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सम्यग्दर्शन
अपरूप अनेकान्त उन्हें द्वेष होना अपश्यंभावी है। तथा पृथिवीकायिक आदिकोंको हिंसा करना भी उनमें पाया जाता है। (२५/५ ) (जैसे सम्यष्टिमें होते हैं जैसे प्रशमादि गुगनिया दृष्टि में नहीं पाये जाते- द. पा./पं. जयचन्द ) ( द. पा./पं. जयचन्द / २ / पृष्ठ ७ व १५) प्रश्न- ४. जिस प्रकार सराग सम्यग्दृष्टि में उसको अभिव्यक्ति प्रमादि गुणोंद्वारा अनुमानगम्य है, उसी प्रकार वीतराग सम्यग्दृष्टियों में भी उन्होंके द्वारा अनुमानगम्य क्यों नहीं ? उत्तर नहीं, क्योंकि वीतरागोंका तत्वार्थान अपने आत्मविशुद्धिरूप होता है। सकल मोहके अभाव में तहाँ समारोपको अर्थात् संशय आदिको अवकाश न होनेसे, उसका स्वसंवेदनसे ही निश्चय होता है, क्योंकि वह विशुद्धि अनुमानका विषय नहीं है ५. दूसरी बात यह भी है कि वीतराग जनमें सम्यग्दर्शनके ज्ञापक प्रशमादि गुणोंका तथा वचन व काय व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगका सद्भाव होते हुए भी, वे अति सक्ष्म होनेके कारण वे छद्मस्थोंके गोचर नहीं हो पाते, क्योंकि, छद्मस्थोंके पास उनको जानने का कोई साधन नहीं है। इसलिए ये गुण व लिंग वोराग सम्यग्दर्शन के अनुमानके उपाय नहीं हैं। (४४/१०)। प्रश्न-६.स
अप्रमत्त सराग गुणस्थानों में सम्यग्दर्शनका अनुमान कैसे किया जा सकता है, क्योंकि उनमें उसके निर्णयके उपाय भूत, काय व वचन व्यवहाररूप विशेष ज्ञापक लिंगोंका अभाव है ? उत्तर - तुम हमारे अभिप्रायको नहीं समझे सर्व ही सराग जीवोंके सम्यग्दर्शनका 1 अनुमान केवल इन गुणों व लिंगोंपरसे ही होता हो, ऐसा नियम नहीं किया गया है। बल्कि यथा सम्भव वीतराग व सराग दोनों में ही सम्यग्दर्शन की अनुमेयता आत्मविशुद्धि होती है, ऐसा हमारा अभिप्राय है अर्थात ४-६ वाले सराग प्रमत्त गुणस्थानों में तो प्रशमादि गुणों से तथा ७-१० तकके सराग अप्रमत्त गुणस्थानों में आत्मविशुद्धिसे उसकी अभिव्यक्ति होती है (४५३) अन ध./२/ ५२/९०१ )
दे. अनुभव आत्मानुभव स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। मो. मा./प्र./७/३५७/८ द्रव्य लिंगीकै स्थूल तौ अन्यथापना है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापनी है, सो सम्बदृष्टिको भारी है। देप्रा३/९ (सहवास में रहकर दूसरोंके परिणामों का अनुमान किया जा सकता है। )
३. वास्तव में सम्यग्दर्शन नहीं बल्कि प्रशमादि गुण ही प्रत्यक्ष होते हैं।
श्लो. बा./२/१२/२/१२/३/१ ननु प्रशमादयो यदि स्वस्मिन् स्वसंवेद्या ज्ञानमपि न कि स्वसंवेद्य यतस्तेभ्योऽनुमीयते । स्वयं वेद्यस्वाविशेषेऽपि तैस्तदनुमीयते न पुनस्ते तस्मादिति ता न्यत्रापरीक्षकादिति चेत्, नैतत्सारम् दर्शनमोहोपशमादिविशिष्टा
स्वरूपस्य तत्त्वार्थज्ञानस्य स्वसंवेद्यत्वा निश्चयात्। स्वसंवेद्य' पुनरास्तिक्यं तदभिप्रामसंवेगात् कथंचित्ततो भिन्नं तत्तस्माद रात एवं फलतद्वसोरमेदाियामास्तिक्यमेव
सार्थ श्रद्धानमिति तस्य तद्वत्स्यसिद्धान्तदनुमेयत्वमपि न विरुध्यते प्रश्न यदि प्रशमादि गुण अपनी आत्मा स्वसंवेदनगम्य है वो तस्वार्थरूप ही स्वसंवेदन क्यों न हो जाय । क्यों उसे प्रशमादिके द्वारा अनुमान करनेकी आवश्यकता पड़े। क्योंकि, आत्मा के परिणाम पनेरूपसे दोनोंमें कोई भेद नहीं है । पहिले स्वसंवेदन से प्रशमादिको जानें और फिर उनपर से सम्यग्दर्शन का अनुमान करें, ऐसा व्यर्थका परस्पराश्रय क्यों कराया जाय ! उत्तर - यह कहना सार रहित है, क्योंकि दर्शनमोहके उपशमादि विशिष्ट आत्मस्वरूप तत्त्वार्थश्रज्ञानका स्वसंवेदन से निश्चय नहीं हो सकता। परन्तु प्रशम संवेग आदि गुणोंकी भाँति आस्तिक्य गुण स्वसंवेद्य होता हुआ उसका अभिव्यंजक हो जाता है। श्रद्धानके
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I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश
फलरूप होने के कारण ये चारों प्रशमादि गुण उस श्रद्धानसे कथंचित् भिन्न है। फल और फहवाकी अभेद विवक्षा करने पर यह आस्तिक्य गुण ही तत्त्वार्थ श्रद्धान है। इस प्रकार उस आस्तिक्यकी भांति उस तत्वार्थ श्रद्धानकी भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष सिद्धि हो जाती है।
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४. सम्यक्त्व वस्तुतः प्रत्यक्षज्ञान गम्य है। पंथ श्लो. सं सम्यवं वस्तुतः सूक्ष्मं केवल गोर स्वास्वान्तपर्ययज्ञानयोयोः न गोचरं मतिज्ञान-ज्ञानद्वयोर्मनाक् । नापि देशानधेस्तत्र विषयोऽनुपलब्धितः । ३७६ । सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् । तस्मात वक्तुं च श्रोतुं चनाधिकारी विधिक्रमात् ।४००| = सम्यक्त्व वास्तव में सूक्ष्म और केरल ज्ञानके गोचर है तथा अवधि और मन:पर्यय ज्ञानके भी गोचर है । [ क्योंकि अवधि ज्ञान भी जीवके औपशमिक आदि कर्म संयोगी भावको प्रत्यक्ष जानने में समर्थ है (वे. अवधिज्ञान /- ) ] | ३७५ | परन्तु मति और श्रुत ज्ञान और देशावधि इनके द्वारा उसकी उपलब्धि सम्भव नहीं है । ३७६ । वास्तव में सम्यक्त्व सूक्ष्म है और वचनों के अत्यन्त अगोचर है, इसलिए कोई भी जीव उसके विधि पूर्वक कहने और सुननेका अधिकारी नहीं है |४००
दे. सम्यग्दर्शन / I / ४ [प्रशमादि गुण तथा आत्मानुभूति भी सम्यग्दर्शन नहीं ज्ञानकी पर्यायें हैं। अतः स्वसंवेद्य श्रुतज्ञान द्वारा भी वह प्रत्यक्ष नहीं है । ]
५. सम्यक्त्वको सर्वथा केवलज्ञानगम्य कहना युक्त नहीं है।
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द.पा. पं. जयचन्द /२/पृ. ८-प्रश्नई कहे है जो समयमस्य तो केवलोगम्य है या आपके सम्यक्त्व भयेका निश्चय नहीं होय, ता आपलं सम्यष्टि नहीं माननां उत्तर सी ऐसे सर्वथा एकान्त करि कहना तो मिथ्यादृष्टि है, सर्वथा ऐसें कहे व्यवहारका लोप होय, सर्वमुनि श्रावककी प्रवृत्ति मिथ्यात्वसहित ठहरै । तब सर्व ही मिध्यादृष्टि आपकं मानें, तब व्यवहार काहेका रह्या, ता परीक्षा भये पीछे ( दे. शीर्षक सं. २) यह श्रद्धान नाहीं राखणां जो मैं मिथ्यादृष्टि ही हूँ ।
४. सम्यग्दर्शनका ज्ञान व चारित्रके साथ भेद
१. श्रद्वान आदि व आत्मानुभूति वस्तुतः सम्यक्त्व नहीं ज्ञानकी पर्याय हैं
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पं. ध. / उ / श्लो. सं. श्रद्धानादिगुणा बाह्यं लक्ष्म सम्यग्दृगात्मनः । सम्यदेवेति सन्ति ज्ञानस्य पर्ययाः ॥ १८६॥ अपि चात्मानुभूतिश्च ज्ञानं ज्ञानस्य पर्ययात् अर्थात ज्ञानं न सम्यमस्ति बालक्ष
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|३०| सत्यार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा साम्यं रुचिस्तथा प्रतीतिस्तु तथेति स्यात्स्वीकारश्चरणं क्रिया । ४१२ | अर्थादाद्यत्रिकं ज्ञानं ज्ञानस्यैवात्र पर्ययाद चरण भावकायचेतोरि शुभकर्म |४१३। सम्यग्ष्टष्टि जीवके श्रद्धान आदि गुण ( लक्षण ) बाह्य लक्षण हैं, इसलिए केवल उन श्रद्धानादिकको ही सम्यक्त्व नहीं कह सकते हैं क्योंकि वे वास्तव में ज्ञान की पर्यायें है । ३८६ तथा आत्मानुभूति भी ज्ञान ही है, क्योंकि वह ज्ञानकी पर्याय है। इसलिए इसको भी ज्ञान हो कहना चाहिए सम्यक्त्व नहीं। यदि इसे सम्यक्त्वका लक्षण भी कहें तो बाह्य लक्षण ही कहें अन्तरंग नहीं | ३८७ ( ला. सं / ३ / ४१-४२ ) तत्वार्थोंके विषय में उन्मुख बुद्धि श्रद्धा कहलाती है तथा उनके विषय में तन्मयता रुचि कहलाती है; और 'यह ऐसे ही है' इस प्रकारका स्वीकार प्रतीति कहलाती है, तथा उसके अनुसार
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