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सम्यग्दर्शन
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I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश :
प्राप्त हैं, उसी प्रकार युगपत् होते हुए भी ये दोनों अपने-अपने लक्षणोंसे भिन्न हैं। सम्यग्ज्ञानका लक्षा तत्त्वों का यथार्थ निर्णय करना है और सम्यग्दर्शनका लक्षण उनपर श्रद्धान करना है। (पु. सि. उ./३२-३४), (छहढाला/४/१)। दे. सम्यग्दर्शन/1/१/५/३ (निर्विकल्प रूपसे देखना सम्यग्दर्शन है और
विशेष रूपसे जानन। सम्यग्ज्ञान है)। द्र. सं. टी./४४/१६३/१ यत्तत्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं वस्तुविचाररूपं
सम्यग्ज्ञानं तयो विशेषो न ज्ञायते। कस्मादिति चेत् । सम्यग्दर्शने पदार्थ निश्चयोऽस्ति, तथैव सम्यग्ज्ञाने च, को विशेष इति । अत्र परिहारः । अर्थ ग्रहणपरिच्छित्तिरूपः क्षयोपशमविशेषो ज्ञानं भण्यते, तत्रैव भेदनयेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मादितत्त्वेष्विदमेवेत्थमेवेति निश्चयसम्यक्त्वमिति । अविवल्परूपेणाभेदनयेन पुनर्यदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक्त्व मिति । कस्मादिति चेव-अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवबुद्धिधर्मे धर्मबुद्धिरित्यादिविपरीताभिनिवेशरहितस्य ज्ञानस्यैव सम्यग्विशेषणवाच्योऽवस्थाविशेषः सम्यक्त्वं भण्यते यतः कारणात । यदि भेदो नास्ति तहि कथमावरणद्वयमिति चेवतत्रोत्तरम् ।...भेदनयेनावरणभेदः । निश्चयनयेन पुनरभेद विवक्षायां कर्मत्वं प्रत्यावरणद्वयमप्यैकमेव विज्ञातव्यम्। द्र. सं./टी./५२/२१८/१० स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यग्दर्शनं ।...तस्यैव शुद्धारमनो.. मिथ्यात्वरागादिपरभाभ्यः पृथक्परिच्छेदन सम्यग्ज्ञानम् ।-प्रश्न-१."तत्त्वार्थका श्रद्धान करनेरूप सम्यग्दर्शन और पदार्थ का विचार करने स्वरूप सम्यग्ज्ञान है" इन दोनों में भेद नहीं जाना जाता, क्योंकि जो पदार्थ का निश्चय सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञानमें है। इसलिए इन दोनों में क्या भेद है ? उत्तर-पदार्थ के ग्रहण करने में जाननेरूप जो क्षयोपशम विशेष है, वह 'ज्ञान' कहलाता है। और ज्ञान में ही भेदनयसे जो वीतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव द्वारा कहे हुए शुद्धात्मा आदि तत्त्व हैं उनमें, 'यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है' इस प्रकारका जो निश्चय है, वह सम्यक्त्व है। २. और अभेद नयसे तो जो सम्यग्ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन है। कारण कि अतत्त्व में तत्त्वकी बुद्धि, अदेवमें देवकी बुद्धि और अधर्म में धर्मकी बुद्धि, इत्यादिरूप जो विपरीत अभिनिवेश है, उस विपरीताभिनिवेशसे रहित जो ज्ञान है। उसके 'सम्यक्' विशेषणसे कहे जानेवाली अवस्थाविशेष सम्यक्त्व कहलाता है। प्रश्न-३. जो सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमें भेद नहीं है, तो उन दोनों गुणोंके घातक ज्ञानावरणीय व मिथ्यात्व ये दो कर्म कैसे कहे गये। उत्तर-भेदनयसे आवरणका भेद है और अभेदकी विवक्षामें कर्मबके प्रति जो दो आवरण हैं, उन दोनोंको एक ही जानना चाहिए । ४. 'शुद्धान्मा ही उपादेय है', ऐसी रुचि होने रूप सम्यग्दर्शन है और उसी शुद्धात्माको रागादि परभावोंसे भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । ( दे. उन-उनके लक्षण)
७. सम्यक्त्वके साथ चारित्रका कथंचित् भेद व अभेद द.पा./पं.जयचन्द/२२ जो कोऊ कहै सम्यक्त्वभए पीछे तो सर्व परद्रव्य संसारकू हेय जानिये है, ताळू छोड़े मुनि होय चारित्र आचरै तब सम्यक्रव भया जानिये, ताका समाधान रूप यह गाथा है, जो सर्व परद्रव्य हेय जानि निज स्वरूपकू उपादेय जान्यां श्रद्धान किया तब मिथ्या भाव तोन रहा परन्तु चारित्रमोह कर्मका उदय प्रबल होय जातें चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होय तेतै जेती सामर्थ्य होय तेता तौ करै तिस सिवायका श्रद्धान करै । (दे. श्रद्धान/१/३) दे. चारित्र/३/५ [ यद्यपि चारित्र सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि सम्यक्त्व होते ही चारित्र प्रगट हो जाय । हाँ, सम्यक्त्व हो जानेके पश्चात् क्रमशः धीरे-धीरे वह यथाकाल प्रगट अवश्य हो जाता है।]
५. मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनको प्रधानता
१. सम्यग्दर्शनकी प्रधानताका निर्देश भ,आ./मू./७३६-७३६ णगरस्स जह दुबारं मुहस्स चवखू तरुस्स जह मूल । तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियतवाणं ७३६। ईसणभट्टो । भट्टो दंसणभट्टस्स णस्थि णिव्वाणं । सिझं ति चरियभट्टा ईसणभट्टा ण सिझति ७३८। दसण भट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्ठो छ। दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे ७३६१-१. नगरमे जिस प्रकार द्वार प्रधान है, मुख में जिस प्रकार चक्षु प्रधान है तथा वृक्ष में जिस प्रकार मूल प्रधान है, उसी प्रकार ज्ञान, चारित्र, वीर्य व तप इन चार आराधनाओं में एक सम्यक्त्व ही प्रधान है ।७६६ २. दर्शनभ्रष्ट ही वास्तव में भ्रष्ट है क्योंकि दर्शनभ्रष्टको निर्वाण नहीं होता। चारित्र भ्रष्टको मोक्ष हो जाती है, पर दर्शनभ्रष्टको नहीं होती ।७३८॥ ( द.पा./मू./३) (बा.अ./१६) ३. दर्शनभ्रष्ट ही भ्रष्ट है, चारित्रभ्रष्ट वास्तवमें भ्रष्ट नहीं होता, क्योंकि, जिसका सम्यक्त्व नहीं छूटा है। ऐसा चारित्रभ्रष्ट संसारमें पतन नहीं करता ।७३६। मो.पा./मू./३६ दसणसुद्धो सुद्धो दसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । ईसणविहीण पुरिसो न लहइ त इच्छियं लाहं ।।दर्शन शुद्ध ही वास्तबमें शुद्ध है, क्योंकि दर्शनशुद्ध ही निर्वाणको प्राप्त करते है। दर्शन बिहीन पुरुष इष्टलाभ अर्थात् मोक्षको प्राप्त नहीं करते। (र. सा./३०) मो.पा./मू./८८ किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले।
सिझिहहिं जे वि भविया जातंणइ सम्ममाहप्पं १८८६- बहुत कहनेसे __क्या, जो प्रधान पुरुष अतीतकाल में सिद्ध हुए हैं या आगे सिद्ध होंगे
वह सब सम्यक्त्वका माहात्म्य जानो । (बा.अ./१०) मो.पा./मू..२१ जहण वि लहदि हु लक्रवं रहिओ कंडस्स बेभय . विहीणो। तह ण वि लक्ख दि लबर्ख अण्णाणी मोवरखमग्गस्स ।२०-: जैसे बाण रहित बेधक धनुषके अभ्याससे रहित होता हुआ निशानेको प्राप्त नहीं करता है, वैसे ही अज्ञानी मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्ग के लक्ष्यभूत परमात्म तत्त्वको प्राप्त नहीं करता है। भा.पा./मू./१४४ जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं ।।
अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावय विहधम्माणं ।१४४-जिस प्रकार ताराओंमें चन्द्र और पशुओमें सिंह प्रधान है, उसी प्रकार मुनि व
श्रावक दोनों प्रकारके धर्मों में सम्यक्त्व प्रधान है ।१४४। र.सा./४७ सम्मविणा सण्णाणं सच्चारित्तं ण होइ णियमेण | तो रयणत्त
यमज्झे सम्मगुणक्किट्ठमिदि जिणुद्दिट्ट ।४७- सम्यक्रवके बिना नियम से सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र नहीं होते हैं। रत्नत्रयमें एक
यह सम्यक्त्व गुण ही प्रशंसनीय है ।४७१ (र. क. पा./३१-३२) स. सि./१/९/७/२ अल्पाक्षरादभ्यहितं पूर्व निपतति । कथमभ्यहितत्व ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशहेतुत्वात् । अल्पाक्षरवाले शब्दसे पूज्य शग्य पहले रखा जाता है, इसलिए सूत्र में पहले ज्ञान शब्दको न रख कर दर्शन शब्दको रखा है। प्रश्न-सम्यग्दर्शन पूज्य क्यों है। उत्तर-क्योंकि सम्यग्दर्शनसे ज्ञान में समीचीनता आती है। (रा. वा./१/१/३१/६/२७). (और भी दे. ज्ञान/III/R) प्र, सा./त. प्र./२३८-२३६ बागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसं यतस्वयोगपद्यऽध्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।२३८। अत आरमज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यमप्य किञ्चित्करमेधा -ओगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और सयतत्वकी युगपत्ता होनेपर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्गका साधकतम सम्मत करना 1२३८।। आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान हेयतत्वकी युगपत्ता भी अकिंचित्कर ही है ।२३६ । हा./4/५४ चरणज्ञानयो/जं यमत्रशमजीवितम् । तपःश्रुतायधिष्ठान सद्भिः सद्दर्शनं मतम् ।१४। सत्पुरुषोंने सम्यग्दर्शनको चारित्र व
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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