Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 367
________________ सायग्दर्शन TH निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन ४. सराग वीतराग सम्यग्दर्शन निर्देश १.सराग वीतराग रूप भेद व लक्षण (दे. नय/v/८/४ ) तथापि अभेद रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधिकाल- में वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं, क्योंकि वे शुद्धात्मस्वरूप नहीं है। उस परम समाधिके काल में इन नवपदार्थों में से शुद्धनिश्चयनयसे एक शुधात्मा ही अर्थात नित्य निरंजन चित्स्वभाव ही द्योतित होता है, प्रकाशित होता है, प्रतीतिमें आता है, अनुभव किया जाता है। ( और भी दे. तत्त्व/३/४ ); ( स. सा./ता. वृ/६६/१५४/६) दे, अनुभव/३/३ [ आत्मानुभव सहित ही तत्त्वोंकी श्रद्धा या प्रतीति सम्यग्दर्शनका लक्षण है, बिना आत्मानुभवके नहीं। ] २. व्यवहार सम्यक्त्व निश्चयका साधक है द्र. सं/टी./४१/१७८/४ अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थं व्यारण्यातमिति चेद् व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकभावज्ञापनार्थ मिति । प्रश्न-यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्वके व्याख्यानमें निश्चय सम्यवत्वका वर्णन क्यों किया 1 उत्तर-व्यवहार सम्यक्त्वसे निश्चय सम्यक्त्व सिद्ध किया जाता है, इस साध्य-साधक भावको बतलानेके लिए किया गया है। पं. का./ता. वृ./१०७/१७०/८ इदं तु नवपदार्थ विषयभूत ठपयहारसम्य क्वं । कि विशिष्टम् । शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चयसम्यक्रवस्य छद्मस्थावस्थामात्मविषयस्वसंवेदनज्ञानस्य परम्परयां बीजम् । - यह जो नवपदार्थ का विषयभूत व्यवहार सम्यक्त्व है, वह शुद्ध जीवास्तिकायकी रुचिरूप जो निश्चय सम्यक्त्व है उसका तथा छद्मस्थ अवस्थामें आत्मविषयक स्वसंवेदन ज्ञानका परम्परासे बोज है। ससि./९/२/१०/२ तद द्विविध, सरागवीतरागविषयभेदात ।" प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । आत्मविशुद्धिमात्रमितरत् । सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है-सराग सम्यग्दर्शन और वीतराग सम्यग्दर्शन । प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदिकी अभिव्यक्ति लक्षणवाला सराग सम्यग्दर्शन है और आत्माकी विशुद्धि मात्र वीतराग सम्यग्दर्शन है। (रा. वा /१/२/२६-३१/ २२/६); (श्लो, वा, २/९/२/श्लो. १२/२६); (अन. ध./२/५१/१७८); (गो. जी./जी.प्र./५६१/१००६/१५ पर उद्धृत); (और भी दे. आगे शीर्षक नं.२)। रा. बा./१/२/३१/२२/१९ सप्तानां कर्मप्रकृतीनाम् आत्यन्तिकेऽपगमे सत्यात्मविशुद्धिमात्रमितरद् वीतरागसम्यक्त्वमित्युच्यते।-(दर्शनमोहनीयको) सातों प्रकृतियोंका आत्यन्तिक क्षय हो जानेपर जो आत्म विशुद्धिमात्र प्रकट होती है वह वीतराग सम्यक्त्व है। भ. आ./वि./११/१७/१८.२१ इह द्विविधं सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्व वीतरागसम्यक्त्वं चेति ।...तत्र प्रशस्तरागसहितानां श्रद्धानं सरागसम्यग्दर्शनम्। रागद्वयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागसम्यग्दर्शनम् । -सम्यक्त्व दो प्रकारका है-सरागसम्यमत्व और वीतराग सम्यत्त्व । तहाँ प्रशस्तराग सहित जीवोंका सम्यक्त्व सराग सम्यक्त्व है, और प्रशस्त व अप्रशस्त दोनों प्रकारके रागसे रहित ' क्षीणमोह वीतरागियोंका सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है। अ. ग. श्रा./२/६५-६६ वीतरागं सरागं च सम्यक्त्वं कथितं द्विधा। बिरागं क्षायिकं तत्र सरागमपरद्वयम् ।६। संवेगप्रशमास्तिक्यकारुण्यव्यक्तलक्षणम् । सरागं पटुभियमुपेक्षालक्षणं परम 14-बीतराग और सरागके भेदसे सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है। तहाँ क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग है और शेष दो अर्थात औपशमिक व क्षायोपशमिक सराग है 14 प्रशम, सवेग, आस्तिक और अनुकम्पा इन प्रगट लक्षणोंवाला सराग सम्यक्त्व जानना चाहिए । उपेक्षा अर्थात वीतरागता लक्षणवाला वीतराग सम्यक्त्व है।६६ स.सा./ता, वृ./१७/१२/१३ सरागसम्यग्दृष्टिः सन्नशुभकर्मकतृत्व मुञ्चति । निश्चयचारित्राविनाभाविवीतरागसभ्यग्दृष्टिभूत्वा शुभाशुभसर्वकर्मकर्तृत्वं च मुञ्चति । - सरागसम्यग्दृष्टि केवल अशुभ कर्मके कर्तापनेको छोड़ता है ( शुभकर्म के कर्तापनेको नहीं), जब कि निश्चय चारित्रके अविनाभूत वीतराग सम्यग्दृष्टि होकर वह शुभ और अशुभसर्व प्रकारके कर्मों के कर्तापनेको छोड़ देता है । द्र. सं./टी./४१/१६८/२ त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्वप्रस्तावे। - त्रिगुप्तिरूप अवस्था हो वीरागसम्यक्त्वका लक्षण है। ३. तत्वार्थ श्रद्धानको सम्यक्त्व कहनेका कारण व प्रयोजन यो. सा./अ./१/२-४ जीवाजीवद्वयं त्यक्त्वा नापरं विद्यते यतः । तल्लक्षणं ततो ज्ञेयं स्वस्वभावबुभुत्सया ।२। यो जीवाजीवयोर्वेत्ति स्वरूप परमार्थतः । सोऽजीवपरिहारेण जीवतत्त्वे निलीयते ।३। जीवतत्त्वविलीनस्य रागद्वेषपरिक्षयः । ततः कर्माश्रयच्छेदस्ततो निर्वाणसंगमः।४। -संसारमें जीव व अजीव इन दोनोंके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसलिए अपने स्वरूपज्ञानकी अभिलाषासे इन दोनों के लक्षण जानने चाहिए। जो परमार्थ से इनके स्वरूपको जान जाता है वह अजीवको छोड़कर जीव तत्त्वमें लय हो जाता है। उससे रागद्वेषका क्षय और इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।२-४। स. सा./ता. बृ./१७६/३५५/८ जीवादिनवपदार्थः श्रद्धानविषयः सम्यबस्वाश्रयत्वानिमित्तत्वाइ व्यवहारेण सम्यक्त्वं भवति। - जीवादि नव पदार्थ श्रद्धानके विषय हैं। वे सम्यक्स्वके आश्रय या निमित्त होनेके कारण व्यवहारसे सम्यक्त्व कहे जाते हैं। ( मो. मा. प्र./६/४८ ६/१६) प.प्र./टी./२/१३/१२०/२ तत्वार्थ श्रद्धानापेक्षया चलमलिनावगाढ़परिहारेण शुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपेण निश्चिनोति । - तत्त्वार्थ श्रद्धानकी अपेक्षा चलमलिन अगाढ इन दोषोंके परिहार द्वारा 'शुद्धात्मा ही उपादेय है ऐसी रुचिरूपसे निश्चय करता है। ४. सम्यक्त्वके अंगोंको सम्यक्त्व कहनेका कारण मो. मा. प्र./८/४०१/१५ निश्चय सम्यक्त्वका तौ व्यवहारविषै उपचार किया, बहुरि व्यवहार सम्यक्त्वके कोई एक अंगविषै सम्पूर्ण व्यवहार सम्यक्त्वका उपचार किया, ऐसे उपचारकरि सम्यक्त्व भया कहिए।' रा. वा./हिं./१/२/२४ यह (प्रशम संवेगादि ) चार चिह्न सम्यग्दर्शनको जनावै हैं, तातै सम्यग्दर्शनके कार्य हैं। तातै कार्य करि कारणका अनुमान हो है। २. व्यवहार व निश्चय सम्यक्त्वके साथ इन दोनोंकी एकार्थता द्र. सं./टी./४१/१७७/१२ शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् ।...वीतरागचारित्राविनाभूत वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति ।-शुद्ध जीव आदि तत्त्वार्थीका श्रद्धानरूप सरागसम्यक्त्व व्यवहार जानना चाहिए और वीतराग चारित्रके बिना नहीं होनेवाला वीतराग सम्यक्त्व नामक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिए। प.प्र./टी./२/१७/१३२/५ प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यते। तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति ।...वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्भधारमानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतम् । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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