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समवाय
ण
पञ्च
स्वादिति... यथा प्रदीपः प्रदोषान्तरमनपेक्षमाण आत्मानं प्रकाशयति घटादश्च तथा समवायः संवन्धान्तरापेामन्तरेणात्मनश्च द्रव्यादिषु वृत्तिहेतुर्द्रव्यादोनां च परस्परत इति; तन्नः कुतः । तत्परिमामादनन्यत्वसिद्ध यथा प्रदीपः स्वलक्षणत्रसिद्धी पटादिम्योन्यो नैवं समवायः स्वलक्षणप्रसिद्धः द्रव्यादन्योऽस्ति । =प्रश्नवैशेषिक समवाय नामका पृथक् पदार्थ मानते हैं, इससे अपृथक् सिद्ध पदार्थोंमें 'इह इदम् यह प्रत्यय होता है और इसीसे गुण गुणी में अभेदकी तरह भान होने लगता है ? उत्तर - समवाय नामका पृथक् पदार्थ भी सिद्ध नहीं होता। क्योंकि - १० जिस प्रकार गुणगुणी में समवाय सम्बन्धसे वृत्ति मानी जाती है उसी तरह समवायकी गुण और गुणीमें किस सम्बन्धसे वृद्धि होगो समवायान्तर से तो नहीं, क्योंकि समवाय पदार्थ एक ही स्वीकार किया गया है। संयोग से भी नहीं, क्योंकि दो पृथक सिद्ध द्रव्योंमें ही संयोग होता है।यदि कहा जाय कि - चूँकि समवाय 'सम्बन्ध' है अतः उसे स्वसम्बन्धियों में रहनेके लिए अन्य सम्बन्धकी आवश्यकता नहीं है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि संयोगसे व्यभिचार दूषण आता है। संयोग भी सम्बन्ध है पर उसे स्वसम्बन्धियों में समवायसे रहना पड़ता है । २. जिस प्रकार दीपक स्व-परप्रकाशी दोनों हैं उसी प्रकार समवाय भी अन्य सम्बन्धकी अपेक्षा किये बिना स्वतः ही द्रव्यादिकी परस्पर वृत्ति करा देगा तथा स्वयं भी उनमें रह जायेगा, यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से समवायको द्रव्यादिको पर्याय ही माननी पड़ेगी ।... दीपकका दृष्टान्त भी उचित नहीं है क्योंकि जैसे दीपक घटादि प्रकाश्य पदार्थोंसे भिन्न अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है उसी तरह समवायकी द्रव्यादिसे भिन्न अपनी स्वतन्त्रसत्ता नहीं है । क. पा. १/११/१२-१३ /४०/९ विसयीयसमवायमाणाभावादो अमुत्ते निरवयवे अव्बे इंदियस किरिसामावादी --- [च] 'इहेद' पचपसेकसमवाओ तहानिह ओवल भाभावादी, आहाराहेयभावेण ददरे चैव तदुभादो 'इह कमाले घडो वह [संह पढ़ो विउपमणो दोसह चि चे प घडावस्था खप्पराणं पडावत्थाए तंतूर्णं च अणुवलं भादो ।... णाणुमाणमजि तग्गा तदविणाभानिलिंगापलं भादोनच अत्या वत्तिगमो समवाओ अणुमाणपुधभूदत्थावत्तीए अभावादो। ण चागमभो; वादि पडिवादी पसिद्धे गागमाभावादो। ३. समवायको विषय करनेवाला प्रमाण नहीं पाया जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण तो समयायको विषय कर नहीं सकता है, क्योंकि समवाय स्वयं अमूर्त है. निरवयव है और द्रव्य रूप नहीं है, इसलिए उसमें इन्द्र सत्रिकर्ष नहीं हो सकता है |... 'इहेदस्' प्रत्ययसे समवायका ग्रहण हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकारका प्रत्यय नहीं पाया जाता है, यदि पाया भी जाता है तो आधार-आधेय भावसे स्थित कुण्ड और बेरोंमें ही 'इस कुण्डमें ये देर है इस प्रकारका 'इहेदम् ' प्रत्यय पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। प्रश्न - 'इन कपालों में घट है, इन तन्तुओं में पट है' इस प्रकार भी 'इहेदम् ' प्रत्यय उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है । उत्तर-नहीं; क्योंकि घट रूप अवस्था में कपालोंकी और पटरूप अवस्थामै तन्तुओंकी उपलब्धि नहीं होती । ( प्र . सा./त.प्र / ६८ ) ...यदि कहा जाय कि अनुमान प्रमाण समवायका ग्राहक है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि समवायका अविनाभावी कोई लिंग वहीँ पाया जाता है। यदि कहा जाय कि अर्थापत्ति प्रमाणसे समवायका ज्ञान हो जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अर्थापत्ति अनुमान प्रमाणसे पृथक्भूत कोई स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । यदि कहा जाय कि आगम प्रमाणसे समवायका ज्ञान होता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिसे बादी और प्रति वादी दोनों मानते हों, ऐसा कोई आगम भी नहीं है।
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क. पा. १/१.२०/३३२४/४/४ किम योगाभ्यास कियानि रोषाद न स क्षणिकोऽपि तत्र भावाभावाभ्यामर्थं क्रियाविरोधात् ।
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समवायिनी किया
नान्यत् आगच्छति, तत्परित्यक्ताशेषकार्याणामसत्वप्रसङ्गात् । नापरिआगच्छति निरवयवस्यापरित्यक्तपूर्व कार्यस्यागमनविरोधात् । न समवायः सावयवः, अनित्यतापत्तेः । न सोऽनित्यः, अनवस्थाभागाम्यां समुत्पतिप्रसादन नियः सर्वगोवा, निष्क्रियस्थ व्याझापोषदेवास्यागमनविरोधात नागतः समवायत्वप्रसङ्गाव नाम्मानीय अनवस्थापतेः न कार्योत्पत्तिप्रदेशे प्रागस्तिः संन्धिय बिनाविरोधातेनिरवस्योत्पतिविरोध क. पा. १/११/३३ / ४८/८ ण च अण्णत्य संतो आगच्छदिः किरियाए विरहियस्स आगमणाणुवमसीदो व च समयाओ किरियातो अनिरुपद्रव्यसम्पाद
४. यदि कहो कि वह नित्य है सो वह नित्य भी नहीं है, क्योंकि नित्य माननेसे ] उसमें क्रमसे अथवा एक साथ अर्थक्रियाके माननें में विरोध आता है । ५. उसी प्रकार समवाय क्षणिक भी नहीं है, क्योंकि क्षणिक पदार्थ में भाव और अभाव रूपसे अर्थ किया मानने में विशेष आता है। ६ अन्य क्रियाको छोड़कर उत्पन्न होनेवाले पदार्थ में समवाय आता है. ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेवर समवायके द्वारा छोड़े गये समस्त कार्योंको असत्त्वका प्रसंग प्राप्त होता है 1७, अन्य पदार्थको नहीं छोड़कर समवाय आता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो निरवयव है और जिसने पहले कार्यको नहीं छोड़ा है ऐसे समवाय का आगमन नहीं बन सकता है। ८. समवायको सावयव मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर उसे अनित्यपने की प्राप्ति होती है । ६. यदि कहा जाय कि समवाय अनित्य होता है तो हो जाओ सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवायवादियों के मत में उत्पत्तिका अर्थ स्व कारणसत्ता समवाय माना है । अतः समवायकी भी उत्पत्ति दूसरे समवायकी अपेक्षा से होगी, और ऐसा माननेपर अनवस्था दोषका प्रसंग प्राप्त होता है ।...१०. उसकी उत्पत्ति स्वतः अर्थात समवायान्तर निरपेक्ष मानी जायेगी तो समवायका अभाव हो जानेसे उसकी उत्पत्ति नहीं बन सकती है। ११. समयको नित्य और सर्वगत कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जो क्रिया रहित है और जो समस्त देश में व्याप्त है उसका आगमन माननेमें विरोध आता है । १२. यदि असर्वगत माना जाय सो भी कहना ठीक नहीं है. क्योंकि ऐसा माननेपर समवायको महत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। समवाय अन्यके द्वारा कार्य देशमें लाया जाता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा माननेपर अनवस्था दोषकी आपत्ति प्राप्त होती है (क. पा. ९/११/१३३/४६/९)--- १३. कार्यके उत्पत्ति देशमें समवाय पहलेसे रहता है; ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्बन्धियोंके बिना सम्बन्धका सप्त्व माननेमें विरोध आता है । (क. पा. १/११/१३३/४८ /७) १४. कार्य के उत्पत्ति देश में समवाय उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय अपयम रहित है अर्थात नित्य है इसलिए उसकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है । १५. यदि कहा जाय कि समवाय कार्योपत्ति के पहले अन्यत्र रहता है और कार्योत्पत्ति कालमें वहाँ आ जाता है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि समवाय स्वयं क्रिया रहित है।... माननेपर उसे अनित्य द्रव्यत्वका प्रसंग प्राप्त होता है। समवाय द्रव्य दे /१ समवायि- १. समवाय व असमवायका लक्षण वैशेषिक द/भाषा/१०/२/३०३/० द्रव्य होने गुण और कर्म समवाय सम्बन्धसे रह सकते हैं...सपने ही समवावि कारण होता है। वैशेषिक/भाषा./१०/२/२/३०६ जो कारण और कार्यके सम्बन्धको एक ही में मिला दे वह असमवायी कारण है। समवायिनी क्रिया - दे. क्रिया / ३ |
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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