Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 333
________________ सप्तभंगा ३२६ समंतभद्र स्वहनो मालास्तत्त्वावक्तब्यतां श्रिताः। - वे एकान्तवादी जन उस स्वघाती दोषको दूर करनेके लिए असमर्थ हैं, आपसे द्वष रखते हैं, आत्मघाती है और उन्होंने तत्त्वकी अवक्तव्यताको आश्रित किया सकता जिससे एक शब्दसे कथन हो सके। कोई एक शब्द या पद दो गुणोंको युगपद नहीं हो सकता । यदि कहे तो 'सत्' शब्द सत्त्वकी तरह असत्त्वका भी कथन करेगा। तथा 'असत्' शब्द सत्का। पर ऐसी लोक प्रतीति नहीं है, क्योंकि प्रत्येकके वाचक शब्द जुदा-जुदा हैं। इस तरह कालादि दृष्टिसे युगपत भावकी सम्भावना नहीं है तथा उभय वाची कोई एक शब्द है नहीं अतः वस्तु अवक्तव्य है। श्लो. वा. २/१/६/५६/४७७/६) संभंत./पृष्ठ./पं. ननु कथमवक्तब्यो घटः, इति नमः। सर्वोऽपि शब्दः प्रधानतया न सत्त्वासत्त्वे युगपत्प्रतिपादयति तथा प्रतिपादने शब्दस्य शक्यभावाद, सर्वस्य पदस्यैकपदार्थविषत्व सिद्धेः (६६) सर्वेषां पदानामेकार्थत्वनियमे नानार्थकपदोच्छेदापत्तिः इति चेन्न.... सादृश्योपचारादेव तस्यैकत्वेन व्यवहरणात.. समभिरूढनयापेक्षया शब्दभेदाइधुवोऽर्थ भेदः ।...अन्यथा वाच्यवाचकनियमव्यवहारविलोपात् (६१/१) सेनाबनयुद्धपङ्क्तिमालापालकग्रामनगरादिशब्दा. नामनेकार्थप्रतिपादकत्वं दृष्टमिति चेन्न। करितुरगरथपदातिसमूहस्यैवैकस्य सेनाशब्देनाभिधानात (६४/१) वृक्षावितिपदं वृक्षद्वय. बोधक वृक्षा इति च बहुवृक्षबोधकम्...लुप्तावशिष्टशब्दयोः साम्याद वृक्षरूपार्थस्य समानत्वाच्चैकत्वोपचारासन्त्रैकशब्दप्रयोगोपपत्तिः । (६४/५) वृक्षपदेन वृक्ष रूपैकधर्मावच्छिन्नस्यैव बोधो नान्यधर्मा. वच्छिन्नस्य (६६/२) द्वन्द्वस्यापि क्रमेणैवार्थ द्वयप्रत्यायनसमर्थत्वेन गुणप्रधानभावस्य तत्रापि सत्त्वात् ।६८/३)। = प्रश्न-घट अवक्तव्य कैसे है ? उत्तर-सर्व ही शब्द एक काल में ही प्रधानतासे सत्त्व और असत्त्व दोनोंका युगपत् प्रतिपादन नहीं कर सकते, क्योंकि उस प्रकारसे प्रतिपादन करनेकी शब्द में शक्ति नहीं है क्योंकि सर्वही शब्दों में एक ही पदार्थको विषय करना सिद्ध है । प्रश्न-सर्व ही शब्दोंको एकार्थवाची माना जाये तो अनेकार्थवाची शब्दोंका अभाव हो जायेगा। उत्तर-नहीं. क्योंकि ऐसे शब्द वास्तबमें अनेक ही होते हैं परन्तु केवल सादृश्यके उपचार से ही उनमें एकपनेका व्यवहार होता है । समभिरूढ नयकी अपेक्षा शब्द भेद होनेपर अवश्य ही अर्थ का भेद हो जाता है अन्यथा वाच्य-वाचकपनेके नियमका व्यवहार नहीं हो सकता । प्रश्न-सेना, वन, युद्ध, पंक्ति, माला, तथा पालक इत्यादि शब्दोंकी अनेकार्थवाचकता इष्ट है । उत्तर-नहीं, क्योंकि हस्ति, अश्व, रथ व पयादोंके समूह रूप एक ही पदार्थ सेना शब्दसे कहा जाता है। प्रश्न-'वृक्षौ' कहनेसे दो वृक्षोंका तथा वृक्षाः कहनेसे बहुतसे वृक्षोंका ज्ञान कैसे हो सकेगा ! उत्तर-नहीं, क्योंकि वहाँ भी अनेक शब्दोंके द्वारा ही अनेक वृक्षोंका अभिधान होता है। किसी एक शब्दसे अनेकार्थका बोध नहीं होता। व्याकरणके नियमानुसार शेष शब्दोंका लोप करके केवल एक ही शब्द शेष रहता है । लुप्त शब्दों की अवशिष्ट शब्दके साथ समानता होनेसे उनमें एकत्वका उपचार मानकर एक ही शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है। तथा बहुवचनान्त वृक्ष पदसे भी वृक्षत्व रूप एक धर्मसे अवच्छिन्न एक-एक वृक्षका ही भाव होता है, किसी, अन्य धर्मसे अवच्छिन्न पदार्थका नहीं। प्रश्न-बहुवचनान्त पद बहुत्व और वृक्षत्व ऐसे अनेक धर्मोसे अवच्छिन्न वृक्षका ज्ञान होनेके कारण उपरोक्त भंग हो जाता है। उत्तर-यद्यपि आपका कहना ठीक है परन्तु यहाँ प्रथम वृक्ष शब्द एक वृक्षत्व रूप धर्मसे अवच्छिन्न अर्थ का ज्ञान कराता है और तत् पश्चात लिंग और संख्याका। इस प्रकार शब्द जन्य ज्ञान क्रमसे ही होता है। और इसलिए 'वृक्षाः' इत्यादि पदसे वृक्षत्व धर्मसे अंवच्छिन्न पदार्थ का बोध तो प्रधानतासे होता है, परन्तु लिंग तथा बहुत्व संख्याका गौणतासे । और इस प्रकार मुख्यता और गौणता द्वन्द्व समासमें भी विवक्षित है क्योंकि वह भी क्रमसे दो या अधिक पदार्थोंको बोध कराने में समर्थ है। ४. सर्वथा अवक्तव्य कहना मिथ्या है स्व. स्तो./१०० ते तं स्वघातिनं दोष शमीकमनीश्वराः। त्वद्विषः ५. वक्तव्य व अवक्तव्यका समन्वय स.भ.त./७०/७ अयं खलु तदर्थः सत्त्वाचे कैकधर्म मुखेन वाच्यमेव वस्तू युगपत्प्रधानभूतसत्त्वासत्त्वोभयधर्मावच्छिन्नरवेनावाच्यम् । = सत्त्वादिधर्मों मेंसे किसी एक धर्मके द्वारा पदार्थ वाच्य है, वही सत्त्व, असत्त्व उभय धर्म से अवाच्य है। पं.ध./उ./६६३-६६५ तदभिज्ञानं हि यथा वक्तुमशक्यात समं नयस्य यतः। अपि तुर्यो नयगभस्तत्त्वावक्तव्यतां श्रितस्तस्मात् । ६६३ । न पुनर्वक्तुमशक्यं युगपद्धर्मद्वयं प्रमाणस्य क्रमवर्ती। केवल मिह नयः प्रमाण न तद्वदिह यस्मात् ६६४ा यत्किल पुनः प्रमाण वक्तुमलं वस्तुजातमिह यावत् । सदसदनेकैकमथो नित्यानित्यादिकं च युगपदिति ।६६जिस कारणसे दो धर्मोंको नय कहनेमें असमर्थ है, तिस कारण तत्त्वकी अवक्तव्यताको आश्रित करने वाला चौथा भी नय भग है।६६३। किन्तु प्रमाणको एक साथ दो धर्मोंका प्रतिपादन करना अशक्य नहीं .. है, क्योंकि यहाँ केवल नय क्रमवर्ती है किन्तु प्रमाण नहीं। और निश्चयसे प्रमाण सत्-असत, एक-अनेक और नित्य-अनित्य वगैरह सम्पूर्ण वस्तुके धौको एक साथ कहनेके लिए समर्थ है ।६६४-६६४ पं.ध/मु /३६६ ततो वक्तुमशक्यत्वात निर्विकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लेख समालेख्य ज्ञान द्वारा निरूप्यते ।३६६। इसलिए निर्विकल्पक वस्तुके कथनको अनिर्वचनीय होनेके कारण ज्ञानके द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उपलेख करके उनका निरूपण किया जाता है। सप्तभंगो तरंगिनी-विमलदास (श्रावक) ( ई.श. १४-१५ ) कृत संस्कृत भाषाका न्याय विषयक ग्रन्थ । सप्त व्यसन-दे. व्यसन । सप्त व्यसन चारित्र-प.मनरंग लाल (ई.१८५० -१८६०) द्वारा रचित भाषा छन्द बद्ध कथा। सप्तांक-असंख्यात गुणवृद्धिको सप्तांक संज्ञा है। -दे. श्रुतज्ञान III/२/३ । सप्रतिपक्षी-सत् सदा अपने प्रतिपक्षीकी अपेक्षा रखता है। -दे. अनेकान्त।४। सप्रतिपक्षी प्रकृतियां-दे. प्रकृतिबन्ध/२। सप्रतिपक्षी हेत्वाभास-जिस हेतुका प्रतिपक्षी साधन मौजूद हों। समंतभद्र-शिलालेखों तथा शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर सी./२/ पृ. सं... आपको श्रुतके वलियों के समकक्ष/१७१। प्रथम जैन संस्कृत कवि एवं स्तुतिकार, बादी, बाग्मी, गमक, तार्किक/१५२ तथा युग संस्थापक माना गया है। १७४ । आप उरगपुर (त्रिचनापतली) के नागवंशी चोल नरेश कोलिक बर्मन के कनिष्ठ पुत्र शान्ति बर्मन होने क्षत्रियकुलोत्पन्न थे। १८३। श्रवणलबेगोल के शिलालेख नं. ५४, राजाबलिक थे. आराधना कथाकोष। १७६-१७७ । तथा प्रभाचन्द्र कृत कथाकोष के अनुसार आपको भस्मक व्याधि हो गई थी। धर्म तथा साहित्य को इनसे बहुत कुछ प्राप्त होने वाला है यह जानकर गुरु ने इन्हें समाधिमरण की आज्ञा न देकर लिंगछेद की आज्ञा दी। अतः आप पहले पुण्ड्रवर्द्धन नगर में बौद्ध भिक्षुक हुए, फिर दशपुर नगर में परिव्राजक हुए और अन्त में दक्षिण वेशस्थ काञ्ची नगर में शैव तापसी मनकर वहां के राजा शिवकोटि के शिवालय में रहते हुये शिव पर चढ़े नैवेद्यका भोग करने लगे। पकड़े जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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