Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 347
________________ समिति ३४० १. समिति निर्देश जीवोंको बाधा होगी। जल में प्रवेश करनेके पूर्व साधु हाथ-पाँव वगैरह अवयवों में लगे हुए सचित्त और अचित्त धूलिको पीछीसे दूर करे । अनन्तर जल में प्रवेश करे । जलसे बाहर आनेपर जब तक पाँव न सूख जावें, तब तक जल के समीप ही खड़ा रहे । पाँव सूखनेपर विहार करे । बड़ी नदियों को उलांघनेका कभी अवसर आवे तो नदीके प्रथम तटपर सिद्ध वन्दना कर, समस्त वस्तुओं आदिका प्रत्याख्यान करे। मनमें एकाग्रता धारण कर नौका वगैरहपर आरूढ़ होवे। दूसरे तटपर पहुँचनेके अनन्तर उसके अतिचार नाशार्थ कायोत्सर्ग करे। प्रवेश करनेपर अथवा वहाँसे बाहर निकलनेपर यही आचार करना चाहिए। दे, भिक्षा/२/६ जो गीली है, हरे तृण आदिसे व्याप्त है, ऐसी पृथ्वीपर गमन नहीं करना चाहिए । भ. आ./वि./१२०६/१२०४/४ खरान्, करभात, बलीवच, गजास्तुररगान्महिषान्सारमेयान्कलहकारिणो या मनुष्यान्दूरतः परिहरेत् ।... मृदुना प्रतिलेखनेन कृतप्रमार्जनो गच्छेद्य दि निरन्तरसुसमाहितफलादिक वाग्रतो भवेत् मार्गान्तरमस्ति। भिण्णवर्णा वा भ्रमिं प्रविशंस्तवर्णभूभाग एब अङ्गप्रमार्ज- कुर्यात् । - मार्गमें गदहा, ऊँट, बैल, हाथी, घोड़ा, भैंसा, कुत्ता और कलह करनेवाले लोगोंको दूरसे ही त्याग करे ।.. रास्तेमें जमीनसे समान्तर फलक पत्थर वगैरह चीज होगी, अथवा दूसरे मार्गमें प्रवेश करना पड़े अथवा भिन्न वर्ण की - जमीन हो तो जहाँसे भिन्नवर्ण प्रारम्भ हुआ है वहाँ खड़े होकर प्रथम अपने सर्व अंगपरसे पिच्छी फिरानी चाहिए। (और भी-दे. संयम/१/७) २. ईर्यासमितिके अतिचार भ. आ./वि./१६/६२/४ ईसिमितेरतिचारः मन्दालोकगमनं. पदविन्यासदेशस्य सम्यगनालोचनम्, अन्यगतचित्तादिकम् । - सूर्य के मन्द प्रकाशमें गमन करना, जहाँ पॉव रखना हो वह जगह नेत्रसे अच्छी तरहसे न देखमा, इतर कार्य में मन लगाना इत्यादि । ज्ञा./१८/८-६ धूर्तकामुकक्रव्यादचौरचार्वाकसेविता । शङ्कासंकेतपापाट्या त्याज्या भाषा मनीषिभिः ।। दशदोषविनिर्मुक्ता सूत्रोक्ता साधुसंमताम् । गदतोऽस्य मुनेर्भाषां स्याभाषासमितिः परा 11 -धूर्त (मायावी), कामी, मांसभक्षी, चौर, नास्तिकमति,-चाक आदिसे व्यवहारमें लायी हुई भाषा तथा संदेह उपजानेवाली, व पापसंयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानों को त्यागनी चाहिए।८। तथा वचनोंके दश दोष (दे.भाषा) रहित सूत्रानुसार साधुपुरुषोंको मान्य हों ऐसी भाषाको कहनेवाले मुनिके उत्कृष्ट भाषा समिति होती है । २. वाक शुद्धिका लक्षण मू. आ /८५३-८६१ भासं विणयविहणं. घम्मविरोही विवज्जये वयणं । पुच्छिदमपुच्छिदं वा णवि ते भासति सप्पुरिसा ।८५३। अच्छीहि य पेच्छता कण्णे हि य बहुबिहा य सुणमाणा। अत्यति भूयभूया ण ते करं ति हु लोइयकहाओ ।८५४। विकहाविसोत्तियाणं खणमवि हिदएण ते ण चितंति । धम्मे लद्धमदीया विकहा तिविहेण बज्जति।८५७। कुक्कुयकंदपाइय हास उवलावणं च खेडं च । मददप्पहत्यवट्टि ण करति मुणी ण कारेंति 1८५८ ते होंति णिनियारा थिमिदमदी पदिद्विदा जहा उदधी। णियमेसु दढव्यदिणो पारत्तरिमग्गया समणा 1८५६। जिणवयणभासिदत्थं पत्थं च हिदं च धम्मसंजुत्तं । समओवयारजुत्तं पारत्तहिदं कधं करेंति ।८६०। सत्ताधिया सप्पुरिसा मग्गं मण्णं ति बीदरागाणं । अणयारभावणाए भावति य णिच्चमप्पाणं १८६॥ - सत्पुरुष वे मुनि विनय रहित कठोर भाषाको तथा धर्मसे विरुद्ध वचनों को छोड़ देते हैं। और अन्य भी विरोध जनक वाक्यों को नहीं बोलते।८५३। वे नेत्रोंसे सब योग्य-अयोग्य देखते हैं और कानोंसे सब तरहके शब्द सुनते हैं परन्तु वे गंगेके समान तिष्ठते हैं, लौकिक कथा नहीं करते।६५४ा स्त्रीकथा आदि विकथा ( दे. कथा) और मिथ्या शास्त्र, इनको वे मुनि मनसे भी चिन्तवन नहीं करते। धर्म में प्राप्त बुद्धिवाले मुनि विकथाको मन वचन कायसे छोड़ देते हैं 1८५७। हृदय कंठसे अप्रगट शब्द करना, कामोत्पादक हास्य मिले वचन, हास्य वचन, चतुराई युक्त मीठे वचन, परको ठगने रूप वचन, मदके गर्व से हाथका ताड़ना, इनको वे न स्वयं करते हैं, न कराते हैं १८५८। वे निर्विकार उद्धत चेष्टा रहित, विचारवाले, समुद्रके समान निश्चल, गम्भीर छह आवश्यकादि नियमों में दृढ़ प्रतिज्ञावाले और परलोकके लिए उद्यमवाले होते हैं ।८५६। वीतरागके आगम द्वारा कथित अर्थवाली पथ्यकारी धर्मकर सहित आगमके विनयकर सहित परलोक में हित करनेवाली कथाको करते हैं ।८६०१ उपसर्ग सहनेसे अकंपपरिणामवाले ऐसे साधुजन वीतरागोंके सम्यग्दर्शनादि रूप मार्गको मानते हैं और अनगार भावनासे सदा आत्माका ही चितवन करते हैं ।८६॥ रा. वा./३/६/१६/५६८/१ वाक्यशुद्धिः पृथिवीकायिकारम्भादिप्रेरणरहिताः (ता) परुषनिष्ठुरादिपरपीडाकरप्रयोगनिरुत्सुका व्रतशीलदेशनादिप्रधानफला हितमितमधुरमनोहरा संयतस्य योग्या। तदधिष्ठाना हि सर्वसंपदः । - पृथिवीकायिक आदि सम्बन्धी आरम्भादिकी प्रेरणा जिसमें न हो तथा जो परुष, निष्ठुर और पर पीड़ाकारी प्रयोगोंसे रहित हो व्रतशील आदिका उपदेश देनेवाली हो, वह सर्वतः योग्य हित, मित, मधुर और मनोहर वाक्यशुद्धि है। वाक्य शुद्धि सभी सम्पदाओंका आश्रय है । (चा. सा./८१/४): (वसु. श्रा./२३०) २. भाषा समितिके अतिचार भ. आ,/बि./१६/६२/४ इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न वेति अनालोच्य भाषणं अज्ञात्वा वा। अत एवोक्तं 'अपुट्ठो दु ण भासेज भासमाणस्स अंतरे' इति अपृष्टश्रुतधर्मतया मुनिः अपृष्ट इत्युच्यते। भाषासमितिक्रमानभिज्ञो मौनं गृह्णीयात इत्यर्थः। एवमादिको भासासमित्यति. ४. भाषासमिति निर्देश १. भाषासमितिका लक्षण मू. आ./१२,३०७ पेसुण्णहासकक्कसपरणिदाप्पप्पसंसविक हादी। वज्जित्ता सपरहिदं भासासमिदी हवे कहणं ।१२। सच्चं असञ्चमोसं अलियादीदोसवजमणवज्ज । वदमाणस्सणुवीची भासासमिदी हवे सुद्धा ।३०७१ -१. झूठ दोष लगाने रूप पैशुन्य, व्यर्थ हँसना, कठोर वचन, परनिंदा, अपनी प्रशंसा, और विकथा इत्यादि वचनोंको छोड़कर स्व-पर हितकारक वचन बोलना भाषा समिति है। (नि.सा/म. ६२) २. द्रव्यादि चतुष्टयको अपेक्षा सत्य वचन ( दे. सत्य), सामान्य वचन, मृषावादादि दोष रहित, पापोंसे रहित आगमके अनुसार बोलनेवालेके शुद्ध भाषासमिति होती है। (भ. आ./मू./११६२); (स. सा./६८) रा. वा./६/५/५/५६४/१७ मोक्ष पदप्रापणप्रधानफलं हितम् । तद्विधम्स्वहितं परहितं चेति । मितमनर्थ कालपनरहितम् । स्फुटार्थ व्यक्ताधर चासंदिग्धम् । एवंविधमभिधानं भाषासमितिः। तत्प्रपञ्चःमिथ्याभिधानासूयाप्रियसभेदात्पसारशङ्कितसंभ्रान्तकषायपरिहासा - युक्तासभ्यनिष्ठुरधर्मविरोध्यदेशकालालक्षणातिसंस्तवादिवाग्दोषवि - रहिताभिधानम् । = स्व और परको मोक्षकी ओर ले जानेवाले स्वपर हितकारक, निरर्थक बकवाद रहित मित स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर और असन्दिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है। मिथ्याभिधान, असूया प्रियभेदक, अल्पसार, शंकित, संभ्रान्त, कषाय युक्त, परिहास युक्त, अयुक्त, असभ्य, निष्ठुर, अधर्म विधायक, देशकाल विरोधी, और चापलूसी आदि वचन दोषोंसे रहित भाषण करना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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