________________
सम्यग्दर्शन
३५७
II निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन
'तत्त्वार्थश्रद्धान' के स्थानमें 'अर्थश्रद्धानम्' इतना कहना पर्याप्त है। उत्तर-इससे अर्थ शब्दके धन प्रयोजन अभिधेय आदि जितने भी अर्थ हैं उन सबके ग्रहण का प्रसंग आता है ? प्रश्न-तब 'तत्त्वश्रद्धानम्' केवल इतना ही कहना चाहिए ! उत्तर- इससे केवल भाव मात्रके ग्रणका प्रसंग प्राप्त होता है। कितने ही लोग (वैशेषिक ) तत्त्व पदसे सत्ता, द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मल इत्यादिका ग्रहण करते हैं। केवल 'तत्त्वश्रदानम्' ऐसा कहने पर इन सबका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। अथवा तत्व शब्द एकत्ववाची है, इसलिए केवल 'तत्त्व' शब्द का ब्रहण करनेसे 'सब एक है। इस प्रकारके स्वीकारका प्रसंग आता है। 'यह सव दृश्य व अदृश्य जगत पुरुषस्वरूप ही है' ऐसा किन्हींने माना है। इसलिए भी केवल 'तत्त्वश्रद्धान' कहना युक्त नहीं । क्योंकि ऐसा माननेपर प्रत्यक्ष व अनुमान दोनोंसे विरोध आता है। अतः इन सब दोषों के दूर करनेके लिए सूत्रमें 'तत्त्व' और 'अर्थ' इन दोनों पदों का ग्रहण किया है। (रा. वा./१/२/१७-२७/२०-२१); (श्लो. व./२/१/२/३-४/१६/४ )।
सम्यक्त्वम् । = अथवा उन भूतार्थ रूपसे जाने गये जीवादि नौ पदार्थों का शुद्वारमासे भिन्न करके सम्यक अवलोकन करना निश्चय सम्यक्त्व है। २. शुद्धात्माकी रुनि स. सा. ता. वृ./३८/७२/६ शुद्धात्मैवोपादेय इति श्रद्धान सम्यक्त्वम् ।
'शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसा श्रदधान सम्यक्त्व है। (द्र. सं./टी./१४/४२/४ ) स सा./ता /बृ./२/८/१० विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजपरमात्मनि यद् चिरूप सम्यग्दर्शनम् । = विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावरूप निज
परमात्मामें रुचिरूप सम्यग्दर्शन है। पं.का./ता././१०७/१७०/४ शुद्धजीवास्तिकायरुचिरूपस्य निश्चय
सम्यक्त्वस्य... = शुद्ध जीवास्तिकायकी रुचि निश्चयसम्यक्त्व है। दे. मोहनीय/२/१ में ध./६ (आप्त या आत्मामें रुचि या दधा दर्शन है।
३. अतीन्द्रिय सुखकी रुचि प्र. सा./ता. वृ./२/६/१६ रागादिभ्यो भिन्नोऽयं स्वात्मोत्यसुखस्वभावः
परमात्मेति भेदज्ञान, तथा स एव सर्वप्रकारोपादेय इति रुचिरूपं सम्यत्वम् ।-रागादिसे भिन्न यह जो स्वात्मासे उत्पन्न सुखरूप स्वभाव है वही परमात्मतत्त्व है। वही परमात्म तत्त्व सर्व प्रकार
उपादेय है, ऐसी रुचि सम्यक्त्व है। द्र, सं/टो./४१/१७८/२ शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमा
हादै करूपसुखामृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिके च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधान निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति । = शुद्धोपयोगरूप निश्चय रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न परम अह्लादरूप सुखामृत रसका आस्वादन ही उपादेय है, इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय हैं, ऐसी रुचि तथा जो वीतराग चारित्रके बिना नहीं होता ऐसा जो वीतराग सम्यक्त्व वह ही निश्चय सम्यक्त्व है। (द्र.सं/टी./२२/६७/१); (द्र. सं./टी./४५/१६४/१०); (प.प्र./२/१७/१३२/७)।
४. वीतराग सुखस्वभाव ही मैं हूँ, ऐसा निश्चय द्र. सं./टो.४०/१६३/१० रागादिविकल्पोपाधिरहितचिच्चमत्कारभावोत्पन्नमधुररसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनम् । 'रागादि विकल्प रहित चित चमत्कार भावनासे उत्पन्न मधुर रसके आस्वादरूप सुखका धारक मैं हूँ', इस प्रकार निश्चय रूप सम्यग्दर्शन है। ५. शुद्धात्मा की उपलब्धि आदि स. सा./मू./१४४ सम्मदर्दसणाणं एसो लहदित्ति णवरि ववदेसं । सबणयपक्रवरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ।१४४।- जो सर्व नय पक्षोंसे रहित कहा गया है वह समयसार है। इसी समयसारकी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान संज्ञा है।१४४। (और भी दे. मोक्षमार्ग/३)। पं.ध./उ./२१५ न स्यादारमोपलब्धिर्वा सम्यग्दर्शनलक्षणम् । शुद्धा
चेदस्ति सम्यक्त्वं न चेच्छुद्धा न सा सुदृक् । -केवल आत्माकी उपलब्धि सम्यग्दर्शनका लक्षण नहीं है । यदि वह शुद्ध है तो उसका लक्षण हो सकती है और यदि अशुद्ध है तो नहीं ।
१. लक्षण में तत्त्व व अर्थ दोनों शब्द क्यों स. सि./१२/६/७ अर्थ श्रद्धानमिति चेत्सर्वार्थ प्रसङ्गाः । तत्त्वश्रद्धान मिति
चेद्भावमात्रप्रसङ्गे 'सत्ताद्रव्यत्वगुणत्वकमत्वादि तत्त्वम्' इति कैश्चित्कलप्यत इति । तत्त्वमेकत्व मिति वा सर्व क्यग्रहणप्रसङ्गः । 'पुरुष एवेदं सर्वम्' इत्यादि कैश्चित्कलप्यत इति । एवं सति दृष्टेष्टविरोधः। तस्मादम्पभिचारार्थ मुभयोरुपादानम् । = प्रश्न-सूत्र में
५. व्यवहार लक्षणोंका समन्वय ध. १/१,१,४/१५१/२ प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षण सम्यकत्वम्। सत्येव असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाभावःस्यादिति चेत्सत्यमेतत शुद्धनये समाश्रीयमाणे । अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागमपदार्थस्तत्त्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शन मिति लक्ष्यनिर्देशः। कथं पौरस्त्येन लक्षणेनास्य न विरोधश्चेन्नैष दोषः, शुद्धाशुद्धसमाश्रयणात् । अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम् अशुद्धतरनग्रसमाश्रयणात् । -- १. प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी प्रकटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं । ( दे. सराग सम्यग्दर्शनका लक्षण)। प्रश्न-इस प्रकार सम्यक्त्वका लक्षण मान लेनेपर असं यत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका अभाव हो जायेगा ? उत्तर-यह कहना शुद्धनिश्चयनयके आश्रय करनेपर ही सत्य कहा जा सकता है । २. अथवा, तत्त्वार्थ के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप्त आगम और पदार्थको तत्वार्थ कहते हैं। और इनके विषयमें श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं । यहाँ पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है, तथा आप्त आगम और पदार्थ का श्रद्धान लक्षण है। प्रश्न-पहिले कहे हुए (प्रशमादिकी अभिव्यक्तिरूप) सम्यक्त्व के लक्षणा के साथ इस लक्षण का विरोध क्यों न माना जाय ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है. क्योंकि शुद्ध और अशुद्ध नय की अपेक्षा से ये दोनों लक्षण कहे गये हैं। अर्थात पूर्वोक्त लक्षण शुद्ध नय की अपेक्षा से है और यह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप लक्षण अशुद्ध नय की अपेक्षा से है । ३.-अथवा तत्त्वरुचि को सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नय की अपेक्षा जानना चाहिए।
६. निश्चय लक्षणोंका समन्वय प. प्र./टो./२/१७/१३२/८ अत्राह प्रभाकरभट्टः । निजशुद्भधात्मैवोपादेय इति रुचि रूपं निश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्यारव्यात पूर्व भवद्भिः, इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापर विरोधः कस्मादिति चेत् निजशुदधात्मैवोपाय इति रुचिरूपम् निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तीर्थकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादोन विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्परविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः। तत्र परिहारमाह। तेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपम् निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते परं किंतु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासं यताबा भण्यन्ते। शुद्धास्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो...शुभरागयोगात सरागसम्यग्दृष्टयो
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org