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सम्यग्दर्शन
ज्ञानका बीज, यम व प्रशमका जीवन तथा तप व स्वाध्यायका आश्रय माना है ।
नोट: -- [सम्यग्दर्शन विहीन धर्म, चारित्र, ज्ञान, तप आदि सब निरर्थक व अकिंचित्र हैं । और सम्यक्त्व सहित ही वे सब यथार्थताको प्राप्त होते हैं ।] (दे. धर्म / २ ); (दे. चारित्र / ३ ); ( दे ज्ञान / III / २ तथा IV / १); (दे. तप / ३ ) |
२. सम्यग्दर्शन ही सार, सुखनिधान व मोक्षकी प्रथम सीढ़ी है इत्यादि महिमा
भ.आ./मू/७३५ मा कासि तं पमादं सम्मते सव्वदुखणासयरे । यह सम्यग्दर्शन सर्व दुखों का नाश करनेवाला है, अतः इसमें प्रमादी मत बनो ।
चा.पा./मू./२० खजनख च संसारिमेरुमा सम्मतमनुचरता करंति दुक्खस्वयं धीरा [२०] सम्यक्त्वको आचरण करनेवाले धीर पुरुष संख्यात असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करते हैं तथा संसारी जीवोंकी मर्यादा रूप जो सर्व दुख उनका नाश करते हैं । द पा./मू./२१ एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण । सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढममोक्खस्स |२१| जिनप्रणीत सम्यग्दर्शनको अन्तरंग भावों से धारण करो, क्योंकि, यह सर्व गुणो में और रत्नत्रय में सार है तथा मोक्षमन्दिरकी प्रथम सीढ़ी है | २१ | २.सा./२४.१२० कामहि कम्पतरु' चितास्य रसायनं य स सो जसोल जाण तह सम्म ५४ सम्म जावद लभदे हि ताव सुही। सम्मदंसणसुद्ध जावण लभते हि ताव दुही । १५८। जिस प्रकार भाग्यशाली मनुष्य कामधेनु कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न और रसायनको प्राप्त कर मनोवांछित उत्तम सुखको प्राप्त होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनसे भव्य जीवोंको सर्व प्रकार के सर्वोत्कृष्ट सुख व समस्त प्रकारके भोगोपभोग स्वयमेव प्राप्त होते हैं। ॥५४॥ सम्यग्दर्शनको यह जीन जम प्राप्त हो जाता है तब परम सुखी हो जाता है और जब तक उसे प्राप्त नहीं करता तब तक दुःखी बना रहता है । १५८
र. क. श्र. / ३४, ३६ न सम्यक्त्वसमं किंचित काव्ये त्रिजगत्यपि । योऽवश्य निध्यात्समं नान्यसदृभृताम् ॥३४॥ ओजस्तेजोवधा वीर्यवृद्धि विजय विभवसनायाः महाकुलाम हाथ मानवलिका भवन्ति दर्शनपूताः ॥३६ तीन काल और तीन जग जीवोंका सम्यक्त्वके समान कुछ भी कल्याणकारी नहीं है, मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी नहीं है | ३४ | शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या वीर्य, यशोवृद्धि, विजय, विभाग, उच्चकुली, धर्म, अर्थ, काम, मोक्षके साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणि होते हैं । ३६ । र. क.अ./२० सम्यग्दर्शनसम्पन्नममितदेह देवदुर्भ मढाकार रोज १८ गणधरादि देव सम्यग्दर्शन सहित चाण्डालको भी भस्मसे हकी हुई चिनगारीके समान देग कहते हैं |२८| पं./१/०० जति सुखनिधाम मोक्षवृकमी समजत दर्शन महिना स्पाद मतिरपि कुमतिर्मु दुश्चरित्र चरित्र भवति मनुजजन्म प्राप्तमप्राप्तमेव ॥७७॥ - जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान तो मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र हुआ करता है, महा स्थानभूत, मोक्षरूपी वृक्षका अद्वितीय बीजस्वरूप तथा समस्त दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन जयवन्त होता है। उसके बिना प्राप्त हुआ भी मनुष्य जन्म अप्राप्त हुएके समान है ।
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शा./६/२६ सुखनिधानं सर्वकल्याण मोजे, जननजलधियो भव्यसबै पात्रम् । दुरितरुकुठार पुण्यतीर्थ प्रधानं पिबत जितविपक्ष दर्शना सुधा ५१ तुम सम्यग्दर्शनरूपी अमृतका पान करो, क्योंकि यह अतुल सुखनिधान है, समस्त कल्याणका बीज है, संसारसागर तरनेको जहाज है, भव्यजीव ही इसका पात्र है,
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I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश
पापवृक्षको काटने के लिए कुठार है, पुण्यतीर्थों में प्रधान है तथा विपक्षी जो मिथ्यादर्शन उसको जीतने वाला है 1
ज्ञा./६/५३ दर्शनमहारत्नं विश्वम् मुक्तिप
दानदक्षं प्रकीर्तितम् ||३| यह सम्यग्दर्शन महारत्न समस्त लोकका आभूषण है और मोक्ष होने पर्यन्त आत्माको कल्याण देनेमें चतुर 2.11
आ. सा. / २ / ६८ मान्यः सद्दर्शनी ज्ञानी हीनोऽपि अपरसद्गुणैः । व रस्नमनिष्यन्नं शोभं कि नामर्हति ॥ अन्य गुणोंसे हीन भी सम्यग्दृष्टि सर्वमान्य है। क्या बिना शानपर चढ़ा रत्न शोभाको प्राप्त नहीं होता है ।
का. अ./मू./३२५-३२६ रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तम जोयें । रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सम्यसिद्धिपर | ३२५ | सम्मत्त गुण पहाणी दि गरिदिओ होदित ओवि स पावदि सम्म उत्तर्म विहं । ३२६] [] सम्यग्दर्शनस रानोंमें महारान है, सम योगो में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महा ऋद्धि है। अधिक क्या, सम्यक्त्व सब सिद्धियोंका करनेवाला है |३२|| सम्यक्त्वगुणसे जीव देवोके इन्द्रोंसे तथा चक्रवर्ती आदिसे वन्दनीय होता है, और व्रत रहित होता हुआ भी नाना प्रकार के उत्तम स्वर्गसुखको पाता है । १२६ ।
अ. ग.भा./२/८३ अपारसंसारसमुद्रतारक मशीकृतं येन सुदर्शनं परम् । वशीकृतास्तेन जनेन संपद परेरा विपदानास्पद
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- अपार संसारसमुद्र तारनेवाला और जिसमें विपदाओं स्थान नहीं, ऐसा यह सम्यग्दर्शन जिसने अपने वश किया है उस पुरुषने कोई अलभ्य सम्पदा ही वश करी है ।
सा. घ./१/४ नरयेऽपि पशुधन्ते मिध्यात्वग्रस्त चेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यत्तः चेतसः |४| मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्वाला मनुष्य भी पशुके समान है। और सम्यक्त्वसे व्यक्त चित्तबाला पशु भी मनुष्य के समान है। 1
३. सम्यग्दर्शन की प्रधानतामें हेतु
द पा./मू./१५-१६ सम्म
गाणं गाणादी सत्यभाव। उपस्थे सेवासे विद्यादि १३४ मासेयदि उ ददुस्सीस सीलवंतो वि सीसफलेभुदयं तत्तो पुणे शहर वि २१६। तो ज्ञान सम्यक होता है ( और भी थे. शीर्षक सं. १ में स. सि./१/१/७/२) । उन दोनोंसे सर्व पदार्थों या तत्त्वोंकी उपलब्धि होती है। पदार्थोंकी उपलब्धि होनेपर श्रेय व अका ज्ञान होता है । १५१ श्रेय व अश्रेयको जानकर वह पुरुष मिथ्यात्वको उड़ाकर तथा सम्य स्वभावयुक्त होकर अभ्युदय व तीर्थंकर आदि होता हुआ पीछे निर्वाण प्राप्त करता है । १६ दे. शीर्षक सं. १. ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रका बीज है ) ।
सम्यग्दर्शन के पश्चात् भय धारणकी सीमा
संसार शेष रहता है इससे
भ.आ./मू./गा. लभ्रूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवईति । सिमसा भवदि संसारवासा ॥५३॥ जो जीव मुहूर्त काल पर्यन्त भी सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके अनन्तर छोड़ देते हैं, वे भी इस संसारमें अनन्तानन्त कालपर्यन्त नहीं रहते अर्थात् उनको अधिक से अधिक अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन कालमात्र ही अधिक नहीं दे. काल / ६ तथा अन्तर / ४ ] क. पी. / सुत्त / ११ / गा. ११३/६४१ खवणाए पट्ठबगो जम्मि भवे नियमदो ती अाधिचदितिणि भये समोहम्म स्वीमम्मि | २०६ - जो मनुष्य जिस भवमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थान करता है. यह दर्शनमोहके क्षीण होनेपर तीनभव नियमसे युक्त हो जाता है १२०३ | ( पं. सं. / प्रा. / १, २०३ ) |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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