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सन्निवेश
सप्त भंगी
३. चतुः संयोगी
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भंग निर्देश
विवरण
औप+क्षा+क्षयो+पारि. | उपशान्त लोभ क्षायिक सम्यग्दृष्टि
पञ्चेन्द्रिय और जीव २ औद.+क्षा, +क्षयो+पारि. मनुष्य क्षीणकषाय मतिज्ञानी और
भव्य ३/ औद. + औप+ क्षयो+ पारि मनुष्य उपशान्त वेद श्रुतज्ञानी और
जीव ४ औद, + औप+क्षा.+पारि मनुष्य उपशान्तरागक्षायिक सम्य
ग्दृष्टि और जीव ६ औद.+औप+क्षा.+क्षयो. मनुष्य उपशान्त मोह क्षायिक
सम्यग्दृष्टि और अवधिज्ञानी
इतना है कि यहाँ १६ की बजाय । उपवासोंसे प्रारम्भ करना। एक मारह से १ तक और इससे आगे ३ बार ८ से १ तक-एक हानि क्रमसे कुल १५३ उपवास करे। बीचके ३३ स्थानों में एक-एक पारणा करे। जघन्य-ह.पु./३४/८८ क्रमशः ५.४.३,२,१९४.३,२.१.४,३,२,१, ४.३, २.१ इक प्रकार ४५ उपवास करे। बीचके १७ स्थानों में एक-एक पारणा करे । तथा तीनों ही विधियों में नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (बतविधान संग्रह/१६)। सप्त गोदावर-भरतक्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी नदी-दे. मनुष्य/४ । सप्त तस्व-दे, तत्त्व । सप्ततिका-३ परिशिष्ट । सप्ततिका चूर्णी-दे. चूर्णी सप्तपारा-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी नदी-दे. मनुष्य/४ । सप्तभंगी-प्रश्नकारके प्रश्नवश अनेकान्त स्वरूप वस्तुके प्रतिपादनके सात ही भंग होते हैं। न तो प्रश्न सातसे हीन या अधिक हो सकते हैं और न ये भंग हो । उदाहरणार्थ-१. जीव चेतन स्वरूप हो है, २ शरीर स्वरूप बिलकुल नहीं; ३ क्योंकि स्वलक्षणरूप अस्तित्व परकी निवृत्तिके बिना और परको निवृत्ति स्व लक्षणके अस्तित्त्वके बिना हो नहीं सकती है; ४ पृथक या कमसे कहे गये ये स्वसे अस्तित्व और परसे नास्तित्व रूप दोनों धर्म वस्तुमें युगपत् सिद्ध होनेसे वह अवक्तव्य है; ५ अवक्तव्य होते हुए भी वह स्वस्वरूपसे सत है; अवक्तव्य होते हुए भी वह परसे सदा व्यावृत्त ही है; ७ और इस प्रकार वह अस्तित्व, नास्तित्व, व अवक्तव्य इन तीन धर्मोके अभेद स्वरूप है । इस अवक्तव्यको वक्तव्य बनानेके लिए इन सात बातोंका क्रमसे कथन करते हुए प्रत्येक वाक्यके साथ कथंचित वाचक 'स्याव' शब्दका प्रयोग करते हैं जिसके कारण अनुक्त भी शेष छह बातोंका संग्रह हो जाता है, और साथ ही प्रत्येक अपेक्षाके अवधारणार्थ एवकार का भी । स्यात् शब्द सहित कथन होने के कारण यह पद्धति स्याद्वाद कहलाती है।
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४.पंच भाव संयोगी औद.+औप.+क्षा,+क्षयो.+ पारि-मनुष्य उपशान्तमोह क्षायिक
सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय जीव । सन्निवेश-ध. १३/११.६३/३३६/२ विषयाधिपस्य अवस्थानं संनि
वेशः।- देशके स्वामीके रहनेके स्थानका नाम सन्निवेश है। सन्नीरा-भरत क्षेत्रस्थ मध्य आर्य खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४। सन्मति-१.भगवान महावीरका अपर नाम था-दे. महावीरः २.
द्वितीय कुलकर थे-दे. शलाका पुरुष/8 | सन्मति कीति-समति कीतिका अपरनाम था-दे. सुमतिकीर्ति। सम्मतिसूत्र-आचार्य सिद्धसैन दिवाकर (वि.६२५) द्वारा रचित' तत्त्वार्थ विषयक संस्कृत भाषाबद्ध ग्रन्थ । यह दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों को मान्य है। दिगम्बराचार्योंने अपने ग्रन्थों में उसकी गाथाएँ अपनी बातकी पुष्टिके अर्थ प्रमाण रूपसे उद्धृत की हैं---यथा क. पा. १/१-२०/गा, १३४-१४४/३५१-३६०। इसपर श्वेताम्बराचार्य श्री अभयदेव सूरि (ई. श. १०) ने एक टीका लिखी है। संन्यास मरण-दे, सहलेखना।
(ती./२/२१२। सपयो-दे, पूजा/१/१ याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर,
मख, मह यह सब पूजाविधिके नाम हैं। सप्तऋषि-प. पु./१२/श्लोक सं. प्रभापुर नगरके राजा श्री नन्दनके सात पुत्र थे-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्व मुन्दर, जयवान्, विनयलालस, और जयमित्र । (२-३.) प्रीतिकर महाराजके केवलज्ञानके अवसरपर देवोंके आगमनसे प्रतिबोधको प्राप्त हुए तथा पिता सहित सातोंने दीक्षा ले ली (५-६ )। उत्तम तपके कारण सातों भाई सप्तऋषि कहलाये (७)। उनके प्रभावसे ही मथुरा नगरी में चमरेन्द्र यक्ष द्वारा प्रसारित महामारी रोग नष्ट हुआ था। सप्त ऋषि पूजा-दे. पूजा । सप्त कुभ-ह. पु./१४/१० इसकी विधि तीन प्रकार कही गयी है
उत्तम, मध्यम व जघन्य । विधि-१. उत्तम-क्रमशः १६,१५,१४,१३, १२.११.१०,६,६,७,६१५,४.३.२.१९१५,१४,१३.१२,११,१०,६,८,७,६५०४, ३,२,१, १५,१४,१३.१२.११.१०,६८,७,६,५,४.३.२.१, १५.१४,१३.१२ ११.१०.६.८.७.६.५.४,३.२.१- इस प्रकार एक हानिक्रमसे एक बार १६ से१तक और इससे आगे ३ बार १५ से एक तक कुल ४६६ उपवास करे । बीचके (१) वाले ६१ स्थानों में सर्वत्र एक एक पारणा करे। २. मध्यम-ह./३४/८६ सर्वविधि उपरोक्त ही प्रकार है। अन्तर
सप्तमंगी निर्देश सप्तभंगीका लक्षण। सप्तभंगोंके नाम निर्देश। सातों भंगोंके पृथक्-पृथक् लक्षण । भंग सात ही हो सकते हैं हीनाधिक नहीं। दो या तीन ही भंग मूल हैं। सात भंगीमें स्यात्कारकी आवश्यकता
-दे. स्याद्वाद/५ सप्तभंगीमें एवकारकी आवश्यकता - दे. एकान्त/२ । सापेक्ष ही सातों भंग सम्यक् हैं निरपेक्ष नहीं
-दे. नय/II/७। स्यात्कारको प्रयोग कर देनेपर अन्य अंगोंकी क्या
आवश्यकता। सप्तभंगोका प्रयोजन -दे. अनेकान्त/३॥ प्रमाण नय सप्तभंगी निर्देश प्रमाण वनय सप्तभंगीके लक्षण व उदाहरण । प्रमाण व नय सप्तभंगी सम्बन्धी विशेष विचार
-दे. सकलादेश व विकलादेश । प्रमाण सप्तभंगीमें हेतु। प्रमाण व नय सप्तभंगीमें अन्तर ।
भा०४-४०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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