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सम्यग्दर्शन
-अक्ष संचार गणितमें अक्ष या भंगके नाम के आधारपर संख्या बताना समुद्दिष्ट है । विशेष-दे. गणित/II/३/१,२। समुद्देश-उद्दिष्ट आहारका एक भेद-दे. उद्दिष्ट । समुद्र-१. दे. सागर; २. मध्य लोकमें स्थित समुद्र-2, लोक/:
३. समुद्रके नकशे-दे. लोक/७। समुद्रगुप्त मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह गुप्तवंशी राजाओंका दूसरा राजा था। समय-वी. नि.८५६-६०१ (ई. ३३०३७५)-दे. इतिहास/३/४1 समुद्रविजय-ह. पु./सर्ग/श्लोक अन्धकवृष्णिका पुत्र था। तथा कृष्णके ताऊ थे। (१८/१२-१४) आदिनाथ भगवान के पिता थे (३८/६४८/४३-४४) अन्तमें दीक्षा धारण कर (६१/8) गिरनार पर्वतपर-से मोक्ष प्राप्त किया (६५/१६ )। सम्मेदाचल माहात्म्य-पं. मनरंगलाल (ई. १७६३-१८४३)
द्वारा विरचित भाषा छन्द बद्ध कृति । सम्यक् स. सि./१/१/३/३ सम्यगित्यव्युत्पन्नः शब्दो व्युत्पन्नो वा। अञ्चतेः क्वौ समञ्च तीति सम्यगिति । अस्यार्थः प्रशंसा। - 'सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न अर्थात् रौढिक और व्युत्पन्न अर्थात व्याकरण सिद्ध है। 'सम्' उपसर्ग पूर्वक अञ्च धातुसे क्विप् प्रत्यय करनेपर 'सम्यक् ' शब्द बनता है। संस्कृतमें इसकी व्युत्पत्ति 'समञ्चति इति सम्यक' इस प्रकार होती है । इसका अर्थ प्रशंसा है। रा, वा./१/२/१/१९/४ सम्य गित्ययं निपातः प्रशंसार्थो वेदितव्यः सर्वेषां प्रशस्तरूपगतिजातिकुलायुविज्ञानादीनाम आभ्युदयिकानां मोक्षस्य च प्रधानकारणत्वात्। ... "सम्यगिष्टार्थ तस्वयोः" इति वचनात प्रशंसार्थाभाव इति; तन्नः अनेकार्थत्वान्निपातानाम् । अथवा, सम्यगिति तत्त्वार्थो निपातः,...अविपरीतार्थविषयं तत्त्वमित्युच्यते। अथवा व्यन्तोऽयं शब्दः समञ्चतोति सम्यक् । यथा अर्थोऽवस्थितस्तथैवावगच्छतीत्यर्थः । = सम्यक् यह प्रशंसार्थक शब्द (निपात) है। यह प्रशस्त रूप, गति, जाति, आयु विज्ञानादि अभ्युदय और निःश्रेयसका प्रधान कारण होता है। 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस प्रमाणके अनुसार सम्यक् शब्दका प्रयोग इष्टार्थ और तत्स्व अर्थमें होता है अतः इसका प्रशंसार्थ उचित नहीं है, इस शंकाका समाधान यह है कि निपात शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। अथवा 'सम्यक'का अर्थ तत्व भी किया जा सकता है ।...अथवा यह क्विप् प्रत्ययान्त शब्द है । इसका अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही जाननेवाला । सम्यक्चारित्र-दे. चारित्र । सम्यक्त्व-दे. सम्यग्दर्शन । सम्यक्त्व कौमुदी-आ. शुभचन्द्र (ई. १५१६-१५५६) द्वारा
रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । सम्यक्त्व क्रिया-दे. क्रिया/३/२। सम्यक्त्व प्रकृति-दे, मोहनीय/२। (ई. १५१६-१५५६) द्वारा सम्यक्त्व लब्धि-दे, लब्धि/१/३ । सम्यक्त्ववाद-दे, श्रद्धानवाद। सम्यक्त्वाचरणचारित्र-दे. स्वरूपाचरणचारित्र । सम्यक नय-दे. नय/II । सम्यक् प्रकृति-दे. मोहनीय/२। सम्यक मिथ्यात्व गुणस्थान-दे, मिश्र । सम्यगनेकांत-दे. अनेकान्त/१ ।
सम्यगेकांत-दे. एकान्त/१ सम्यग्ज्ञान-दे. ज्ञान/IITH सम्यग्दर्शन--दुरभिनिवेश रहित पदार्थोका श्रद्धान अथवा स्वात्म प्रत्यक्षपूर्वक स्व-पर भेदका या कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक सम्यगदर्शन कहा जाता है। किन्हींको यह स्वभाव से ही होता है और किन्हींको उपदेशपूर्वक । आज्ञा आदिकी अपेक्षा यह दश प्रकारका तथा कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशमकी अपेक्षा तीन प्रकारका होता है। इनमें से पहले दो अत्यन्त निर्मल व निश्चल होते हैं, पर तीसरे में समल होने के कारण कदाचित कुछ अतिचार लगने सम्भव हैं। रागके सद्भाव व अभावकी अपेक्षा भी इसके सराग ब वीतराग दो भेद हैं। तहाँ सराग तो प्रशम, संवेग आदि गुणोंके द्वारा अनुमानगम्य है और वीतराग केवल स्वानुभवगम्य है। सभी भेद निःशंकित आदि आठ गुणोंसे भूषित होते हैं। सम्यक्त्व व ज्ञानमें महान् अन्तर होता है जो सूक्ष्म विचारके बिना पकड़में नहीं आता । जितनी भी विकल्पात्मक उपलब्धियाँ, श्रद्धा, अनुभव आदि हैं वे सब ज्ञानरूप हैं, सम्यग्दर्शन तो निर्विकल्प होनेके कारण अन्तरमें अभिप्राय या लब्धरूप अब स्थित मात्र रहा करता है। मोक्षमार्गमें इसका सर्वोच्च स्थान है, क्योंकि इसके बिनाका आगम ज्ञान, चारित्र, बत, तप आदि सब वृथा हैं। सम्यग्दर्शनके लक्षणों में भी स्वारम संवेदन सर्वप्रधान है, क्योंकि बिना इसके तत्त्वोंकी श्रद्धा आदि अकिंचित्कर है। ये सम्यग्दर्शन स्वतः या किसीके उपदेशसे, या जातिस्मरण, जिनबिम्बदर्शन आदिके निमित्तसे काल पाकर भव्य जीवों को उत्पन्न होता है। इसको प्राप्त करने की योग्यता केवल संझी पर्याप्त जीवों में चारों ही गतियों में होती है। अनादि मिथ्यादृष्टिको सर्वप्रथम प्रथमोशम सम्यक्त्व होता है। वहाँसे नियमसे गिरकर वह पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है। पीछे कदाचित् बेदक-सम्यक्त्वको और तत्पूर्वक यथायोग्य गुणस्थानों में द्वितीयोपशम व क्षायिक हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन अत्यन्त अचल व अप्रतिपाती है, तथा केवलीके पाद मूलमें मनुष्योंको ही होना प्रारम्भ होता है। पीछे यदि मरण हो जाये तो चारों गतियों में पूर्ण होता है।
सम्यग्दर्शन सामान्य निर्देश सामान्य सम्यग्दर्शन निर्देश सम्यग्दर्शन सामान्यका लक्षण। -दे सम्य./II/१। सम्यग्दर्शनके भेद। सम्यक्त्वमार्गणाके भेद। -दे. सम्यग्दर्शन/IV/१N निसर्गज व अधिगमजके लक्षणादि । -दे. अधिगम । निश्चय व्यवहार व सराग वीतरागभेद । -दे, सभ्य /II | उपशमादि सम्यक्त्व। -दे. सम्य./IV I आशा आदि १० भेदोंके लक्षण । आशा सम्यक्त्वकी विशेषताएँ । सम्यग्दर्शनमें 'सम्यक' शब्दका महत्त्व । सम्यग्दर्शनमें दर्शन शब्दका अर्थ । १. सत्तामात्र अवलोकन इष्ट नहीं है। २. कथंचित सत्तामात्र अवलोकन इष्ट है। ३. व्यवहार लक्षणमें 'दर्शन' शब्द का अर्थ श्रद्धा है। ४. उपर्युक्त दोनों अर्थोंका समन्वय । श्रद्धान व अन्धश्रद्धान सम्बन्धी। -दे. श्रद्धान ।
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