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सम्यग्दर्शन
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I सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश में रुचि होती है वह यहाँ परमावगाढ सम्यग्दर्शन इस नाम से २. कथंचित् सत्तामात्राबलोकन भी इष्ट है प्रसिद्ध है ।१४। (द. पा./टी./१२/१२/२०)।
रा, वा./२/७/६/११०/६ मिथ्यादर्शने अदर्शनस्यावरोधो भवति। निद्रा३. आज्ञा सम्यग्दर्शनकी विशेषताएँ
निद्रादीमामपि दर्शनसामान्यावरणत्वात्तत्रैवान्तर्भावः। ननु च
तत्त्वार्थाश्रद्धानं मिथ्यादर्शनमित्युक्तम्: सत्यमुक्तमः सामान्यनिर्देश गो. जी./जी, प्र./२७/५६/१२ यः अहंदाद्य पदिष्ट प्रवचनं आप्तागम
विशेषान्तर्भावात, सोऽप्येको विशेषः । अयमपरो विशेषः-अदर्शनपदार्थ त्रयं श्रद्धाति रोचते. तेषु असदभाव अतत्त्वमपि स्वस्य विशेष
मप्रतिपत्तिमिथ्यादर्शनमिति। -मिथ्यादर्शनमें दर्शनावरणके उदयज्ञानशून्यरवेन केवलगुरुनियोगात् अर्हदाद्याज्ञातः श्रद्धाति सोऽपि
से होनेवाले अदर्शनका अन्तर्भाव हो जाता है । और दर्शनसामान्यको सम्यग्दृष्टिरेव भवति तदाज्ञाया अनतिक्रमात । जो व्यक्ति अहंत
आवरण करनेवाले होनेके कारण (दे. दर्शन/४/६), निद्रानिद्रा आदिका आदिके उपदिष्ट प्रवचनकी या आप्त आगम व पदार्थ इन तीनोंकी
भी यहाँ ही अन्तर्भाव होता है। प्रश्न-तत्त्वार्थ के अश्रद्धानको श्रद्धा करता है और विशेष ज्ञान शून्य होने के कारण केवल गुरु
मिथ्यादर्शन कहा गया है ! उत्तर-वह ठीक ही कहा गया है, क्योंकि, नियोगसे या अहंतकी आज्ञासे अतत्त्वोंका भी श्रद्धान कर लेता है वह
सामान्य निर्देशमें विशेषका अन्तर्भाव हो जाता है। तथा दूसरी बात भी सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि, उसने उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं
यह है कि अदर्शन नाम अप्रतिपत्तिका है और वही मिथ्यादर्शन है। किया है। (विशेष दे. श्रद्धान/३)
। अर्थात् स्वपर स्वरूपका यथार्थ अबलोकन न होना ही मिथ्याअन. ध./२/६३/१८६ देवोऽहंन्नेव तस्यैव वचस्तथ्यं शिवप्रदः । धर्मस्तदुक्त दर्शन है। एवेति निबन्ध साधयेद् दृशम् ।६३। एक अर्हत ही देव है और
दे. दर्शन/९/३ अन्तरंग चित्प्रकाशका नाम अथवा जाननेके प्रति आत्मउसका वचन ही सत्य है । उसका कहा गया धर्म ही मोक्षप्रद है। इस
प्रयत्नका नाम दर्शनोपयोग है। अथवा स्वरूप संवेदनका नाम प्रकारका अभिनिवेश ही आज्ञासम्यक्त्वको सिद्ध करता है।६।।
दर्शनोपयोग है। ध, १/१,१,१४४/गा. २१२/३६५ छप्पंचणव विहाणं अत्याणं जिणवरोब- दे. मोक्षमार्ग/३/६ दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीनों ही दर्शन व ज्ञानरूप इट्ठाणं । आणाए अहिगमेण व सहहणं होइ सम्मत्तं ।२१२-जिनेन्द्र- सामान्य व विशेष परिणति है। देवके द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, और नव पदार्थोंकी दे. आगे इसी शीर्षकका समन्वय-[ लौकिक जीवोंको दर्शनोपयोगसे आज्ञा अथवा अधिगमसे श्रद्धान करनेको सम्यक्त्व कहते हैं ।२१२१ बहिर्विषयों का सत्तावलोकन होता है और सम्यग्दृष्टियोंको उसी (ध.४/१,५.१/गा.६/३१६)
दर्शनोपयोगसे आत्माका सत्तावलोकन होता है । दर्शन, श्रद्धा, रुचि
ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।] ४. सम्यग्दर्शनमें 'सम्यक्' शब्दका महत्त्व
३. व्यवहार लक्षणमें दर्शनका अर्थ श्रद्धा इष्ट है स, सि./१/९/२/३१ सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चतेः
स. सि./१/२/६/३ दृष्टेरालोकार्थत्वात श्रद्धार्थ गतिर्नोपपद्यते। धातूनामक्वौ समचतीति सम्यगिति । अस्यार्थ प्रशंसा। स प्रत्येक परिसमा
नेकार्थत्वाददोष।। प्रसिद्धार्थ त्यागः कुत इति चेन्मोक्षमार्गप्रकरणात् । प्यते। सम्यग्दर्शनं सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमिति। भावानां
तत्त्वार्थ श्रद्धानं ह्यात्मपरिणामो मोक्षसाधनं युज्यते, भव्यजीवयाथात्म्यप्रतिपत्तिविषयश्रद्धानसंग्रहार्थ दर्शनस्य सम्यग्विशेषणम् ।
विषयत्वात् । आलोकस्तु चक्षुरादिनिमित्तः सर्वसंसारिजीवसाधारण-'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात
त्वान्न मोक्षमार्गो युक्तः। =प्रश्न-दर्शन शब्द 'दृशि' धातु से बना है व्याकरण सिद्ध है। जब यह व्याकरणसे सिद्ध किया जाता है तब
जिसका अर्थ आलोक है अतः इससे श्रद्धानरूप अर्थका ज्ञान नहीं हो 'सम्' उपसर्ग पूर्वक 'अब्च्' धातुसे क्विप् प्रत्यय करनेपर 'सम्यक्
सकता ? उत्तर-धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं, अतः 'दृशि' धातुका शब्द बनता है। संस्कृतमें इसकी व्युत्पत्ति 'समञ्चति इति सम्यक्
श्रद्धानरूप अर्थ करनेमें कोई दोष नहीं है। प्रश्न-यहाँ ( अर्थात इस प्रकार होती है। प्रकृतमें इसका अर्थ प्रशंसा है। सूत्रमें आये हुए
'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग् है'-दे, सम्यग्दर्शन/II/१, इस प्रकरणमें) इस शब्दको दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें से प्रत्येक शन्दके साथ जोड़ लेना चाहिए। यथा-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र ।
दृशि धातुका प्रसिद्ध अर्थ क्यों छोड़ दिया ! उत्तर-मोक्षमार्गका
प्रकरण होनेसे।-तत्त्वार्थोंका श्रद्धानरूप जो आत्माका परिणाम पदार्थों के यथार्थ ज्ञान मूलके श्रद्धानका संग्रह करनेके लिए दर्शनके पहले सम्यक् विशेषण दिया है। (रा. वा./१/१/३५/१०/६)
होता है वह तो मोक्षका साधन बन जाता है, क्योंकि वह भव्योंके
ही पाया जाता है, किन्तु आलोक, चक्षु आदिके निमित्त से होता है पं.ध./उ./४१७ सम्यमिथ्याविशेषाभ्यां विना श्रद्धादिमात्रकाः।
जो साधारणरूपसे सब संसारी जीवोंके पाया जाता है, अतः उसे सपक्षवद्विपक्षेऽपि वृत्तित्वाइव्यभिचारिणः ।४१७ - सम्यक् और
मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं। (रा. वा./१/२/२-४/१६/१०); (श्लो. मिथ्या विशेषणों के बिना केवल श्रद्धा आदिकी, सपक्षके समान विपक्षमें भी वृत्ति रहने के कारण वे व्यभिचार दोषसे युक्त हैं।
वा./२/१/२/२/४) नि. सा/ता. वृ./३ दर्शनमपि...जीवास्तिकायसमुजनितपरमश्रद्धानमेव
भवति । ५. सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्दका अर्थ
नि. सा./ता. वृ./१३ कारणदृष्टि: सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य १. सत्ता मात्र अवलोकन इष्ट नहीं है
कारणसमयसारस्वरूपस्य स्वरूपश्रद्धानमात्रमेव । =१. शुद्ध जीवा
रितकायसे उत्पन्न होनेवाला जो परम श्रद्धान वही दर्शन है। २. कारण द्र, सं./टी./४३/१८६/8 नेदमेव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शन
दृष्टि परमपारिणामिकभावरूप जिसका स्वभाव है, ऐसे कारणसमयवक्तव्यम् । कस्मादिति चेत्-तत्र श्रद्धानं विकल्परूपमिदं तु निर्विकल्पं मतः । - इस दर्शनको अर्थात सत्तावलोकनमात्र दर्शनोपयोगको
सारस्वरूप आत्माके यथार्थ स्वरूप दानमात्र है। 'तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है' इस सूत्रमें जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप प्र.सा./ता. वृ./८२/१०४/१६ तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणेन दर्शनेन शुद्धा सम्यग्दर्शन कहा गया है, सो न कहना चाहिए। इसका तात्पर्य यह दर्शनशुद्धाः। है कि उपरोक्त श्रद्धान तो विकल्परूप है और यह (दर्शनोपयोग) प्र.सा./ता. व./२४०/३३३/१५ दर्शनशब्देन निजशुद्धात्मश्रद्धानरूपं निर्विकल्प है। (विशेष दे. सम्यग्दर्शन/II )।
सम्यग्दर्शनं ग्राह्यम् । = १. तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणरूप दर्शनसे शुद्ध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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