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सप्तभंगी
पं. ध. /उ. / ३६६ ततो वक्तुमशक्यत्वात् निर्विकल्पस्य वस्तुनः । तदुल्लेख समाख्यानद्वारा निरूप्यते ३६६ निर्विवस्तुके कथनको अनिर्वचनीय होनेके कारण ज्ञानके द्वारा उन सामान्यात्मक गुणों का उल्लेख करके उन 'निरूपण किया जाता है।
२. वह सर्वथा अवक्तव्य नहीं
आप्त. मी./ ४६-५० अवक्तव्य चतुष्कोटिर्विकल्पोऽपि न
कथ्यताम् ।
असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेष्यविशेषणम् । ४६ । अवस्वनभिलाप्यं स्वाद सर्वान्तः परिवर्जितमस्येवस्तुस याति प्रक्रियाया विपर्यवाद ४८ सर्वान्धारचेदवक्तव्यास्तेषां कि बचनं पुनः। कृतिश्चैनमुपैषा परमार्थ विपर्ययात् ॥ ४६॥ अशनादनाकिम भावात्किमत्रोतः । आद्यन्तोक्तिद्वयं न स्यात् किं व्याजेनोच्यतारफुटम् । ५० । 'चार प्रकारका विकल्प अवक्तव्य है' ऐसा कहना युक्त नहीं, क्योंकि सर्वथा अवक्तव्य होनेसे विशेषण- विशेष्य भावका अभाव होगा। इस प्रकार सर्व वस्तुओंको अवस्तुनेका प्रसंग वेगा । ४६ । प्रश्न- यदि सर्व धर्मोंसे रहित वह अवस्तु अवक्तव्य है तो उसको आप अवस्तु भी कैसे कह सकते हैं 1 उत्तर- हमारे हाँ अवस्तु सर्वथा धर्मोसे रहित नहीं है, बल्कि वस्तुके धर्मोसे विपरीत धर्मोका कथन करनेपर अवस्तु स्वीकार की जाती है ।४८। जिनके मतमें सर्व धर्म सर्वथा अवक्तव्य हैं उनके हाँ तो स्त्रपक्ष साधन और पर पक्ष दूषणका वचन भी नहीं बनता है, तब उन्हें तो मौन ही रहना चाहिए। 'वचन तो व्यवहार प्रवृत्ति मात्रके लिए होता है,' ऐसा कहना भी युक्त नहीं है क्योंकि परमार्थसे विपरीत तथा उपचार मात्र कथन विपरीत होता है | हम तुमसे पूछते हैं कि वस्तु इसलिए अन है कि तुममें उसके कहनेकी सामर्थ्य नहीं है या इसलिए अवक्तव्य है कि उसका अभाव है, या इसलिए अवक्तव्य है कि तुम उसे जानते नहीं। तहाँ आदि और अन्त वाले दो पक्ष तो आप बौद्धोंके हाँ सम्भव नहीं है क्योंकि आप बुद्धको सर्वज्ञ मानते हैं। मध्यका पक्ष अर्थात् वस्तुका अभाव मानते हो तो बस पूर्वक घुमा-फिराकर क्यों कहते हो स्पष्ट कहिए ।
रा. वा. /४/४२/१५/२५८/१७ स च अवक्तव्यशब्देन अन्यैश्च षड् भिर्वचनैः पर्यायान्तरविवक्षया च वक्तव्यत्वात् स्यादवक्तव्यः । यदि सर्वथा अवक्तव्यः स्यात् अवक्तव्य इत्यपि चावक्तव्यः स्यात् कुतो बन्धमोक्षादिप्रक्रियाप्ररूपणविधिः । यह (वस्तु) अवक्तव्य शब्द के द्वारा अन्य छह भंगोंके द्वारा' वक्तव्य होनेसे 'स्यात्' अवक्तव्य है सर्वथा नहीं । यदि सर्वथा अवक्तव्य हो जाये तो 'अवक्तव्य शब्दके द्वारा भी उसका कथन नहीं हो सकता। ऐसी दशामें बन्ध मोक्षादिकी प्रक्रियाका निरूपण निरर्थक हो जायेगा (रा.वा./१/६/१०/४५/२६)
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बा २/९/६/६/पं सकलमाचकरहितत्वादवतव्यं वस्तु युगपदमा प्रधानभावापिताभ्यामाकान्तं व्यवतिष्ठते तच्च न सर्ववाक्यमेवाभ्याम्येनास्य मयादित्येके (४०० / २१) कथमिदानी अवाच्यैकान्तेऽभ्युक्तिर्माच्यमिति युज्यते" इ घटते सातत्येनेव सस्याद्य कैकधर्म समान्येनाध्य वाच्यत्वे वस्तुनो वाच्यत्वाभावधर्मेणाकान्तस्यावाच्यपदेनाभिधानं न युज्यते इति व्याख्यानात् (४८९ / २६) एक ही समय में प्रधानपनसे विक्षित किये गये सब और असत्य धर्मों करके चारों ओरसे विरो हुई वस्तु उपस्थित हो रही है। यह सम्पूर्ण वाचक शब्दोंसे रहित है । अतः अवक्तव्य है और वह सभी प्रकारोंसे अवक्तव्य ही हो यह नहीं समझना, क्योंकि अवक्तव्य शब्द करके ही इसका वाचन हो रहा है। श्री समन्तभद्र स्वामीका कहना कैसे घटित होगा कि "अवाच्यता ही यदि एकान्त माना जायेगा तो अवाच्य इस प्रकारका कथन भी युक्त नहीं होता है" ( आ. मी./५५) एक समय में हो रहे धर्मोसे आक्रान्तपने करके जैसे वस्तु अवाच्य है, उसी प्रकार सत्त्व,
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६. अवक्तव्य भंग निर्देश
असत्त्व आदिमेंसे एक-एक धर्म से आरूढपने करके भी वस्तुको यदि अवाच्य माना जायेगा तो वाच्यस्वाभाव नामके एक धर्म करके घिरी हुई वस्तुका अवाच्य पद करके कथन करना नहीं युक्त हो सकता है। (स्या. मं. / २३ / २८१/३); ( स. भं. त. / ६६ /१० )
सं.भं. त . / ७३ / ३ एवमत्रक्तव्यमेव वस्तुतत्त्वमित्यवक्तव्य त्वेकान्तोऽपि स्वमवनपातः सदामीनमसिफोऽहमिति णो यह कहते हैं कि सर्वथा अवक्तव्य रूप ही वस्तु स्वरूप है, उनका कथन स्ववचन विरोध है जैसे - मैं सदा मौनव्रत धारण करता हूँ ।
३. कालादिकी अपेक्षा वस्तु धर्म अवतव्य है
रा. वा./४/४२/९५/२५७/१२
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प्रतियोगियां गुणाभ्यामवधारणायुगपदेकस्मिन् काले ऐकेन शब्देन एकस्यार्थस्य कृत्स्नस्यैवाभेदरूपेणाभिधित्सा तदा अवाच्यः तद्विधार्थस्य वृत्तिः, न च तैरभेदोऽज संभवति के पुनस्ते कालादयः काल आरमरूपमर्थः संबन्धः उपकारो गुणिवेदशः संसर्गः शब्द इति तत्र येन कारणेन विरुद्धा भवन्ति गुणास्तेषामेकस्मिन् काले क्वचिदेकवस्तुनि वृत्तिर्न दृष्टा अतस्तयोर्नास्ति वाचकशब्दः तथावृत्त्यभावात् । अत एकस्मिन्नात्मनि तदसत्वे प्रविभक्ते असंसर्गात्मारूपे अनेकान्तरूपे न स्तः । एककाले येनात्मा तथोच्येत ताभ्यां विविक्तं च परस्परत आत्मरूपं गुणानां नान्योन्यात्मनि वर्तते यत उभाभ्यां युगपदभेदेनोच्येत । न च बिरुवात्सदसत्त्वादीनाम् एकान्तपक्षे गुणानामेकद्रव्याधारा वृत्तिरस्ति यतः अभिव्राधारखेनाभेदो युगपद्भावः स्याय, मेन केनचिय शब्देन या सदस उच्येयाताम् न च संभवतोऽभिज्ञता गुणानां संभवति भिन्नत्वात् संबन्धस्य । यथा छत्रदेवदत्तसंबन्धोऽन्यः दण्डदेवदत्तसंबन्धात् ।...न च गुणा उपकारेणाभिन्नाः यतो द्रव्यस्य गुणाधीन उपकारी नीलरक्ताद्य परञ्जनम्, ते च स्वरूपतो भिन्नाः ॥...न चैकान्तपक्षे गुणान संसृष्टमनेकात्मकं रूपमस्ति अवधृतै कान्तरूपत्वादसत्वासत्त्वादेर्गुणस्य । यदा शवलरूपव्यतिरिक्तौ शुक्लकृष्णौ गुणी असंसृष्टौ नैकस्मिन्नर्थे यह पतितु समय वाता ताभ्यां संसर्गाभावात् एकान्तपक्षे न युगपदभिधानमस्ति अर्थस्य तथा विभावादन चैकः शब्दो द्वयोर्गुणयोः सहवाचको स्ति यदि स्यात् छन्दः स्वादसदपि सद्र्यात असो ऽपि स्वार्थ सदपि असर न च तथा नोके संप्रत्ययोऽस्ति यो विशेषदत्वात् एवमुक्तात् कालादिभावाभाव शब्दस्य च एकस्य उभयार्थ वाचिनोऽनुपलब्धेः अवक्तव्य आत्मा । = जब दो प्रतियोगी गुणोंके द्वारा अवधारण रूपसे युगपत् एक कालमें एक शब्द से समस्त वस्तु के कहने की इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है क्योंकि पैसा शब्द और अर्थ नहीं है। गुणगावका अर्थ है कालादिकी से अमेदवृत्ति वे कालादि आठ - काल. आत्मरूप अर्थ, सम्बंन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द । जिस कारण गुण परस्पर विरुद्ध हैं अतः उनकी एक कालमें किसी एक वस्तु वृत्ति नहीं हो सकती अतः सत्त्व और असत्वका वाचक एक शब्द नहीं है एक वस्तुमें सत्त्व और असत्व परस्पर भिन्न (आत्म) रूपमें हैं उनका एक स्वरूप नहीं है जिससे वे एक शब्द के द्वारा युगपत् कहे जा सकें। परस्पर विरोधी सत्य और असत्त्वकी एक अर्थ में वृत्ति भी नहीं हो सकती जिससे अभिन्न आधार मानकर अमेद और युगभाव कहा जाये तथा किसी एक शन्दसेनका प्रतिपादन हो सके । सम्बन्धसे भी गुणों में अभिन्नताकी सम्भावना नहीं है, क्योंकि सम्बन्ध भिन्न होता है । देवदत्त और दण्डका सम्बन्ध यज्ञदत और छत्र के सम्बन्ध से जुदा है ही ।... उपकार दृष्टिसे भी गुण अभिन्न नहीं हैं, क्योंकि द्रव्यमें अपना प्रत्यय या विशिष्ट व्यवहार कराना रूप उपकार प्रत्येक गुणका जुदा-जुदा है। जब शुबल और कृष्ण वर्ग परस्पर भिन्न है तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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