Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 334
________________ समंतानुपात किया ३२७ समय जाने पर आपने स्वयम्भू स्तोत्र के पाठ द्वारा शिवलिंग में से चन्द्रप्रभु समन्वय-भिन्न-भिन्न विषयों के अनेकों विकल्पोंका परस्पर समभगवान की प्रतिमा प्रगट की जिससे प्रभावित होकर शैवराज शिव ___न्वय-दे. बह-वह विषय। कोटि दीक्षा धारण कर उनके शिष्य हो गए । १७७। समभिरूढ नय-दे. नय/III/9I आपकी रचनाओं में ११ प्रसिद्ध है-१. गृहत् स्वयम्भू स्तोत्र २. स्तुति विद्या (जिनशतक), ३. देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा). समय-१. समय सामान्यके लक्षण ४. युक्त्यनुशासन, तत्वानुशासन, ६. जीवसिहि ५. प्रमाण पदार्थ.८: कर्म प्राभृत टीका, ६. गन्धहस्तिमहाभाष्य, १०. रत्न १. कालके अर्थमें कण्डप्रावकाचार, ११. प्राकृतव्याकरण । १२. पटखंडागम के आध ति.प./४/२८५ परमाणुस्स णियट्ठिदगयणपदेसस्स दिकमणमेत्तो। जो पाच खंडों पर एक टीका भी बताई जाती है, परन्तु अधिकतर कालो अविभागी होदि पुढं समयणामा सो ।२८५४ -पुद्गल परमाणुविद्वान इसे प्रमाणित नहीं मानते (क. पा./५/प्र.६३/पं. महेन्द्र), का निकटमें स्थित आकाश प्रदेशके अतिक्रमण प्रमाण जो अविभागी (भ. आ./प्र.४/प्रेमी जी), (यु. अनु./प्र. ४४/पं. मुख्तार साहब), काल है वही समय नामसे प्रसिद्ध है। (ध.४/१,५.१/३१८/२); (ध. १/प्र. १०/H. L. Jain), (प. प्र./प्र. १२१/उपाध्ये.). (स. सि./प्र.- (न. च. बृ./१४०); (गो. जी./मू. ब. जी. प्र./५७३); (पं.का./ १७/प, महेन्द्र), (ह. पू./प्र.६/पं. पन्नालाल) इत्यादि । बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति के समकालीन बताकर डा. सतीशचन्द ता. वृ./२५); (पं. का./ता. वृ./५/५२/५) विद्याभूषण इन्हें ई. ६०० में स्थापित करते है।१५। रत्नक्रण्ड रा. वा./३/३८/७/२०८/३४ सर्वजघन्यपरिणतस्य परमाणोः स्वावगाढाश्रावकाचार के श्लोकको सिद्धसेन गणी कृत न्यायावतार में से वकाशप्रदेशव्यतिक्रमकालः परमनिषिद्धो निविभागः समयः । बागत बताकर श्वेताम्बर विद्वान पं. मुस्ख लाल जी इन्हें इसी समय -जघन्यगतिसे एक परमाणु सटे हुए द्वितीय परमाणु तक जितने में हुआ मानते है। प्रेमी जी तथा डा. हीरा लाल इन्हें ई. श. में काल में जाता है उसे समय कहते हैं। कम्पित करते है।१२। परन्तु नागवंशी चोल नरेश कीलिकबर्मन दे. काल/१ काल समय और अद्धा ये एकार्थवाची हैं। के अनुसार ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर डा. ज्योति प्रशाद घ. १३/५.१,५६/२६८/११ दोण परमाणूण तप्पाओग्गवेगेण उड्डमधो च इन्हें ई. १२०-१८५ में और मुख्तार साहम तथा डा. महेन्द्र कुमार गच्छताणं सरीरेहि अण्णोण्णफोसणकालो समओ णाम। -तप्रायोग है.श.२ में प्रतिष्ठित करते हैं । १३ । परन्तु ऐसा मानने पर श्रवण- ___ वेगसे एकके ऊपरकी ओर और दूसरेके नीचेकी ओर जानेवाले दो बेलगोल के शिलालेख नं.४० में इन्हें जो गृपिच्छ (उमास्वामी) परमाणुओंका उनके शरीर द्वारा स्पर्शन होनेमें लगनेवाला काल के प्रशिष्य और बलाक पिच्छ के शिष्य कहा गया है।१०। वह समय कहलाता है । (गो. जी./मू./५७३)। घटित नहीं हो सकता। (ती./२/पृष्ठ सं...")(व.इतिहास/७/१)। गो.जी./मू./५७३ अवरा पज्जायद्विवी खणमेतं होदितं च समओत्ति। -सम्पूर्ण द्रव्योंकी जघन्य पर्याय स्थिति एक समयमात्र होती है, समंतानुपात क्रिया-दे. क्रिया/३/३ । इसोको समय भी कहते हैं । सम-स. सा./आ/२ समयत एकत्वेन...।-समयत अर्थात एकरव २. आरमाके अर्थमें रूपसे । (स. सा./आ./३)। गी. क./जी, प्र./५४७/७१३/५ सम एकीभावेन। -सम अर्थात एकी. स. सा./आ./२ जीवनाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जाभावसे...1 नाति गच्छति चेति निरुक्तेः। -जीव नामक पदार्थ समय है। जो दे. सामायिक/१/२ घी संगत है अर्थात् धीके साथ एकीभूत है। एकत्व रूपसे एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ वह समय है। समकित चौबीसी व्रत-एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक चतुर्दशीको स.सा./आ./३ समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते। समयत उपवास करे। तथा 'ओं ह्रीं वृषभादि चतुर्विशतिजिनाय नमः' इस एकीभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छतीति निरुक्तेः। -समय शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि व्युत्पत्तिके अनुसार मन्त्रका त्रिकाल जाप। कुल ४८ उपवास करे। 'समयते' अर्थात एकीभावसे अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त होकर जो समकद्रिय-Concentric (ध./५/प्र. २८)। परिणमन करता है सो समय है। (स. सा./ता. वृ./१५१/२१४/१३) स. सा./ता. वृ./१५१/२१४/१३ सम्यगयः संशयादिरहितो बोधो ज्ञानं समचतुरस्त्र संस्थान-. संस्थान । यस्य भवति स समयः अथवा समित्येकत्वेन परमसमरसीभावेन समच्छिन्नक-Frustrum (ज./प्र./१०८)। स्वकीयशुद्धस्वरूपे अयनं गमनं परिणमनं समयः। -'सम्यगयः' समच्छेद-गणितकी भिन्न परिकाष्टक विधिमें अंशों और हरों अर्थात संशय आदि रहित ज्ञान जिसका होता है ऐसा जीव समय है। अथवा एकीभावरूपसे परमसमरसी भाव स्वरूप अपने शुद्ध को यथायोग्य गुणा करके सब राशियोंके हार समान करना। स्वरूपमें गमन करना, परिणमन करना सो समय है। विशेष-दे. गणित/11/९/१०।। स.सा./पं. जयचन्द/२ 'सम' उपसर्ग है, जिसका अर्थ 'एक साथ' है और समता-१.दे. सामायिक । २. समताके अपर नाम-दे. मोक्ष- 'अय गतौ' धातु है, जिसका अर्थ गमन और ज्ञान भी है, इसलिए मार्ग/२/१॥ एक साथ ही जानना और परिणमन करना, यह दोनों क्रियाएँ जिसमें हों वह समय है। यह जीव नामक पदार्थ एक ही समयमें परिणमन समतोया-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-वे. मनुष्य/४ । भी करता है और जानता भी है इसलिए वह समय है। समवत्ति-दे. दान/१। ३. पदार्थसमूहके अर्थमें समद्विबाहु- Squaloidral (ज. पं./प्र. १०८ ) पं. का./पू./३ समवाओ पंचण्ह समउ ति जिणुप्तमेहि पण्णत्त ।...। -पाँच अस्तिकायका समभावपूर्वक निरूपण अथवा उनका समवाय समधारा-दे. गणित/II/R/21 वह समय है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551