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सम्यग्दर्शन
HII सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके निमित्त
प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होने वाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करणके भेदसे तीन प्रकारकी विशुद्धियाँ होती है। (विशेष दे. करण/३-६) ल. सा/जी. प्र./२/११/११ विशुद्ध इत्यनेन शुभलेश्वरवं संगृहीत उदयप्रस्तावे स्त्यानगृध्यादित्रयोदयाभावस्य वक्ष्यमाणत्वात जागरत्वमप्युक्तमेव । - गाथामें प्रयुक्त "विशुद्ध' इस शब्दसे यहाँ शुभलेश्याका संग्रह किया गया है। तथा आगे स्त्यानगृधि आदि तीन निद्राओंका अभाव कहेंगे जिससे 'जागृत अवस्थामें होता है' ऐसा भी कह दिया गया समझना चाहिए ।
५. जाति स्मरण आदि स, सि./२/३/१५३/६ 'आदि' शब्देन जातिस्मरणादिः परिगृह्यते। स.सि /१/७/२६/२ बाह्य.. केषांचिज्जातिस्मरणं... 1 - 'आदि' शब्दसे जाति स्मरण आदिका अर्थात् जातिस्मरण, जिनमिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन, देवधिदर्शन व वेदना आदिका ग्रहण होता है। ये जातिस्मरण आदि बाह्य निमित्त हैं । (रा. वा./२/३/२/१०५/ ४) (और भी दे. शीर्षक न.४) न. च. बृ./३१६ तित्थयरकेवलिसमणभवसुमरणसत्यदेवमहिमादी। इच्चेवमाइ बहुगा बाहिरहेउ मुणेयव्वा ।३१६। - तीर्थकर, केवली, श्रमण, भवस्मरण, शास्त्र, देवमहिमा आदि बहुत प्रकारके बाह्य हेतु मानने चाहिए। देक्रिया/३ में सम्यक्त्ववर्धिनी क्रिया-(जिन पूजा आदिसे सम्यक्त्वमें
वृद्धि होती है।) दे. सम्यग्दर्शन/III/३/१ ( चारों गतियोंमें पृथक-पृथक् जातिस्मरण
आदि कारणोंकी यथा योग्य सम्भावना)
६. उपरोक्त निमित्तोंमें अन्तरंग व बाह्य विभाग रा. वा./१/9/१४/१०/२६ बाह्य चोपदेशादि । =सम्यग्दर्शनके बाह्य
कारण उपदेश आदि हैं। दे. शीर्षक/नं. १,२ (नि, सा./गा. ५३ के अपरार्धमें दर्शनमोहके उपशमादिको अन्तरंग कारण कहा है। अतः पूर्वार्धमें कहे गये जिन सूत्र व उसके ज्ञायक पुरुष अर्थापत्तिसे ही माह्य निमित्त कहे गये सिद्ध होते हैं।) दे. शीर्षक/२ (दर्शनमोहनीय कर्म के उपशमादि अन्तरंग कारण हैं।) दे. शीर्षक/३ ( देशना लब्धि व काल लब्धि माझ कारण है तथा करण
लब्धि अन्तरंग कारण है।) दे. शीर्षक/४ (भावात्मक होने के कारण करण लब्धि व शुभ लेश्या आदि
अन्तरंग कारण हैं)।
२. कारणोंकी कथंचित् गौणता दे.सम्यग्दर्शन/III/३/ [ नारकी जीवों में केवल जाति स्मरण सम्यक्त्वका निमित्त नहीं है, बल्कि पूर्वभवकृत अनुष्ठानोंकी विफलताके दर्शन रूप उपयोग सहित जातिस्मरण कारण है ।। इसी प्रकार तहाँ केवल वेदना सामान्य कारण नहीं है, बल्कि 'यह वेदना अमुक मिथ्यात्व व असंयमका फल है' इस प्रकारके उपयोग सहित ही वह कारण है। दे. सम्यग्दर्शन/III/I/E [अवधिज्ञान द्वारा जिनमहिमा आदि देखते हुए
भी अपनी वीतरागताके कारण ग्रैवेयक वासी देवोंको विस्मय उत्पन्न कराने में असमर्थ वे उन्हें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिमें कारण नहीं होते।] दे. सम्यग्दर्शन |III/२/४ [ मात्र देव ऋद्धि दर्शन सम्यक्त्वोत्पत्तिका
कारण नहीं है बल्कि 'ये अमुक संयमके फल हैं अथवा बालतप आदिके कारण हम ऋद्धि हीन नीच देव रह गये' इत्यादि उपयोग सहित ही वे कारण हैं।
३. कारणोंका परस्परमें अन्तर्भाव दे. सम्यग्दर्शन/III/१ [नैसर्गिक सम्यकत्वका भी इन्हीं कारणों से
उत्पन्न सम्यक्त्वमें अन्तर्भाव हो जाता है। ] दे. सम्यग्दर्शन/III/३/३ [ऋषियों व तीर्थक्षेत्रोंके दर्शनका जिनबिम्ब___ दर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। ] दे. सम्यग्दर्शन/III/३/६७ [ जिनबिम्बदर्शन व जिन महिमादर्शनका
एक दूसरेमें अन्तर्भाव हो जाता है।] दे. सम्यग्दर्शन/III/2/018 (धर्मोपदेश व देवद्धिसे उत्पन्न जातिस्मरणका धर्मोपदेश व देवद्धि में अन्तर्भाव हो जाता है।]
४. कारणोंमें परस्पर अन्तर ध,६/१,९.६,३७/४३३/५ देविद्धिदंसणं जाइसरणम्मि किण्ण पविस दि । ण पविसदि, अप्पणो अणिमादिरिद्धीओ दट ठूण एदाओ रिद्धीओ जिणपण्णत्तधम्माणुढाणादो जादाओ त्ति पढमसम्मत्तपडिबज्जणं जाइस्सरणणिमित्तं । सोहम्मिदादिदेवाणं महिड्ढीओ दट ठूण एदाओ सम्मइंसणसंजुत्तसंजमफलेण जादाओ, अहं पुण सम्मत्तविरहिद दब्बसंजमफलेण वाहणादिणीचदेवेसु उप्पण्णो त्ति णादूण पढमसम्मत्तगहणं देविद्धिदसणणिबधणं । तेण ण दोण्हमेयत्तमिदि। कि च जाहस्सरणमुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहत्तकालभंतरे चेव होदि । देविद्भिदं सणं पुण कालंतरे चेत्र होदि, तेण ण दोण्हमेयत्तं । एसो अत्थो णेरइयाण जाइस्सरणवेयणाभिभवणाणं पि क्त्तव्यो।-प्रश्न-देवद्धिदर्शनका जातिस्मरणमें समावेश क्यों नहीं होता ? उत्तर-१. नहीं होता, क्योंकि, अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब (देवोंको) ये विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिनभगवान द्वारा उपदिष्ट धर्मके अनुष्ठानसे उत्पन्न हुई हैं, तब प्रथम सम्यक्त्वकी प्राप्ति जातिस्मरणनिमित्तक होती है। किन्तु जब सौधर्मेन्द्रादिक देवों की महा ऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दशनसे संयुक्त संयमके फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्वसे रहित द्रव्यसंयमके फलसे बाहनादिक नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ, तब प्रथमसम्यक्त्वका ग्रहण देवऋद्धिदर्शन निमित्तक होता है। इससे ये दोनों कारण एक नहीं हो सकते । २. तथा जातिस्मरण उत्पन्न होने के प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर ही होता है । किन्तु देवद्धिदर्शन, उत्पन्न होनेके समयसे अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात ही होता है। इसलिए भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है। -३. यही अर्थ नारकियोंके जातिस्मरण और वेदनाभिभवरूप कारणों में विवेकके लिए भी कहना चाहिए। दे. सम्यग्दर्शन/III/३/८/४ [धर्मोपदेशसे हुआ जातिरमरण और
देवद्धिको देखकर हुआ जाति स्मरण ये दोनों जातिस्मरण रूपसे एक होते हुए भी भिन्न-भिन्न माने गये हैं।]
२. कारणोंमें कथंचित् मुख्यता गौणता व भेदाभेद
१. कारणोंकी कथंचित् मुख्यता रा.वा/१/३/१०/२४/६ यदि हि सर्वस्य कालो हेतुरिष्टः स्यात बाह्याभ्यन्तरकारण नियमस्य दृष्टेष्टस्य वा विरोधः स्याद-यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय ( अर्थात् केवल काललब्धिसे मुक्ति होना मान लिया जाये) तो बाह्य और आभ्यन्तर कारण सामग्रीका ही लोप
हो जायेगा। ध.६/१/६६३०/४३०१णइसग्गियमवि पढमसम्मत्तं तच्च? उत्तं. तं हि एत्थेत्र दट्ठब, जाइस्सरण-जिण बिंबदसणे हि विणा उप्पज्जमाणणइ. सग्गियपढमसम्मत्तस्स असंभवादो। -तत्त्वार्थ सूत्रों में नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्वका भो कथन किया गया है. उसका भी पूर्वोक्तकरणोंसे उत्पन्न हुए सम्यक्त्वमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिए, क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शनके बिना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व असम्भव है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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