर्शन भी संसारकी स्थिति छेदनेको समर्थ नहीं है। (चा. सा./६/९) क.अ./मू./२२५ सिंका-यहूडि गुणा जह धम्मे तय देव गुरु तच्चे। जाणेहि जिणमयादो सम्मत्तविसोया एदे । २५ - ये निःशंकितादि आठ गुण जैसे धर्मके विषय कहे वैसे ही देव गुरु और तुस्वके विषय भी जैनागमसे जानने चाहिए ये आठों जंग सम्यग्दर्शनको विशुद्ध करते हैं (सु. श्रा./५०)।
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