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सत्त्व काल
सद्भाव स्थापना
१९. अनुमाग सत्त्वको ओघ आदेश प्ररूपणा सम्बन्धी सूची-क., पा./
क.
पा./
पु.
स
प्रकृति
विषय
सत्त्व स्थान
भुजगारादि पद
संरख्यात भागादि ज. उ. वृद्धि हानि ।
वृद्धि
सामान्य सत्कर्म
हतसमु.
मोह । मूल
समुत्कीर्तना
१६२-१६४ १०७-१०८
१६६-१७०
११२-११३
१८६ १२५-१२७
८२-६७
भंगविचय
१५१ ६६-१०१
१७७
उत्तर समुत्कीर्तना
१६६-२२३ १३५-१५५
४७१-४७३ २७३-२७५
५३१-५३५
३०७
भंगविचय
३२५-३४५ २१३-२२१
४७-४८६ २८६-२८८
५४५-५४७
३१६
"
सन्निकर्ष
४१८-४२७ २४६२५६
सत्कर्म
१८६-१६५ १२६-१३५
५७०-६२७ ३३०-३६०
सत्त्व काल-दे. काल/१/१ । सत्त्व भावना-दे. भावना/१।
सत्त्वस्थान त्रिभंगी-आ.कनकनन्दि ( ई.३३६) कृत ५० गाथा, प्रमाण कम विषयक अन्य। (जै./२/३८४)।
कुटुम्ब बीसपन्थी था, पर ये स्वयं तेरापन्थी थे। इनके गुरुका नाम 4.मुन्नालाल था। इनके पं. पन्नालाल संघी, नाथूलाल जो दोशी, पं. पारसदास जी निगोत्या सहपाठी थे। इनको विरागकी इतनी रुचि थी कि इन्होंने राजकीय संस्था से ८) मासिककी बजाय ६) मासिक लेना स्वीकार किया था। ताकि २ घण्टे शास्त्र स्वाध्यायके लिए मिल जाये। कृति-भगवती आराधनाकी भाषा वचनिका, नाटक समयसार टीका, तत्त्वार्थ सूत्रकी लघु टी., रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी टीका, अकलंक स्तोत्र, मृत्यु महोत्सव, नित्य नियम पूजा संस्कृतको टीका.तथा आरावासी पं.परमेष्ठीदासकृत अथं प्रकाशिकाका शोधन तथा उसमें ४००० श्लोकों की वृद्धि की। समय--- जन्म वि. १८५२, समाधि वि१९२३(ई. १७६५-१८६६)।
(ती./४/२६४)
सदरचउक-गो क./भाषा./११३/१००/- तिथंचगति, तियंचगत्यानुपूर्वी, तियंचायु और उद्योत इन चार प्रकृतिनिको सदर चउक
कहिए । सदवस्था रूप उपशम-दे. उपशम/१। सदाशिव तत्त्व-दे. शैवदर्शन । सदाशिवमत-सांख्य दर्शन-दे. सांख्य । सदासुखदास-जयपुर निवासी एक विरक्त पण्डित थे। दिगम्बर
आम्नायमें थे। पिताका नाम दुलीचन्द था। काशलीवाल गोत्रीय थे। वंशका नाम 'डेडराज था। इनका जन्म वि. १८५२ में हुआ था। राजकीय स्वतन्त्र संस्था (कापडद्वारे) में कार्य करते थे।
सदश-१. एक ग्रह-दे, ग्रह । २.पं. ध/प्र. ३२७ जीवस्य यथा ज्ञानं
परिणामः परिणमस्तदेवेति । सशस्योदाहृतिरितिजातेरनतिक्रमस्वतो वाच्या ।३२७१ - जैसे जीवका ज्ञानरूपपरिणामतेपरिणमन करता हुआ प्रतिसमय ज्ञानरूप ही रहता है। यही ज्ञानत्व जातिका उल्लंघन न करनेसे सदृशका उदाहरण है।
सदाव स्थापना-नापाका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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