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समयभूषण
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समवसरण
समयभूषण-आ.इन्द्रनन्दि ( ई. श. १०-११) को रचना। समय सत्य-दे, सत्य/१। समयसार-१. समयसार सामान्यका लक्षण न. च. वृ./३५५ सामण्णं, परिणामी जीवसहावं च परमसम्भाव । ज्झेयं गुन्भं परमं तहेव तच्चं समयसारं ।३५५॥ - सामान्य, परिणामी, जीवस्वभाव, परमस्वभाव, ध्येय, गुह्य, परम तथा तत्त्व ये सब समयसारके अपर नाम हैं ।३५५॥
२. कारण-कार्य समयसार निर्देश न. च. वृ./३६०-३६२ कारणकज्जसहावं समय काऊण होइ ज्झायव्वं । कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स ३६०। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हू जीव सम्भावो । खय पुणु सहावझाणे तया तं कारणं झेयं ।३६१। किरियातीदो सत्थो अणतणाणाइस जुतो अप्पा। तह मज्झत्यो सुद्धो कज्जसहावो हवे समओ ।३६२। -कारण व कार्य समयसारको जानकर ध्यान करना चाहिए । कार्य समयसार शुद्धस्वरूप है तथा कारण, समयसार उसका साधन है ।३६०। शुद्ध तथा कर्मोंके क्षयसे कार्य समयसार होता है । कारणसमयसार जीबका स्वभाव है, स्वभावके ध्यान करनेसे कर्मोंका क्षय होता है। इसलिए कारणसमयसारका ध्यान करना चाहिए ।३६१। क्रियातीत, प्रशस्त, अनन्त ज्ञानादिसे संयुक्त मध्यस्थ तथा शुद्ध आत्मा, कार्य
समयसार है । वही स्वभाव तथा समय है। प्र. सा./ता. पू./१२/१२४/१६ शुद्धात्मरूपपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूति
रूपकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशे सति शुद्धात्मोपलम्भव्यक्तिरूपकार्यसमयसारस्योत्पादः । = शुद्धारमा रूप परिच्छित्ति, उस ही को निश्चल अनुभूति रूप जो कार्य समयसार पर्याय, उसका विनाश होनेपर, शुद्धात्मोपलब्धिकी व्यक्तिरूप कार्यसमयसारका उत्पाद है। द्र. सं./टी./२२/६४/५ केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपेण कार्यसमयसारस्योत्पादो निर्विकल्पसमाधिरूपकारणसमयसारस्य विनाश...-केवल ज्ञानादिकी प्रगटता रूप कार्यसमयसारका उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यान रूप जो कारणसमयसार है उसका विनाश होता है। द्र. सं./टी./३७/१५४/8 निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसाररूपो...
आत्मनः परिणाम....चतुष्टयकर्मणो यः क्षयहेतुरिति। -निश्चय रत्नत्रयरूप कारणसमयसाररूप आत्म परिणाम...चारघातियाकर्मों के नाशका कारण है।
जो श्रुतज्ञान होता है वह कारणसमयसार है और भाव नमस्कार कार्यसमयसार है। उसके आधारसे होनेवाला चार प्रकारका धर्मध्यान कारणसमयसार है, तथा तदनन्तर उत्पन्न होनेवाला बयालीस भेदरूप ( बयालीस व्यंजनोंमें संक्रान्ति करनेवाला), पराश्रित प्रथम शुक्लध्यान कार्यसमयसार है। उसके आश्रय से होनेवालाभेदज्ञानकारण समयसार है। उसके आश्रय मे होने वाला परोन्मुखाकार स्वसंवेदन रूप भेदज्ञान कार्य समयसार है ।स्वाश्रित स्वरूपका निरूपक,निराकार तथा भावात्मक, सम्यक् द्रव्यश्रुत कारणसमयसार है, तथा उससे उत्पन्न एकदेशसमर्थ भारत कार्यसमयसार है। उसके आगे स्वाश्रितरूपसे उपादेय भेदरत्नत्रय कारणसमयसार है और उस रत्नत्रयमें एकात्मक अवस्था कार्यसमयसार है। उसके आगे स्वाश्रित धर्मध्यान कारणसमयसार है और उससे होनेवाला भावात्मक प्रथम शुक्लध्यान कार्यसमय है। उसके आगे द्वितीय शुक्लध्यान संज्ञाको प्राप्त जो क्षीणकषाय गुणस्थानका द्विचरम समय. तहाँ पर्यत कार्य-परम्परागत कारण समयसार है। इस प्रकार अप्रमत्त गुणस्थानको आदि लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त समय समय प्रति कारण कार्य रूप जानना चाहिए। ( अर्थात् पूर्वपूर्व के भाव कारण समयसार हैं और उत्तर
उत्तरके भाव कार्यसमयसार।) . . समयसार-आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) कृत महान् आध्यात्मिक कृति । इसमें ४१५ प्राकृत गाथाएँ निबद्ध हैं। इस पर निम्न टीकाएँ उपलब्ध हैं-१. आ, अमृतचन्द्र (ई.०५-६५५ ) कृत आत्मख्याति । २. आ. जयसेन (ई.श.१२-१३ ) कृत तात्पर्यवृत्ति । ३. आ. प्रभाचन्द नं.१ (ई. ६५०-१०२०) कृत। ४. पं. जयचन्द छाबड़ा (ई. १८०७) कृत भाषा वचनिका । (ती./२/११३) । समयसार नाटक-पं. बनारसीदास (ई. १६३६ ) की अद्वितीय
आध्यात्मिक रचना है। इसमें १५ अधिकार और ६१६ पद है। यह ग्रन्थ समयसारकी आरमख्याति टीकाके कलशों के आधारपर लिखा गया है। इसपर पं. सदासुखदास (ई.१७६५-१८६७) ने एक टीका
भी लिखी है। (ती./४/२५२।। समवदान-दे. कर्म/११ समवसरण-अहंत भगवान् के उपदेश देनेकी सभाका नाम समबसरण है, जहाँ बैठ कर तिर्यंच मनुष्य व देव-पुरुष व स्त्रियाँ सब उनकी अमृतवाणीसे कर्ण तृप्त करते हैं। इसकी रचना विशेष प्रकारसे देव लोग करते हैं। इसकी प्रथम सात भूमियों में बड़ी आकर्षक रचनाएँ, नाट्यशालाएँ, पुष्प वाटिकाएँ, वापियाँ, चैत्य वृक्ष आदि होते हैं । मिथ्या दृष्टि अभव्यजन अधिकतर इसीके देखने में उलझ जाते हैं। अत्यन्त भावुक व श्रद्धालु व्यक्ति ही अष्टमभूमिमें प्रवेश कर साक्षात् भगवान के दर्शनोंसे तथा उनकी अमृतवाणीसे नेत्र, कान व जीवन सफल करते हैं।
१. समवसरण का लक्षण
३. कारण-कार्य समयसारके उदाहरण न. च. वृ./३६८ चूलिका-सकलसमयसारार्थ परिगृह्य पराश्रितोपादेयबाच्यवाचकरूपं पञ्चपदाश्रितं श्रुतं कारण समयसारः । भावनमस्कार। रूपं कार्यसमयसारः । तदाधारेण चतुर्विधधर्मध्यानं कारणसमयसारः । सदनन्तरं प्रथमशुक्लध्यानं द्विचत्वारिंशभेदरूपं पराश्रितं कार्यसमयसारः। तदाश्रितभेदज्ञानं कारणसमयसारः । तदाधारीभूत परान्मुखाकारस्वसंवेदनभेदरू कार्य समयसारः ।...स्वाश्रितस्वरूपनिरूपक भावनिराकाररूप सम्यग्द्रव्यश्रुतं कारणसमयसारः । तदेकदेशसमर्थो भावश्रुतं कार्यसमयसारः । ततः स्वाश्रितोपादेयभेदरत्नत्रयं कारणसमयसारः । तेषामेकरवावस्था कार्यसमयसारः...ततः स्वाश्रितधर्म ध्यान कारणसमयसारः । ततः प्रथमशुक्लध्यान कार्य समयसारः । ततो द्वितीयशुक्लध्यानाभिधानकं क्षीणकषायस्य द्विचरमसमयपर्यन्त कार्यपरम्परा कारणसमयसारः । एवमप्रमत्तादि क्षीणकषायर्यतं समय समय प्रति कारण कार्यरूपं ज्ञातव्यम्। -आगमके आधारपर सकल समयसारके अर्थको ग्रहण करके, पराश्रितरूपसे उपादेयभूत तथा बाच्यवाचक रूपसे भेदको प्राप्त पंचपरमेष्ठीके वाचक शब्दों के आश्रित
म. प्र./३३/७३ समेल्यावसरावेक्षास्तिष्ठन्त्यस्मिन सुरासुराः। इति तज्जैनिरुक्तं तत्सरण समवादिकम् ।७३। - इसमें समस्त मर और असुर आकर दिव्यध्वनि के अवसरकी प्रतीक्षा करते हुए बैठते हैं, इसलिए जानकार गणधरादि देवोंने इसका समवसरण ऐसा सार्थक नाम कहा है ७३॥
२. समवसरणमें अन्य केवली- आदिके उपदेश देनेका
स्थान ह.पु./५७/८६-८१ ततः स्तम्भसहस्रस्थो मण्डपोऽस्ति महोदयः । नाम्ना मूर्तिमतिर्यत्र वर्तते श्रुतदेवता।६। तां कृत्वा दक्षिणे भागे धीरहु
भा०४-४२
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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