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सम्यग्दर्शन
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I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश
आचरण करना चरण कहलाता है ।४१२। इन चारोंमें वास्तबमें आदि वाले श्रद्धादि तीन ज्ञानको ही पर्याय होनेसे ज्ञानरूप है तथा वचन, काय व मन से शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना चरण कहलाता है ।४१३। दे, अनुभव/४ ( आत्मानुभव स्वसंवेदन रूप ज्ञान है )
२. प्रशमादिक ज्ञानरूप नहीं बल्कि सम्यक्त्वके कार्य हैं श्लो.वा./२/१/२/१२/३९-४१ सम्यग्ज्ञानमेव हि सम्यग्दर्शन मिति केचिद्विप्रवदन्ते, तान् प्रतिज्ञानात भेदेन दर्शनं प्रशमादिभिः कार्यविशेषैः प्रकाश्यते । (३६) । ज्ञानकार्यत्वात्तेषां न तत्प्रकाशकत्वमिति चेन्न अज्ञाननिवृत्तिफलत्वात् ज्ञानस्य । साक्षादज्ञाननिवृत्तिानस्य फलं, परम्परया प्रशमादयो हानादिबुद्धिवदिति चेत, तर्हि हानादिबुद्धिवदेव ज्ञानादुत्तरकालं प्रशमादयोऽनुभूयेरन्, न चैवं ज्ञानसमकालं प्रशमाद्यनुभवनात् । (३६।२५) । सम्यग्दर्शनसमसमयमनुभूयमानत्वात् प्रशमादेस्तत्फलत्वमपि माभूत इति चेन्न, तस्य तदभिन्नफलत्वोपगमात्तत्समसमयवृत्तित्वाविरोधात, ततो दर्शनकार्यत्वाद्दर्शनस्य ज्ञापकाः प्रशमादयः।-प्रश्न-सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में सम्यग्दर्शन है ? उत्तर-प्रशम आदिक विशेष कार्योसे दर्शन व ज्ञानमें भेद है। प्रश्न-प्रशमादि क्रिया विशेष तो सम्यग्ज्ञानके कार्य हैं, अतः वे सम्यग्ज्ञानके ही ज्ञापक होंगे ? (३६/६) उत्तर-नहीं, क्योंकि ज्ञानका फल तो अज्ञान निवृत्ति है । प्रश्न-ज्ञानका अव्यवहित फल तो अज्ञान निवृत्ति है, किन्तु उसका परम्परा फल प्रशम आदि है जैसे कि हेय पदार्थ में त्याग बुद्धि होना उसका परम्परा फल है ? उत्तर--- यदि ऐसा है तो उस त्याग बुद्धिके समान ये प्रशमादि भी ज्ञानके उत्तर काल में ही अनुभवमें आने चाहिए। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ज्ञानके समकाल में ही उनका अनुभव देखा जाता है। ( ३६/२५) प्रश्न-तब तो सम्यग्दर्शनके समकाल में ही अनुभव गोचर होनेके कारण वे सम्यग्दर्शनके भी फल न हो सकेंगे? उत्तर-नहीं, सम्यक्त्वके अभिन्न फलस्वरूप होनेके कारण प्रशमादिकी समकाल वृत्तिमें कोई विरोध नहीं है। इसलिए दर्शनके कार्य होनेसे वे प्रशमादि सम्यग्दर्शन के ज्ञापक हेतु हैं।
गया है । ।३६६। उस सम्यग्दर्शनके लक्षण में भी जो आत्माका अनुभव है वह आत्माका विशेष ज्ञान है जो सम्यक्त्वके साथ अन्वय व्यतिरेकसे अविनाभावी है।४०२। इसलिए इन दोनों में व्याप्ति होनेके कारण वचनके अगोचर भी सम्यक्त्व वचन गोचर हो जाता है, इसलिए यदि शुद्धनयात्मिका हो तो वह स्वानुभूति सम्यक्त्व कहलाती है ।४०३। ५. अनुभूति उपयोगरूप होती है और सम्यक्त्व लब्ध रूप पं.ध/उ/श्लोक सं. किंचास्ति विषमव्याप्तिः सम्यक्त्वानुभवद्वयोः । नोपयोगे समव्याप्तिर स्ति लब्धिविधौ तु सा४०४। तथा स्वानुभूती वा तत्काले वा तदात्मनि । अस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापि तत् ।४०५। यदि वा सति सम्यक्त्वे स स्याद्वा नोपयोगवान् । शुद्धानुभवस्तत्र लब्धिरूपोऽस्ति वस्तुनः ।४०६। हेतुस्तत्रास्ति सधीची सम्यक्त्वेनान्वयादिह। ज्ञानसंचेतनाल धिनित्या स्वावरणव्ययात ।८५२ साधं तेनोपयोगेन न स्याद्व्याप्तिर्द्वयोरपि। विना तेनापि सम्यक्त्वं तदास्ते सति स्याद्यतः ।८७५) आत्मनोऽन्यत्र कुत्रापि स्थिते ज्ञाने परात्मसु । ज्ञानसंचेतनायाः स्यारक्षतिः साधोयसी तदा ।१००। सत्यं चापि क्षतेरम्याः क्षतिः साध्यस्य न क्वचित। इयानात्मोपयोगस्य तस्यास्तत्राप्यहेतुतः ।६०१॥ साध्यं यद्दर्शनाद्धेतोनिर्जरा चाष्टकर्मणाम् । स्वतो हेतुवशाच्छक्तेन तद्ध'तुः स्वचेतना।०२। अनिघ्नन्निह सम्यक्त्वं रागोऽयं बुद्धिपूर्वकः । नूनं हन्तु क्षमो न स्याज्ज्ञानसंचेतनामिमाम् ।।१८सम्यग्दर्शन और स्वानुभव इन दोनोमें विषमव्याप्ति है क्योंकि ( अनुभूति उपयोग रूप है और सम्यक्त्व लब्धरूप) उपयोगरूप स्वानुभूतिके साथ सम्यक्त्वकी समव्याप्ति नहीं है किन्तु लब्धिरूप स्वानुभूतिके साथ ही उसकी समव्याप्ति है ।४०४। वह इस प्रकार कि स्वानुभवके होनेपर अथवा स्वानुभूतिके कालमे भी उस आत्मामें अवश्य ही ज्ञात होता है, क्योंकि उस सम्यग्दर्शनरूप कारणके बिना वह स्वानुभूतिरूप कार्य नहीं होता है।४०५॥ अथवा यों कहिए कि सम्यग्दर्शनके होनेपर वह आत्मा स्वानुभूतिके उपयोगसे सहित हो ही ऐसा कोई नियम नहीं, परन्तु स्वानुभूति यदि होती है तो सम्यक्त्व के रहनेपर ही होती है ।४०६। इसमें भी हेतु यह है कि सम्यक्त्वके अविनाभूत स्वानुभूति मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे समीचीन ज्ञानचेतनाकी लब्धि उसके सदैव पायी जाती है । ८५२१ परन्तु आत्मोपयोगके साथ सम्यक्त्व की व्याप्ति नहीं है, क्योंकि आत्माके उपयोगके न रहते हुए भी वह सम्यक्त्व रहता है और उपयोगके रहते हुए भी।८७५ प्रश्न-शुद्धात्माके सिवा किन्हीं अन्य पदार्थों में जब ज्ञानका उपयोग होता है तब ज्ञान चेतनाकी हानि अवश्य होती है 11६००। उत्तर- ठीक है कि तब ज्ञानचेतनाकी क्षति तो हो जाती है परन्तु उसकी साध्यभूत संवर निर्जराकी हानि नहीं होती है, क्योंकि, वह उपयोगरूप ज्ञानचेतना स्वर निर्जराके हेतु नहीं है ।१०१। स्वात्माको विषय करना हो उसका कार्य है, क्योंकि, सम्यग्दर्शन के निमित्त से आठों कर्मोकी निर्जरा होना जो साध्य है, वह स्वयं सम्यक्त्वकी शक्तिके कारण होता है, अतः ज्ञान चेतना उसमें कारण नहीं है ।१०२। यहाँपर यह बुद्धिपूर्वक औदयिक भावरूप राग सम्यक्त्वका घात नहीं करता है. इसलिए वह इस लब्धरूप ज्ञानचेतनाका घात करनेको समर्थ नहीं है ।११८) ६. सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें अन्तर रा.वा./१/१/६०/१६/४ ज्ञानदर्शनयोर्युगपत्प्रवृत्तेरेकत्वमिति चेत्, न; तत्त्वावायश्रद्धानभेदात तापप्रकाशवत। --प्रश्न-ज्ञान व दर्शनकी युगपत् प्रवृत्ति होने के कारण वे दोनों एक हैं ! उत्तर- नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार युगपत होते हुए भी अग्निका ताप व प्रकार ( अथवा दीपक व उसका प्रकाश-पु. सि. उ.) अपने-अपने लक्षणोंसे भेदको
३. प्रशमादि कथंचित् सम्यग्ज्ञानके भी ज्ञापक हैं श्लो.वा./२/१/२/१२/४१/६ प्रशमादयः सहचरकार्यत्वात्तु ज्ञानस्येत्यनवद्यम् । =सम्यग्ज्ञानरूप साध्य के साथ रहनेवाले सम्यग्दर्शनके कार्य हो जानेसे वे प्रशमादिक सम्यग्ज्ञान के भी ज्ञापक हेतु हो जाते हैं। ४. स्वानुभूत्तिके ज्ञान व सम्यक्त्वरूप होने सम्बन्धी समन्वय पं.ध./ड./श्लो. सं. नन्वात्मानुभव: साक्षात् सभ्यस्त्वं वस्तुतः स्वयम् ।
सर्वतः सर्वकालेऽस्य मिथ्यादृष्टेरसंभवात् ।३८६। नैवं यतोऽनभिज्ञोऽसि सत्सामान्यविशेषयोः। अप्यनाकारसाकारलिङ्गयोस्तद्यथोच्यते ।३६०1 ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लेखं समालेख्य ज्ञानद्वारा निरूप्यते।३६६। तत्राप्यात्मानुभूतिः सा विशिष्टं ज्ञानमात्मनः। सम्यक्त्वेनाविनाभूतमन्वयाव्यतिरेकत: ।४०२॥ ततोऽस्ति योग्यता वक्तुं व्याप्तेः सद्भावतस्तयोः। सम्यक्त्वः स्वानुभूतिः स्यात्सा चेच्छुद्धनयात्मिका ।४०३ = प्रश्न- साक्षात् आत्माका अनुभव वास्तवमें स्वयं सम्यक्त्वस्वरूप है, क्योंकि, किसी भी क्षेत्र या काल में वह मिथ्यादृष्टि को प्राप्त नहीं हो सकता है ११३८ । उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सामान्य और विशेषके लक्षणभूत अनाकार और साकारके विषयमें भी तुम अनभिज्ञ हो ।३६० [ज्ञानके अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प व निराकार हैं (दे. गुण/२/१०) ] और निर्विकल्प वस्तु के कथनको, अनिर्वचनीय होने के कारण, ज्ञानके द्वारा उन सामान्यात्मक गुणोंका उल्लेख करके उनका निरूपण किया
भा०४-४५
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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