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सप्तभंगी
(आदि) यह उपरोक्त बात योग्य नहीं है, क्योंकि सर्व वस्तु स्वरूपादिसे अशून्य हैं, पररूपादिसे शून्य हैं... ( आदि ) | (प्र.सा./ .प्र./९९५) (. २/४.१.४५/२९३/४ ) और भी दे न /1/५/२) ३. सामान्य विशेषकी अपेक्षा
रा.वा./४/४२/१३/२३-२५६२ मे ते सर्वसामान्येन तदभावेन च... आरमी अस्तीति सर्वप्रकारानाश्रयणादिच्छामशाद कल्पितेन सर्वसामान्येन वस्तुत्वेन अस्तीति प्रथमः । तत्प्रतिपक्षेणाभावसामान्येनावस्तुलेन मास्यात्मा इति द्वितीय: ।... विशिष्ट सामान्येन तदभावे च यथाश्रुत्वा श्रुत्युपासन आरमनेनाभिसंबन्धः ततश्चारमने अरवारमा इति प्रथमः यथाश्रुतमतियोगित्वात् अनात्मत्वेनैव नास्त्यात्मा इति द्वितीयः ।...... विशिष्टसामान्येन तदभावसामान्येन च यथासुतत्वात् आत्मत्वेने वास्तीति प्रथमः अभ्युपगमविरोधमा वस्वन्तरात्मना हिरमुदकज्वलनघटपटगुणकर्मादिना सर्वेण प्रकारेण सामान्यो नास्तीति द्वितीयः । विशिष्टसामान्येन तद्विशेषे च आत्मसामान्येनास्यात्मा । आत्मविशेषेण मनुष्यत्वेन नास्ति । ...... सामान्येन विशिष्टसामान्येन च - अविशेषरूपेण द्रव्यत्वेन अस्त्यात्मा । विशिष्टेन सामान्येन प्रतियोगिना नात्मत्वेन नास्त्यात्मा .....द्रव्यसामान्येन गुणसामान्येन च वस्तुनस्तथा तथा संभवात् तो तो विवक्षा माश्रित्य विशेषरूपेण द्रव्यत्वेनास्त्यात्मा, तत्प्रतियोगिनां विशेषरूपेण गुणत्वेन नास्यात्मा ......धर्मसमुदायेन सहपतिरेकेण पत्रकाराने सिद्धानादिधर्म समुदाय रूपेणात्मारितद्व तिरेकेण नास्त्यनुपलब्धेः । धर्म सामान्यसंबन्धेन सदभावेन च गुणरूपगत सामान्यसंबंधविनायो यस्य कस्यचिद धर्मस्य आश्रम
न अस्यात्मा न तु कस्यचिदपि धर्मस्याश्रयो न भवतीति धर्मसामान्यानात्वेनास्यात्मा...धर्मविशेषसंबन्धेन तदभावेन
अनेकधर्मणोऽन्यतमधर्मसंबन्धेन द्विपक्षेण वा विवक्षायास यथा अस्त्यात्मा नित्यत्वेन निरवयवत्वेन चेतनत्वेन वा तेषामेवान्यतमधर्मप्रतिपक्षेण नास्त्यात्मा । सप्त भंगीका निरूपण इस प्रकार होता है - १. सर्वसामान्य और तदभावसे 'आत्मा अस्ति' यहाँ सभी प्रकार - के अवान्तर भेदोंको विवक्षा न रहनेपर सर्व विशेष व्यापी सम्मात्रकी दृष्टिसे उसमें 'अस्ति' व्यवहार होता है और उसके प्रतिपक्ष अभाव सामान्यसे 'नास्ति' व्यवहार होता है । २. विशिष्ट सामान्य और तदभाव से आत्मा आत्मत्वरूप विशिष्ट सामान्यकी दृष्टिसे 'अस्ति' है और अनात्मत्व दृष्टिसे 'नास्ति' है ।... ३. विशिष्टसामान्य और तदभाव सामान्यसे । आत्मा 'आत्मत्व' रूपसे अस्ति है तथा पृथिवी जल, पट आदि सब प्रकार से अभाव सामान्य रूपसे 'नास्ति' है ।... ४. विशिष्ट सामान्य और तद्विशेषसे। आत्मा 'आत्मत्व' रूप से अस्ति है, और आत्म विशेष 'मनुष्यरूपसे' 'नास्ति' है । ५. सामान्य और विशिष्ट सामान्यसे । सामान्य दृष्टिसे द्रव्यश्व रूपसे आत्मा 'अस्ति' है और विशिष्ट सामान्य के अभावरूप अनात्मत्व से 'नास्ति' है । ६. द्रव्य सामान्य और गुण सामान्यसे । द्रव्यत्व रूपसे आत्मा 'अस्ति' है तथा प्रतियोगी गुणको दृष्टिसे 'नास्ति' है ७. धर्मसमुदाय और तद्वयतिरेकसे । त्रिकाल गोचर अनेक शक्ति तथा ज्ञानादि धर्म समुदाय रूपसे आत्मा 'अस्ति' है । तथा तदभाव रूपसे नास्ति है । ...८ - धर्म समुदाय सम्बन्ध से और उदभावसे । ज्ञानादि गुणोंके सामान्य सम्बन्ध की दृष्टिसे आत्मा 'अस्ति' है तथा किसी भी समय धर्म सामान्य सम्बन्धका अभाव नहीं होता अतः तदभावकी दृष्टिसे 'नारिय' है... धर्मविशेष सम्बन्ध और सदभावसे किसी विवक्षित धर्म के सम्बन्धकी दृष्टिसे आत्मा 'अस्ति' है तथा उसी के अभावरूपसे 'नास्ति' है । जैसे- आत्मा नित्यत्व या चेतनत्व किसी अमुक धर्म सम्बन्धसे 'अस्ति' है और विपक्षी धर्म से नास्ति है । सी.वा./२/१/६/२६/४६६/११)।
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४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश
स्या. म. / २३/२८२/७ यथा हि सदसत्वाभ्याम् एवं सामान्य विशेषाभ्यामपि देव स्यात् तथाहि स्यात्सामान्यस्, स्याह विशे...... इति । न चात्र विधिनिषेधप्रकारौ न स्त इति वाच्यम् । सामान्यस्य विधिरूपत्वाद विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकत्वात् । अथवा प्रतिपक्षशब्दत्वाद् यदा सामान्यस्य प्राधान्यं तदा तस्य विधिरूपता विशेषस्य च निषेधरूपता । यदा विशेषस्य पुरस्कारस्तदा तस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेधरूपता । जिस प्रकार सम्व अस की दृष्टिसे सप्त भंग होते हैं, उसी तरह सामान्य विशेषको अपेक्षा से भी स्यात् सामान्य स्यात् विशेष.....(आदि) सात भंग होते हैं। प्रश्न- सामान्य विशेषको सप्तभंगी में विधि और निषेध धर्मों की कल्पना कैसे बन सकती है 1 उत्तर- इसमें विधि निषेध धर्मोकी कल्पना बन सकती है। क्योंकि सामान्य विधि रूप है, और विशेष व्यवच्छेदक होनेसे निषेध रूप है। अथवा सामान्य और विशेष दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतएव जब सामान्यकी प्रधानता होती है उस समय सामान्यके विधिरूप होनेसे विशेष निषेध रूप कहा जाता है, और जब विशेषकी प्रधानता होती है, उस समय विशेषके विधिरूप होनेसे सामान्य निषेध रूप कहा जाता है ।
४. नयकी अपेक्षा
रा.वा./२/४२/१०/२६१/६ एते त्रयोऽर्थनया एकैकारमका संयुक्ताश्च सप्त वाक्प्रकारान् जनयन्ति । तत्राद्यः संग्रह एकः, द्वितीयो व्यवहार एकः, तृतीयः संग्रहव्यवहारावविभक्तौ चतुर्थ: संग्रहव्यवहारी समुचितौ, पञ्चमः संग्रहः संग्रहव्यवहारौ चाविभक्तौ । षष्ठो व्यवहारः संग्रव्यवहारी पाविभक्ती सप्तमः संग्रहव्यवहारी प्रचिती ती
विभक्ती एष खुत्रेऽपि योज्यः । ये तीनों (संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र ) अर्थनय मिलकर तथा एकाकी रहकर सात प्रकारके भंगों को उत्पन्न करते हैं। पहला संग्रह, दूसरा व्यवहार, तीसरा अविभक्त (युगपत् विवक्षित संग्रह व्यवहार चौथा समुचित (कमभिमत समुदाय ) संग्रह व्यवहार, पाँचवाँ संग्रह और अविभक्त संग्रह व्यवहार छठा व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार तथा सातवाँ समुदित संग्रह व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार इसी प्रकार ऋजुसूत्र नय भी लगा लेनी चाहिए ।
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५. अनन्त सप्त मंगियों की सम्भावना
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स्पा. न./२३/२८२ / २ नच वाच्यमे वस्तुनि विधीयमाननिषिध्य मानानन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तभङ्गी प्रसाद असते सप्तभङ्गीति । विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुनि अनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामेव सम्भवात् । प्रश्न- यदि आप प्रत्येक वस्तुमें अनन्तधर्म मानते हो, तो अनन्त भंगोंकी कल्पना न करके वस्तुमें केवल सात ही भंगों की कल्पना क्यों करते हो 1 उत्तर- प्रत्येक वस्तुमें अनन्तधर्म होनेके कारण वस्तु अनन्त भंग होते हैं । परन्तु ये अनन्त भंग विधि और निषेधकी अपेक्षासे सात ही हो सकते हैं ।
दे. सप्तभंगी/१/७ [ अस्ति नास्तिकी भांति इसके निरय-अनिश्य, एकअनेक, वक्तव्य - अवक्तव्य आदि धर्मोंमें भी सप्त भंगीकी योजना कर नी चाहिए। ]
४. अस्ति नास्ति भंग निर्देश
१. वस्तुकी सिद्धिमें इन दोनोंका प्रधान स्थान रा.वा./१/६/५/पृ.सं.
सं. स्वपरात्मोपादानापोव्यवस्थापाय हि सुनो वस्तु यदि स्वस्मित पटाद्यात्मव्यतिरिमतिर्न स्यात सर्वात्मना घट इति व्यपदिश्येत । अथ परात्मना व्यावृत्तावपि, स्वात्मोपादानविपरिणतिर्न स्यात् खरविषाणवदवस्श्वेव स्यात (३३/-' (२१) । यदीतरात्मनापि घटः स्यात् विवक्षितात्मना वाघटः नामादि
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