________________
सम्यग्दर्शन
Hi निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन
भवन्ति । या पुनस्तेषां सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चयसम्यक्त्वस्य परंपरया साधकत्वादिति । वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः । प्रश्न-'निज शुधारमा ही उपादेय है' ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यक्त्व होता है, ऐसा पहिले कई वार आपने कहा है,
और अब 'वीतराग चारित्रका अविनाभूत निश्चय सम्यक्त्व है' ऐसा कह रहे हैं। दोनों में पूर्वापर विरोध है । वह ऐसे कि 'निज शुधात्मतत्त्व ही उपादेय है ऐसो रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व गृहस्थावस्थामें तीर्थकर परमदेव तथा भरत, सगर, राम, पाण्डव आदिको रहता है परन्तु उनको बीतराग चारित्र नहीं होता, इसलिए परस्पर विरोध है। यदि होता है ऐसा माने तो उनके असंयतपना कैसे हो सकता है ! उत्तर-उनके शुद्धात्माको उपादेयताकी भावनारूप निश्चय सम्यक्त्व रहता है, किन्तु चारित्रमोहके उदयके कारण स्थिरता नहीं है, बतकी प्रतिज्ञा भंग हो जाती है, इस कारण उनको असंयत कहा जाता है। शुधात्मभावनासे च्युत होकर शुभरागके योगसे वे सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं। उनके सम्यक्त्वको जो सम्यक्त्व कहा गया है, उसका कारण यह है कि वह वीतराग चारित्रके अविनाभूत निश्चयसम्यक्त्वका परम्परा साधक है। वस्तुतः तो वह सम्यक्त्व भी सरागसम्यक्त्व नामवाला व्यवहार सम्यक्रव ही है।
७. व्यवहार व निश्चय लक्षणोंका समन्वय मो. मा.प्र./8/पृष्ठ पक्ति प्रश्न-सात तत्त्वोंके श्रद्धानका नियम कहो हो सो बने नाहीं। जातें कहीं परतै भिन्न आपका श्रधान ही कौं सम्यक्त्व क हैं हैं...कहीं एक आत्माके निश्चय ही कौं सम्यक्त्व कहैं हैं।...तात जीव अजीव ही का वा केवल जीव ही का श्रद्धान भए सम्यक्त्व हो है ।५७७/१८० उत्तर-१. परतें भिन्न आपका श्रद्धान हो है सो आसपादिका श्रद्धानकरि रहित हो है कि सहित हो है । जो रहित हो है, तो मोक्षका श्रद्धान बिना किस प्रयोजनके अर्थि ऐसा उपाय करै है। ..तातै आस्वबादिकका श्रद्धान रहित आपापरका श्रद्धान करना सम्भव नाहीं। बहुरि जो आस्रवादिका श्रद्धान सहित हो है. तौ स्वयमेव सातौं तत्त्वनिके श्रद्धानका नियम भया। (४७८/८) । २. बहुरि केवल आत्माका निश्चय है, सो परका पररूप श्रद्धान भए बिना आत्माका श्रद्दधान न होय तातै अजीवका श्रद्धान भए ही जीवका श्रद्धान होय। ..तातें यहाँ भी सातौं तत्त्वनिके ही श्रद्धानका नियम जानना। बहुरि आखवादिकका श्रद्धान बिना आपापरका श्रद्धान वा केवल आत्माका श्रधान साँचा होता नाहीं। जात आत्मा द्रब्य है, सो तौ शुद्ध अशुद्ध पर्याय लिये है।...सो शुद्ध अशुद्ध अवस्थाको पहिचान आस्रवादिककी पहिचानतें हो है। ( ४७८/१५) । -प्रश्न-३. जो ऐसे है, तो शास्त्रनिविर्षे...नव तत्त्वकी सन्तति छोड़ि हमारे एक आत्मा ही होहु. ऐसी कह्या । सो कैसे कह्या 1 ( स. सा./आ/१२/क ६) उत्तर-जाको साचा आपापरका श्रद्धान होय, ताको सातौं तत्त्वनिका श्रद्धान होय ही होय, बहुरि जाकै साँचा सात तत्त्वनिका श्रद्धान होय, ताके आपापरका वा आत्माका श्रदधान होय ही होय। ऐसा परस्पर अविनाभाषीपन जानि आपापरका श्रद्धानकौं या आत्मश्रद्धान होनकौं सम्यक्त्व कह्या है । ( ४७६/११) । प्रश्न-४. जो कहीं शास्त्रनिविर्षे अहंत देव निग्रन्थ गुरु हिंसारहित धर्मका श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है, सो कैसै है ( ४८०/२२ ) ? उत्तर-१. अर्हत देवादिकका श्रद्धान होनेते वा कुदेवादिकका श्रद्धान दूर होने करि गृहीत मिथ्यात्वका अभाव हो है, तिस अपेक्षा याकौ सम्यक्त्वो कह्या है। सर्वथा सम्यक्त्वका लक्षण नाहीं। (४८१/२) २. अहं तदेवादिकका श्रद्धान होते तो सम्यक्त्व होय वा न होस, परन्तु अर्हता दिकका श्रद्धान भए बिना तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्त्व कदाचित् न होय। तातै अहं तादिकके श्रद्धानकौं अन्वयरूपकारण पनि कारणविर्षे कार्यका उपचारकरि इस
श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। याहीत याका नाम व्यवहार सम्यक्त्व है । ३. अथवा जाकै तत्त्वार्थश्रद्धान होय, ताकै साँचा अर्हन्तादिकवे स्वरूपका श्रद्धान होप ही होय । (४८१/१०) ...जाकै साँचा अर्हतादिकके स्वरूपका श्रद्धान होय ताकै तत्त्वार्थ श्रदान होय ही होय । जाते अर्हन्तादिकका स्वरूप पहिचाने जीव अजीव आस्तव आदिककी पहिचानि हो है। ऐसे इनिको परस्पर अविनाभावी जानि, कहीं अर्हन्तादिकके श्रद्धानकौं सम्यक्त्व कह्या है। ( ४८१/१५ ) । प्रश्न-५. जो केई जोव अई तादिकका श्रद्धान करें हैं तिनिके गुण पहचान हैं अर उनकै तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यक्रवन हो है । (४८२/१७ ) 1 उत्तर--जाते जोव अजीवकी जाति पहिचाने विना अरहन्तादिकके आत्माश्रित गुणनिकौं वा शरीराश्रित गुणनिको भिन्न-भिन्न न जानें । जो जानें तो अपने आत्माकौं परद्रव्यतै भिन्न कैसैं न मान ! (४८३/२) प्रश्न--६. अन्य-अन्य प्रकार लक्षण करनेका प्रयोजन कह्या (४८३/२१) ! उत्तर-साँची दृष्टिकरि एक लक्षण ग्रहण किये चारयों लक्षणका ग्रहण हो है। तथापि मुख्य प्रयोजन जुदा-जुदा विचारि अन्य-अन्य प्रकार लक्षण कहे हैं। १. जहाँ तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण कहा है, तहाँ तो यह प्रयोजन है, जो इनि तत्त्वनिकौं पहिचान, तौं यथार्थ वस्तुके स्वरूप वा अपने हित अहितका श्रदान करौं तब मोक्षमार्गविर्षे प्रवर्त। (४८४/१)। २. आपापरका भिन्न श्रद्धान भए परद्रव्यविषै रागादि न करनेका श्रद्धान हो है । ऐसें तत्त्वार्थश्रद्धानका प्रयोजन आपापरका भिन्न श्रद्धानते सिद्ध होता जानि इस लक्षणकौं कहा है। (४८४/१०)। ३. बहुरि जहाँ आत्मश्रद्धान लक्षण कह्या है तहाँ आपापरका भिन्न श्रद्धानका प्रयोजन इतना ही है-आपको आप जानना। आपको आप जानें परका भी विकल्प कार्यकारी नाहीं। ऐसा मूलभूत प्रयोजनकी प्रधानता जानि आत्मश्रद्धानको मुख्य लक्षण कह्या है । (४८४/१३) ४. बहुरि जहाँ देवगुरुधर्मका श्रद्धान लक्षण कह्या है, तहाँ माह्य साधन की प्रधानता करी है। जाते अर्हन्तादिकका श्रद्धान साँचा तत्त्वार्थश्रद्धानकौं कारण है ।...ऐसे जुदे-जुदे प्रयोजनकी मुख्यता करि जुदे-जुदे लक्षण कहे हैं । (४८४/१७) ।
२. निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शनकी कथंचित् मुख्यता गौणता १. स्वभाव भान बिना सम्यक्त्व नहीं न.च.वृ./१८२ जे णयदि द्विविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धी। वत्थुसहावविहूणा सम्माइट्ठी कहं हुंति ।१८।जो नयदृष्टिविहीन हैं उनके वस्तुस्वभावकी उपलब्धि नहीं होती है। और वस्तुस्वभावसे विहीन सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं। मो.मा.प्र./७/३२६/१२ वस्तुके भावका नाम तत्त्व कह्या। सो भाव भासे बिना तत्वार्थ श्रदान कैसें होय !
२. आत्मानुभवीको ही आठो अंग होते हैं का.अ./मू./४२४ जो ण कुणदि परतत्ति पुणु पुणु भावेदि सुद्रमप्पाणं । इंदियमणिरवेक्खो णिसंकाई गुणा तस्स । जो पुरुष परायी निन्दा नहीं करता और बारम्बार शुद्धात्माको भाता है, तथा इन्द्रिय सुखकी इच्छा नहीं करता, उसके निशंकित आदि गुण होते हैं।
३. आठों अंगोंमें निश्चय अंग ही प्रधान हैं। पं.घ./उ/श्लो सं. तद् द्विधाथ वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधान स्वात्मसंबन्धिगुणो यावत्परात्मनि ८०६। पूर्ववत्सोऽपि द्विविधः स्वान्यात्मभेदतः पुनः। तत्राद्यो वरमादेयः समादेयः परोऽभ्यतः ८१४/- वह वात्सल्य अंग भी स्व और परके विषयके भेदसे दो
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org