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समिति
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१. समिति निर्देश
१. समिति निर्देश
१. समिति सामान्यका लक्षण १. निश्चय समिति रा. वा./8/५/२/५६३/३४ सम्यगितिः समितिरिति । -सम्यग् प्रकारसे
प्रवृत्तिका नाम समिति है। नि, सा./ता. वृ./६१ अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परमधर्मिणमात्मानं सम्यग् इति परिणतिः समितिः । अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादिपरमधर्माणां संहतिः समितिः । म अभेद-अनुपचाररत्नत्रयरूपी मार्गपर परमधर्मी ऐसे ( अपने ) आत्माके प्रति सम्यग् 'इति'(गति) अर्थात परिणति वह समिति है, अथवा निज परम तत्त्वमें लीन सहज परम ज्ञानादिक परमधर्मोंको संहति (मिलन,
संगठन ) वह समिति है। प्र. सा/ता. वृ./२४०/३३२/२१ निश्चयेन तु स्वस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितः। -निश्चयसे तो अपने स्वरूपमें सम्यग् प्रकारसे
गमन अर्थात परिणमन समिति है। द्र. सं./टी./३६/०१/३ निश्चयेनानन्तज्ञानादिस्वभावे मिजारमनि समसम्यक समस्तरागादिविभावपरित्यागेन तल्लीनतश्चिन्तनतन्मयत्वेन अयनं गमनं परिणमन समितिः। -निश्चय नयकी अपेक्षा अनन्तज्ञानादि स्वभावधारक निज आत्मा है, उसमें सम भले प्रकार अर्थात समस्त रागादि भावोंके त्याग द्वारा आत्मामें लीन होना, आत्माका चिन्तन करना, तन्मय होना आदि रूपसे जो अयन (गमन) अर्थात परिणमन सो समिति है।
२. व्यवहार समिति स. सि./8/२/४०६/७ प्राणिपीडापरिहारार्थ सम्यगयन समितिः। प्राणि पीड़ाका परिहारके लिए सम्यक् प्रकारसे प्रवृत्ति करना समिति है।
(रा. वा./६/२/२/५६१/३१) म. आ./वि./१६/११/१६ समिदीसु य सम्यगयनादिषु अयनं समितिः ।
सम्यक्श्रुतज्ञाननिरूपितक्रमेण गमनादिषु वृत्तिः समितिः । म. आ./वि./११५/२६७/१ प्राणिपीडापरिहारादरवतः सम्यगयनं
समितिः। -गमनादि कार्यों में जैसी प्रवृत्ति आगममें कही है वैसी प्रवृत्ति करना समिति है। प्राणियों को पीड़ा न होवे ऐसा विचार
कर दया भावसे अपनी सर्व गवृत्ति जो करना है, वह समिति है। प. सा./ता, वृ./२४०/६३२/२१ व्यवहारेण पञ्चसमितिभिः समितः संवृत्तः पञ्च समितः । व्यवहारसे ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों के द्वारा सम्यक् प्रकार 'इत.' अर्थात प्रवृत्ति करना सो पंचसमिति है। १. सं टी/३/१०१/४ व्यवहारेण तदबहिरङ्गसहकारिकारणभूताचारादि
चरणप्रन्थोक्ता समितिः । - व्यवहारसे उस निश्चय समिति के बहिरङ्ग सहकारि कारणभूत आचार चारित्र विषयक ग्रन्थों में कही हुई समिति है।
२. समितिके भेद वा. पा./मू./३७ इरिया भासा एसण जा सा आदाण चैव णिवखेषो। संजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ। -ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापण ये पाँच समिति संयम शुद्धिके कारण कही गयी हैं। (मू. आ./१०, ३०१); (त. सू./६/५); ( स. सि /६/५/४११/६); (द्र. सं./टी./३५/१०१/५) ३. ईर्यासमिति निर्देश . १. ईर्यासमितिका लक्षण आ./११,३०२,३०३ फासुयमग्गेण दिवा जुवंतरप्पहेणा सकज्जेण ! जंतूण परिहर ति इरियासमिदी हवे गमणं ।११। मग्गुज्जोबुपओगालंबणसुद्री हि इरियदो मुणिणो । सुत्ताणुवीचि भणिया इरियास मिदी
पवयणम्मि ३०२। इरियाबहपडिवण्णेणवलोगतेण होदि गंतव्वं । पुरदो जुगप्पमाण सयाप्पमत्तेण सत्तेण ।३०६ =१. प्रामुक मार्गसे (दे. बिहार/९/७) दिनमें चार हाथ प्रमाण देखकर अपने कार्य के लिए प्राणियोंको पीड़ा नहीं देते हुए संयमीका जो गमन है वह ईर्यासमिति है। (नि. सा./६१) । २. मार्ग, नेत्र, सूर्य का प्रकाश, ज्ञानादिमें यत्न, देवता आदि आलम्बन- इनकी शुद्धतासे तथा प्रायश्चित्तादि सूत्रोंके अनुसारसे गमन करते मुनिके ईर्यासमिति होती है ऐसा आगममें कहा है।३०। (भ. आ./भू./११६१) ३, कैलास गिरनार आदि यात्राके कारण गमन करना हो तो ईपिथसे आगेकी चार हाथ प्रमाण भूमिको सूर्यके प्रकाशसे देखता मुनि सावधानीसे हमेशा गमन
करे ।३०३। (त. सा./६/७) रा.वा./६/५/३/५६४/१ विदितजीवस्थानादिविधेर्मुनेर्धार्थ प्रयतमानस्य सवितर्युदिते चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्य उपजाते मनुष्यादिचरणपातोपहतावश्याय-प्रायमार्गे अनन्यमनसः शनैय॑स्तपादस्य संकुचितावयवस्ययुगमात्रपूर्व निरीक्षणाविहितकृष्टेः पृथिव्याद्यारम्भाभावात ईर्यासमितिरित्याख्यायते। -जीवस्थान आदिकी विधिको जाननेवाले, धर्मार्थ प्रयत्नशील साधुका सूर्योदय होनेपर चक्षुरिन्द्रियके द्वारा दिखने योग्य मनुष्य आदिके आवागमनके द्वारा कुहरा क्षुद्र जन्तु आदिसे रहित मार्गमें सावधान चित्त हो शरीर संकोच करके धीरेधीरे चार हाथ जमीन आगे देखकर पृथिवी आदिके आरम्भसे रहित गमग करना ईर्यासमिति है। (चा. सा./६६/२); (शा./१८/६-७); ( अन.ध./४/१६४/४६२) २. ईयर्यापथ शुद्धिका लक्षण रा. वा./8/६/१६/५६७/१३ ईर्यापथशुद्धिः नानाविधजीवस्थानयोन्याश्रयावबोधजनितप्रयत्नपरिहृतजन्तुपीड़ाज्ञानादित्यस्वेन्द्रियप्रकाश निरीक्षितदेशगामिनी द्रुतविलम्बितसंभ्रान्तविस्मितलीलाविकारदिगन्तराबलोकनादिदोषविरहितगमना । तस्यां सत्यां संयमः प्रतिष्ठितो भवति विभव इव सुनीतौ। - अनेक प्रकारके' जीवस्थान योनिस्थान जीवाश्रय आदिके विशिष्ट ज्ञानपूर्वक प्रयत्नके द्वारा जिसमें जन्तु पीड़ाका बचाव किया जाता है, जिसमें ज्ञान, सूर्य प्रकाश, और इन्द्रिय प्रकाशसे अच्छी तरह देखकर गमन किया जाता है तथा जो शीघ्र, बिलम्बित, सम्भ्रान्त, विस्मित, लीला विकार अन्य दिशाओंकी ओर देखना आदि गमनके दोषोंसे रहित गतिवाली है वह ईर्यापथ शुद्धि है। (चा. सा/७६/७)
३. ईर्यासमितिकी विशेषताएँ भ. आ./वि./१५०/३४४/६ स्ववासदेशान्निर्गन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा देशाच्छरीरप्रमार्जनं कार्य, तथा विशतापि । किमर्थ । शीतोष्ण जंतूनामावाधापरिहारार्थं अथवा श्वेतरत्तगुणासु भूमिषु अन्यस्या नि.क्रमेण अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जनं करिप्रदेशादधः कार्य । अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकायिकानां तभूमिभागोल्पनानां त्रसानां चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सचित्ताचित्तरजसोः पदादिषु लग्नयोनिरासः। यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव तिष्ठेत् । महतीनां नदीनां उत्तरणे आराभागे कृतसिद्धवन्दनः यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व शरीरभोजनमुपकरणं च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यानः समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत, परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेव । तदतिचारव्यपोहाथ । एवमिव महत् कान्तारस्य प्रवेश निःक्रमणयोः। -शीत और उष्ण जन्तुओंको बाधा न हो इसलिए शरीर प्रमार्जन करना चाहिए। तथा सफेद भूमि या लाल रंगकी भूमिमें प्रवेश करना हो अथवा एक भूमिमे निकलकर दूसरी भूमिमें प्रवेश करना हो तो करिप्रदेशसे नीचेतक सर्व अवयव पिच्छिकासे प्रमाजित करना चाहिए। ऐसी क्रिया न करनेसे विरुद्ध योनि संक्रमसे पृथ्वी कायिक जीव और त्रस कायिक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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