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सप्तभंगी
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४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश
न स्यात् सर्वकालसंबन्धित्वात मृद्धद्रव्यवत् ।...तथा, यथा नवत्वेन तथा पुराणत्वेन, सर्व रूपरसगन्धस्पर्शसंख्यासंस्थानादित्वेन वा स्यादः तथा चासौ घट एव न स्यात सर्वथा भावित्वात भवनवत् । जो अस्ति है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे ही है, इतर द्रव्यादिसे नहीं, क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं। जैसे घड़ा पार्थिव रूपसे, इस क्षेत्रसे. इस कालकी दृष्टिसे तथा अपनी वर्तमान पर्यायोंसे अस्ति है अन्यसे नहीं, क्योंकि वे अप्रस्तुत हैं।...यदि घड़ा पार्थिवत्वकी तरह जलादि रूपसे भी अस्ति हो जाये तो जलादि रूप भी होनेसे वह एक सामान्य द्रव्य बन जायेगा न कि घड़ा। यदि इस क्षेत्रकी तरह अन्य समस्त क्षेत्रों में भी घड़ा 'अस्ति' हो जाये तो वह घड़ानहीं रह पायेगा किन्तु आकाश बन जायेगा। यदि इस कालकी तरह अतीत अनागत कालसे भी वह 'अस्ति' हो तो भी घड़ा नहीं रह सकता किन्तु त्रिकालानुयायी होनेसे मृद द्रव्य बन जायेगा। इसी तरह जसे वह नया है उसी तरह पुराने या सभी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संस्थान आदिकी दृष्टिसे भी 'अस्ति' हो तो वह घड़ा नहीं रह जायेगा किन्तु सर्वव्यापी होनेसे महासत्ता बन जायेगा।
४. नास्तित्व मंगकी सिद्धि में हेतु श्लो, वा./२/१/६/१२/४१७/१७ कचिदस्तित्वसिद्धिसामर्थ्यात्तस्यान्यत्र नास्तित्वस्य सिद्धेर्न रूपान्तरस्वमिति चेत् व्याहतमेतत् । सिद्धौ सामर्थ्यसिद्धच न रूपान्तरं चेति कथमवधेयं कस्यचिव कचिन्नास्तिस्वसामर्थ्याच्चास्तित्वस्य सिद्धेस्ततो रूपान्तरत्वाभावप्रसगात् । - प्रश्न -अस्तित्व के सामर्थ्य से उसका दूसरे स्थलोंपर नास्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है, अतः अस्तित्व और नास्तित्व ये दो भिन्न स्वरूप नहीं हैं। उत्तर-यह व्याघात दोष है कि एककी
सिद्धिपर अन्यतरको सामर्थ्यसे सिद्धि कहना और फिर उनको - भिन्न स्वरूप न मानना । (स्या. म../१६/२००/१२)। पं.ध./पू./श्लोक सं. अस्तीति च वक्तव्यं यदि वा नास्तीति तत्त्व संसिद्ध्यै । नोपादान पृथगिह युक्तं तदनर्थकादिति चेव ।२६०॥ तन्ने यतः सर्वस्व तदुभयभावाध्यवसितमेवेति। अन्यतरस्य विलोपे तदितरभावस्य निह्नवापत्तेः ।२६१न पटाभावो हि घटो न पटाभावे घटस्य निष्पत्तिः । न घटाभावो हि पटः पटसर्गो वा घटव्ययादिति च ।२६७। तरिक व्यतिरेकस्य भावेन विनान्वयोऽपि नास्तीति ।२६८ तन्न यतः सदिति स्यादद्वैतं द्वैतभावभागपि च । तत्र विधौ विधिमात्र तदिह निषेधे निषेधमात्रं स्यात् ।२६१ प्रश्न-तत्त्व सिद्धिके अर्थ केवल अस्ति अथवा केवल नास्ति ही कहना चाहिए, क्योंकि दोनोंका मानना अनर्थक है अतः दोनोंका ग्रहण करना युक्त नहीं है।२६०। उत्तर--यह ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यका स्वरूप अस्ति नास्तिरूप भावसे युक्त है, इसलिए एकको माननेपर उससे भिन्नके लोपका प्रसंग प्राप्त होता है ।२६श प्रश्न-निश्चयसेन पटका अभाव घट है और न पटके अभावमें घटकी उत्पत्ति होती है। तथा न घटका अभाव पट है और न घट के नाशसे पटकी उत्पत्ति होती है ।२६७। तो फिर व्यतिरेकके सद्भाव बिना अन्वयको सिद्धि नहीं होती, यह कैसे ।२६। उत्तर-यह ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँपर सव द्वैत भावका धारण करनेवाला है तो भी अद्वैत ही है क्योंकि उस सत्र में विधि विवक्षित होनेपर वह सत केवल विधिरूप और निषेधमें केवल निषेध रूप प्रतीत होता है ।२६।। ५. नास्तित्व वस्तुका धर्म है तथा तद्गत शंका रा. वा./१/४/१५/२६/१५ कथमभावो निरूपाख्यो बस्तुनो लक्षणं भवति । अभावोऽपि वस्तुधर्मो हेत्वङ्गत्वादेः भाववत् । अतोऽसौ लक्षणं युज्यते। स हि वस्तुनो लक्षण न स्यात् सर्वसंकरः स्यात। प्रश्न-अभाव भी वस्तुका लक्षण कैसे होता है ? उत्तर-अभाव भी वस्तुका धर्म होता है जैसे कि विपक्षाभाव हेतुका स्वरूप है । यदि अभावको वस्तुका
स्वरूप ने माना जाये तो सर्व सांकर्य हो जायेगा क्योकि प्रत्येक वस्तुमें स्वभिन्न पदार्थोंका अभाव होता ही है। (रा. वा./४/४२/११
२५६/४)। स. भ. त./पृ./4. सं. ननु पररूपेणासत्त्वं नाम पररूपासत्त्वमेव । न हि
घटे पटस्वरूपाभावधटे नास्तीति वक्तुं शक्यम् । भूतले घटाभावे भूतले घटो नास्तीति वाक्यप्रवृत्तिवत घटे पटस्वरूपाभावे पटो नास्तीत्येव वक्तुमुचितत्वात | इति चेन्न-विचारासहत्वात् । घटादिषु पररूपासत्त्वं पटादिधर्मो घटधर्मो वा । नाद्यः, व्याघातात् । न हि पटरूपासत्त्वं पटेऽस्ति। पटस्य शून्यत्वापत्तेः । न च स्वधर्मः स्वस्मिन्नास्तीति वाच्यम्। तस्य स्वधर्मस्व विरोधाद। पटधर्मस्य घटाद्याधारकत्वायोगाच्च । अन्यथा वितानविवितानाकारस्यापि तदाधारकत्वप्रसंगाद । अन्त्यपक्षस्वीकारे तु विवादो विश्रान्तः। (८३/७) घटे पटरूपासत्त्वं नाम घटनिष्ठाभावप्रतियोगित्वम् । तच्च घटधर्मः। यथा भूतले घटो नास्तीत्यत्र भूतलनिष्ठाभावप्रतियोगित्वमेव भूतले नास्तित्वम् तच्च घटधर्मः। इति चेन्न; तथापि पटरूपाभावस्य घटधर्मत्वाविरोधात, घटाभावस्य भूतलधर्मत्ववत । तथा च घटस्य भावाभावात्मकत्वं सिद्धम् । कथं चित्तादात्म्यलक्षणसंबन्धेन संबन्धिन एव स्वधर्मत्वात (८४/३); नन्वेवं रीत्या घटस्य भावाभावात्मकत्वे सिद्धऽपि घटोऽस्ति पटो नास्तीत्येव वक्तव्यम् (८५/१); घटस्य भावाभावात्मकत्वे सिद्धेऽस्माकं विवादो विश्रान्तः समीहितसिद्धः। शब्दप्रयोगस्तु पूर्वपूर्वप्रयोगानुसारेण भविष्यति । न हि पदार्थ सत्ताधीनश्शब्दप्रयोगः (८५/७ ); घटादौ वर्तमानः पटरूपाभावो घटाद्भिन्नोऽभिन्नो वा । यदि भिन्नस्तस्यापि परत्वात्तदभावस्तन्न कल्पनीयः(८६/१) यद्यभिन्नस्तहि सिद्ध स्वस्मादभिन्नेन भावधर्मेण घटाकी सत्त्ववदभावधर्मेण तादृशेनासत्त्वमपि स्वीकरणीयमिति (८६/४);-प्रश्नपररूपसे असत्त्व नाम परकीय रूपका असत्व अर्थात दूसरे पट आदिका रूप घट में नहीं है। क्योंकि घटमें पट स्वरूपका अभाव होनेसे घट नहीं है ऐसा नहीं कह सकते किन्तु भूतल में घटका अभाव होनेपर भूतल में घट नहीं है, इस वाक्यकी प्रवृत्तिके समान घटमें पटके स्वरूपका अभाव होनेसे घट में पट नहीं है यह कथन उचित है ? उत्तर-नहीं, क्यों कि घट आदि पदार्थों में जो पट आदि रूपका असत्त्व है वह पट आदिका धर्म है अथवा घटका है, प्रथम पक्ष माननेपर पट रूपका ही व्याघात होगा, क्योंकि पटरूपका असत्त्व पट नहीं है। और स्वकीय धर्म अपने में ही नहीं है ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि तब तो स्वधर्मत्व इस कथनका ही विरोध हो जायेगा। और पटके धर्मका आधार घट आदि पदार्थ हो नहीं सकते, क्योंकि ऐसा माननेसे घट भी ताना-बाना का आधार हो जायेगा। पटरूप का असत्त्व भी 'घटका धर्म है ऐसा माननेपर तो विवादका ही विश्राम हो जायेगा (८३/७) । प्रश्न-घट में पटरूपके असत्त्वका अर्थ यह है कि घटमें रहनेवाला जो अन्य पदार्थोंका अभाव, उस अभावका प्रतियोगी रूप
और यह घटधर्म रूप होगा। जैसे भूतलमें घट नहीं है यहाँपर भूतल में रहनेवाला जो अभाव उस अभावकी प्रतियोगिता ही भूतल में नास्तिता रूप पड़ती है और प्रतियोगिता वा नोस्तिता घटका धर्म है ? उत्तरनहीं, क्योंकि, पटरूपका जो अभाव उसके घट धर्म होनेसे कोई भी विरोध नहीं है । जैसे कि भूतल में घटाभाव भूतलका धर्म है। इस रीतिसे घटके भाव-अभाव उभयरूप सिद्ध हो गये। क्योंकि किसी अपेक्षासे तादात्म्य अर्थाद-अभेद सम्बन्धसे सम्बन्धी हीको स्वधर्मरूपता हो जाती है (८४/३); प्रश्न-पूर्वोक्त रीतिसे घटकी भाव-अभाव उभयरूपता सिद्ध होनेपर भी घट है पट नहीं है ऐसा ही प्रयोग करना चाहिए, न कि घट नहीं है ऐसा प्रयोग (८/१)। उत्तर-घटके भाव-अभाव उभय स्वरूप सिद्ध होनेसे हमारे विवाद की समाप्ति है, क्योंकि उभयरूपता माननेसे ही हमारे अभीष्ट की सिद्धि है। और शब्द प्रयोग तो पूर्व-पूर्व प्रयोगके अनुसार होगा। क्योंकि शब्द प्रयोग पदार्थ की सत्ताके वशीभूत नहीं है। (८५/७ ) और भी घट आदिमें
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