________________
समिति
२४२
रवगन्तव्या । जहाँ स्थावर या जंगम जीवोंको विराधना न हो ऐसे निर्जन्तु स्थान में मल-मूत्र आदिका विसर्जन करना और शरीरका रखना उत्सर्ग समिति है । (चा. सा./७४ /३) ।
२. प्रतिष्ठापना शुद्धिका लक्षण
-
रा.वा./६/६/१६/५६०/ ३२ प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संयतः नरोमाकनिष्ठीवन शुक्रोच्चारप्रखवणशोधने देहपरित्यागे च विदितदेशकालो जन्तुपरोधमन्तरेण प्रग्रतते । प्रतिष्ठापन शुद्धिमें तत्पर संयत देश और कालको जानकर नख, रोम, नाक, थूक, वीर्य, मल, मूत्र या देह परित्यागमें जन्तु बाधाका परिहार करके प्रवृत्ति करता है । ( चा. सा. / ५०/१) 1
३. प्रतिष्ठापना समितिके अतिचार
-भ. बा./वि./९६/६२/१ कायभूम्यशोधनं महादेशनिरूपणादि पवनसंनिवेशदिनकरादिमेण वृत्तिश्च प्रतिज्ञापनसमित्यतिचारः । -शरीर व जमीन पिकाननामा-सूत्रादिक जहाँ क्षेपण करना है वह स्थान न देखना इत्यादि प्रतिष्ठापना समितिके अतिचार हैं ।
२. निश्चय व्यवहार समिति समन्वय
१. समितिमै सम्यग् विशेषणकी आवश्यकता
।
स.सि./१/५/४१९/६ सम्यग् इत्यनुवर्तते । रोनेर्याइयो विशेष्यन्ते । सम्यगीय सम्यभाषा इति यहाँ 'सम्यकू' इस परकी अनुवृत्ति होती है उससे ईर्ष्यादिक विशेष्यनेको प्राप्त होते हैंसम्यगीर्या सम्यग्भाषा इत्यादि। ( रा. वा. /६/५/१/५६३/३२) । भ.आ./वि / ११५/२६७/१ सम्यग्विषानिकायस्वरूपज्ञानश्रद्धानपुरस्सरा प्रवृत्तिर्गृहीता । इस समितिके) लक्षण में जो समितिका सम्यक यह विशेषण है उसका भाव भेद और उनके स्वरूपके ज्ञानके साथ श्रद्धान गुण उठाना, रखना, गमन करना, बोलना इत्यादि प्रवृत्ति की जाती है। वहाँ सम्यक है।
ऐसा है— जीवों के सहित जो पदार्थ
भते
पु. सि. उ. / २०३ सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक् । सम्यग्दन निक्षेप सर्गः सम्यनिति समितिः ॥२०३॥ प्रकार गमन- आगमन, उत्तम हितमित रूप वचन, योग्य आहारका ग्रहण पदार्थोंका वस्नपूर्वक ग्रहण विसर्जन, भूमि देखकर मूत्रादिका मोचन नामका सम्यग्व्युत्सर्ग, ये पाँच समिति हैं ।
२. प्रमाद न होना ही सच्ची समिति है
है।
मो. मा. प्र. / ७ / ३३५ /१० बहुरि परजीवनिकी रक्षाके अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति सार्कों समिति मानें हैं। सो हिंसा के परिणामनितें तो पाप हो है, अर रक्षाके परिणामनितें संवर कहोगे, तौ पुण्यबंधका कारण कौन ठहरेगा। रिपपणासमिति विदोष वहाँ रक्षाका प्रयोजन है नाहीं तातै रक्षा ही अर्थ समिति नाहीं है तो समिति के हो हैन किंचित् राग भए गमनादि क्रिया हो है । तहाँ तिन क्रियानिविषै अति आसक्तता के अभाव प्रमादरूप प्रवृत्ति न हो है । बहुरि और जीवनिकौं दुखी करि अपना गमनादि प्रयोजन न साधै है । तार्तं स्वयमेव ही दया प है। ऐसे सोंची समिति है।
Jain Education International
३. समितिका उपदेश असमर्थजनोंके लिए है
स.सि./६/५/४१९/७ की उत्थानिका -- तत्राशक्तस्य मुनेर्निरवद्यप्रवृत्तिस्थापनार्थमाह- टिके पालन करनेमें बश मुनिके निर्दोष प्रवृत्तिकी प्रसिद्धिके लिए बागेका सूत्र कहते हैं। (रा. बा./६/६/२/२६४/१६) खा./८/८)।
=
समुद्घात
४. समितिका प्रयोजन अहिंसात्रतकी रक्षा
ख. सि./१/५/४११/१० वा एताः पच समितयो विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेः प्राणिपीड़ापरिहाराभ्युपाया मेव्याः । - इस प्रकार कही गयी ये पाँच समितियाँ जीव स्थानादि विधिको जाननेवाले गुनिके प्राणियोंकी पीड़ा को दूर करनेके उपाय जानने चाहिए।
ला. सं./५/१८५ यथा समितयः पञ्च सन्ति...। अहिंसावतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तैः । १८५१ = अहिंसा व्रतको रक्षा करनेके लिए श्रावकों को पाँच समितियों का पालन अवश्य करना चाहिए।
५. समिति पालनेका फल
1
भ.आ./सू./१२०१ पनप जहा उण तिष्यदि सिनेहगुणजुतं तह समिदीहि विप्न साधु कार हरियो | १२०१ = स्नेहगुणसे युक्त कमलका पत्र जलसे लिप्त होता नहीं है तद्वत् प्राणियों के शरीर में बिहार करनेवाला यतिराज समितियोंसे युक्त होनेसे पासे लिए होता नहीं। स.सि./६/५/४११/११ प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकर्मास्रवात्समरो भवति। इस प्रकारसे ( समितिपूर्वक) प्रवृत्ति करनेवाले असंयम रूप परिणामोंके निमित्तसे जो कर्मोंका आसव होता है उसका संवर होता है।
3 -
समीकरण - Equation.
समुच्छिन क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान दे समुत्पत्तिक बन्धस्थान दे
शुक्लध्यान ।
समुद्घात - १. समुद्रात सामान्यका लक्षण
रा.वा./१/२०/१२/०७/१२ हन्तेर्गमिक्रियात्वात संभूयात्मप्रदेशानां च बहिरुहननं समुद्घातः । = वेदना आदि निमित्तोंसे कुछ आत्मप्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलना समुद्रात है (गो. जी./जी. प्र. / ५४३ / १३६ / ३ )
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
भ. १/१.१.६० / ३००/६ पातनं मातः स्थित्यनुभवविनाश इति यावत् । ... उपरि घातः उद्घातः, समीचीन उद्घातः समुद्घातः । = ( केवलि समुद्रात प्रकरण में घाटने रूप धर्मको पात कहते हैं, जिसका प्रकृतमें अर्थ कर्मों की स्थिति और अनुभागका विनाश होता है ।... उत्तरोत्तर होनेवाले घातको उद्धघात कहते हैं, और समीचीन उघातको समुद्रघात कहते हैं।
गो. जी.
६० मूलसरीरमडिय उत्तर देहस्त जीवपिंडास निग्गम देहादो होदि सम्रग्वादणामं तु । ६६ । मूल शरीरको न छोड़कर तेजस कार्मण रूप उत्तर देहके साथ-साथ जीव प्रदेशों के शरीरसे बाहर निकलनेको समुदघात कहते हैं । (द्र.सं./टी./१०/२५ में उद्धृत )
www.jainelibrary.org