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सप्तभंगी
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६ अवक्तव्य भंग निर्देश
८. कालादिकी अपेक्षा वस्तुमें भेदाभेद श्लो. बा. २१/६/५४/४५२/१४ के पुनः कालादयः । कालः आत्मरूपं,
अर्थः, संबन्धः, उपकारो, गुणिदेशः, संसर्गः शब्द इति । तत्र स्याज्जीवादि वस्तु अस्त्येव इत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधर्मा बस्तुन्येकडेति, तेषां कालेनाभेदवृत्तिः । यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्बमात्मरूपं तदेवान्यानन्तगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिः। य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपर्यायाणामित्यर्थनाभेदवृत्तिः । य एवाविष्वग्भावः कथंचित्तादाम्यलक्षणः संबन्धोऽस्तित्वस्य स एवाशेषविशेषाणामिति संबन्धेनाभेदवृत्तिः। य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तकरणं स एव शेषरपि गुण रित्युपकारेणाभेदवृत्तिः। य एव च गुणिदेशोऽस्तित्वस्य स एवान्यगुणानामिति गुणिदेशेनाभेदवृत्तिः। य एव चैकवस्त्वात्मनास्तित्वस्य संसर्गः स एव शेषधर्माणामिति संसर्गेणाभेद वृत्तिः। य एवास्तीतिशब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः स एव शेषानन्तधर्मात्मकस्यापोति शब्देनाभेदवृत्तिः । पर्यायाथै गुणभावे द्रव्यार्थि करवप्राधान्यादुपपद्यते।
श्लो. वा. २/१/६/५४/४५३/२७ द्रव्यार्थिकगुणभावेन पर्यायाथिकप्राधान्येन तु न गुणानां कालादिभिरभेदवृत्तिः अष्टधा संभवति । प्रति. क्षणमन्यतोपपत्तेभिन्नकालत्वात्। सकृदेकत्र नानागुणानामसंभवात संभवे वा तदाश्रयस्य तावद्वा भेदप्रसंगाव तेषामात्मरूपस्य च भिन्नत्वात् तदभेदे तद्भेदविरोधात् । स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा नानागुणाश्रयत्वविरोधात् । संबन्धस्य च संबन्धिभेदेन भेददर्शनात नानासंबन्धिभिरेकत्रैकसंबन्धाघटनादात क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् । गुणि देशस्य च प्रतिगुणं भेदात् तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसंगात् । संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गभेदात् । तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात । शब्दस्य च प्रतिविषय-नानात्वात् गुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेः शब्दान्तरवै फल्यात् । -वे कालादिक-काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इस प्रकार आठ हैं । १. तहाँ जीवादिक वस्तु कथाचित हैं ही। इस प्रकार इस पहले भंगमें ही जो अस्तित्व का काल है, वस्तुमें शेष बचे हुए अनन्त धर्मोका भी वहीं काल है। इस प्रकार उन अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मोंकी कालकी अपेक्षासे अभेद वृत्ति हो रही है। २. जो ही उस वस्तुके गुण हो जाना अस्तित्वका अपना स्वरूप है, वहीं उस वस्तुके गुण हो जानापना अन्य अनन्तगुणोंका भी आत्मीय रूप है। इस प्रकार आत्मीय स्वरूप करके अनन्तधर्मोंकी परस्परमें अभेद वृत्ति है। ३. तथा जो ही आधार द्रव्य नामक अर्थ 'अस्तित्व'का है वहीं द्रव्य अन्य पर्यायोंका भी आश्रय है, इस प्रकार एक आधाररूप अर्थपनेसे सम्पूर्ण धर्मोके आधेयपनेकी बृत्ति हो रही है। ४. एवं जो ही पृथक्-पृथक नहीं किया जा सकना रूप कथंचित् तादात्म्य स्वरूप सम्बन्ध अस्तित्वका है वही अन्य धर्मोंका भी है। इस प्रकार धर्मोंका वस्तुके साथ अभेद वर्त्त रहा है।
५. और जो ही अपने अस्तित्वसे वस्तुको अपने अनुरूप रंग युक्त कर देना रूप उपकार अस्तित्व धर्म करके होता है, वे ही उपकार' बचे हुए अन्य गुणों करके भी किया जाता है। इस प्रकार उपकार करके सम्पूर्ण धर्मों का परस्परमें अभेद वर्त्त रहा है। ६. तथा जो ही गुणी द्रव्यका देश अस्तित्व गुणने घेर लिया है, वही गुणीका देश अन्य गुणोंका भी निवास स्थान है। इस प्रकार गुणिदेश करके एक वस्तु के अनेक धर्मों को अभेदवृत्ति है। ७.जो ही एक वस्तु स्वरूप करके अस्तित्व धर्मका संसर्ग है, वही शेष धौंका भी संसर्ग है। इस रीतिसे संसर्ग करके अभेद वृत्ति हो रही है। ८, तथा जो ही अस्ति यह शब्द अस्तित्व धर्म स्वरूप वस्तुका वाचक है वही शब्द
बचे हुए अनन्त अनन्त धर्मोके साथ तादात्म्य रखनेवाली वस्तुका भी वाचक है। इस प्रकार शब्द के द्वारा सम्पूर्ण धर्मोंकी एक वस्तुम अभेद प्रवृत्ति हो रही है।
यह अभेद व्यवस्था पर्यायस्वरूप अर्थको गौण करनेपर और गुणों के पिण्डरूप द्रव्य पदार्थको प्रधान करनेपर प्रमाण द्वारा बन जाती है। १. किन्तु द्रव्याथिकके गौण करनेपर और पर्यायाथिककी प्रधानता हो जानेपर तो गुणोंकी काल आदि करके आठ प्रकारको अभेदवृत्ति नहीं सम्भवती है क्योंकि प्रत्येक क्षणमें गुण भिन्न-भिन्न रूपसे परिणत हो जाते हैं अतः भिन्न-भिन्न धर्मोंका काल भिन्न-भिन्न है। अथवा एक समय एक वस्तुमें अनेक गुण नहीं पाये जा सकते हैं। यदि बलात्कारसे अनेक गुणोंका सम्भव मानोगे तो उन गुणोंके आश्रय वस्तुका उतने प्रकारसे भेद हो जानेका प्रसंग होगा। अतः कालकी अपेक्षा अभेद वृत्ति न हुई। २. पर्यायदृष्टिसे उन गुणोंका आत्मरूप भी भिन्न है अन्यथा उन गुणोंके भेद होनेका विरोध है। . ३. नाना धर्मोंका अपना-अपना आश्रय अर्थ भी नाना है अन्यथा एकको नाना गुणों के आश्रयपनका विरोध हो जाता है। ४. एवं सम्बन्धियों के भेदसे सम्बन्धका भी भेद देखा जाता है। अनेक सम्बन्धियों करके एक वस्तुमें एक सम्बन्ध होना नहीं घटता है। १. उन धर्मों करके किया गया उपकार भी वस्तुमें न्यारा-न्यारा नियत होकर अनेक स्वरूप है। ६. प्रत्येक गुणकी अपेक्षासे गुणीका देश भी भिन्न-भिन्न है। यदि गुणके भेदसे गुणवाले देशका भेद न मानाजायेगातोसर्वथाभिन्न दूसरे अर्थ के गुणों का भी गुणीदेश अभिन्न हो जायेगा। ७. संसर्ग तो प्रत्येक संसर्गवालेके भेदसे भिन्न ही माना जाता है। यदि अभेद माना जायेगा तो संसर्गियोंके भेद होनेका विरोध है। ८. प्रत्येक विषयकी अपेक्षासे वाचक शब्द नाना होते हैं, यदि सम्पूर्ण गुणोंका एक शब्द द्वारा ही वाच्य माना जायेगा, तब तो सम्पूर्ण अोंको भी एक शब्द द्वारा निरूपण किया जानेका प्रसंग होगा। ऐसी दशामें भिन्न-भिन्न पदार्थोके लिए न्यारे-न्यारे शब्दोंका बोलना व्यर्थ पड़ेगा । ( स्या. म./२३/२८४/१८); ( स. भ. त./३३/६)
९. मोक्षमार्गकी अपेक्षा पं. का./तं. प्र./१०६ मोक्षमार्गः.. सम्यक्त्वज्ञानयुक्तमेव नासम्यक्त्वज्ञान
युक्तं चारित्रमेव नाचारित्रं, रागद्वेषपरिहीणमेव न रागद्वेषापरिहीणम्, मोक्षस्यैव न भावतो वन्धस्य, मार्ग एवं नामार्गः, भव्यानामेव नाभव्यानां, लब्धबुद्धीनामेव नालब्धबुद्धीनां, क्षीणकषायत्वे भवत्येव न कषायसहितत्वे भवतीत्यष्टधा नियमोऽत्र द्रष्टव्यः । - मोक्षमार्ग सम्यक्त्व और ज्ञानसे ही युक्त है न कि असम्यक्त्व औरअज्ञानसे युक्त। चारित्र ही है न कि अचारित्र, राग-द्वेष रहित हो ऐसा है-न कि राग-द्वेष सहित हो ऐसा, भावतः मोक्षका ही न कि अन्धका, मार्ग ही-न कि अमार्ग, भव्यों को ही-न कि अभव्योंको, लब्धबुद्धियोंको ही न कि अलब्ध बुद्धियों को, क्षीणकषायनेमें ही होता है--न कि कषाय सहितपने में होता है इस प्रकार आठ प्रकारसे नियम यहाँ देखना।
६. अवक्तव्य भंग निर्देश १. युगपत् अनेक अर्थ कहने की असमर्थता रा. वा./४/४२/१५/२५८/१३ अथवा वस्तुनि मुख्यप्रवृत्त्या तुल्यालयोः परस्पराभिधानप्रतिवन्धे सति इष्टविपरीतनिर्गुणत्वापत्तेः विवक्षितोभयगुणत्वेनाऽनभिधानात अवक्तव्यः। = शब्दमें वस्तुके तुल्य बल वाले दो धर्मों का मुख्य रूपसे युगपत् कथन करनेकी शक्यता न होनेसे या परस्पर शब्द प्रतिबन्ध होनेसे निगुणत्वका प्रसंग होनेसे तथा विवक्षित उभय धर्मोंका प्रतिपादन न होनेसे वस्तु अवक्तव्य है। (श्लो. वा. २/१/६/५६/४८२/१३)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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