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सप्तभंगी
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३. अनेक प्रकारसे सप्तभंगी प्रयोग
इति वक्तुं युक्त सिद्धान्तविरोधात् । -तीन (प्रथम, द्वितीय तथा चतुर्थ भंग) ही नय वाक्य हैं और चार (तृतीय, पंचम, षष्ट, सप्तम भंग) ही प्रमाण वाक्य हैं, ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सिद्धान्तसे विरोध आता है।
५. नय सप्तभंगीमें हेतु दे. सप्तभंगी/२/१ में घ.VE 'स्याद् अस्ति' आदि ये सात वाक्य सुनय
बाक्य हैं, क्योंकि वे एक धर्मको विषय करते हैं। पं. घ./पू./६८२,६८८,६८६ यदनेकांशग्राहकमिह प्रमाणं न प्रत्यनीकतया। प्रत्युत मैत्रीभावादिति नयभेदाददः प्रभिन्नं स्यात् ।६८२ स यथास्ति च नास्तीति च क्रमेण युगपच्च वानयोर्भावः। अपि वा वक्तव्यमिदं नयो विकल्पानतिक्रमादेव ६८८। तत्रास्ति च नास्ति समं भङ्गस्यास्यैकधर्मता नियमात् । न पुनः प्रमाणमिव किल विरुद्धधर्मद्वयाधिरूढत्वम् ।६८६। -प्रमाण अनेक अंशोंको ग्रहण करनेवाला परस्पर विरोधीपनेसे नहीं कहा गया है किन्तु सापेक्ष भावसे कहा गया है। इसलिए संयोगी भंगात्मक नयोंके भेदसे भिन्न है ६८२ (नयविकल्पात्मक हैं ) जैसे विकल्पका उल्लंघन नहीं करनेसे ही क्रमपूर्वक अस्ति और नास्ति, अस्तिनास्तिक्रम पूर्वक एक साथ कहना यह भंग तथा यह अवक्तव्य भंग भी नय है ।६८८। उन भंगों में-से निश्चय करके एक साथ अस्ति और नास्ति मिले हुए एक भंगको नियमसे एक धर्मपना है किन्तु प्रमाणकी तरह विरुद्ध दो धर्मोको विषय करनेवाला नहीं है।
द्रव्यपर्याय विशेष, और द्रव्य पर्याय सामान्यकी युगपत विवक्षामें वही अबक्तव्य भी हो जाता है। इस तरह अस्ति नास्ति अवक्तव्य भंग बन जाता है। यह भी सकलादेश है। सर्वद्रव्योंको द्रव्य जातिकी अपेक्षासे एक कहा जाता है, तथा सर्व पर्यायोंको पर्याय जातिकी अपेक्षासे एक कहा जाता है। क्योंकि इसने विवक्षित धर्मरूपसे अखण्ड समस्त वस्तुका ग्रहण किया है। ध.४/१,४,१/१४५/१ दवपज्जवठ्ठियणए अणवलंबिय कहणोवायाभावादो। जदि एवं. तो पमाणवक्कस्स अभावो पसज्जदे इदि बुत्ते, होदु णाम अभावो, गुणप्पहाणभावमंतरेण कहणोवायाभात्रादो। अधवा, पमाणुप्पाइदं वयणं पमाणवक्कमुवयारेण बुच्चदे। -द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नयोंके अवलम्बन किये बिना वस्तु स्वरूपके कथन करनेके उपायका अभाव है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो प्रमाण वाक्यका अभाव प्राप्त होता है। उत्तर-भले ही प्रमाण वाक्यका अभाव हो जावे, क्योंकि, गौणता और प्रधानताके बिना वस्तु स्वरूपके कथन करनेके उपायका भी अभाव है। अथवा प्रमाणसे उत्पादित वचनको उपचारसे प्रमाण वाक्य कहते हैं ।
३. प्रमाण व नय सप्तभंगीमें अन्तर स्या. म./२८/३०८/४ सदिति उल्लेखनात नयः। स हि 'अस्ति घटः' इति घटे स्वाभिमतमस्तित्वधर्म प्रसाधयन् शेषधर्मेषु गज निमिलिकामालम्बते। न चास्य दुर्न यत्वम् । धर्मान्तरातिरस्कारात् । न च प्रमाणत्वम् । स्याच्छब्देन अलाब्छितत्वात् । स्यात्सदिति 'स्यात्कंथचित सद वस्तु' इति प्रमाणम् । प्रमाणत्वं चास्य दृष्टे याबाधितत्वाइ विपक्षे बाधकसभावाच्च । सर्वं हि वस्तु स्वरूपेण सत् पररूपेण चासद इति असकृदुक्तम् । सदिति दिङ्मात्रदर्शनार्थम् । अनया दिशा असत्त्वनित्यत्वानित्यत्ववक्तव्यत्वसामान्यविशेषादि अपि बोद्धव्यम् । -१. किसी वस्तुमें अपने इष्ट धर्मको सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर वस्तुके विवेचन करनेको नय कहते हैं-जैसे 'यह घट है। नयमें दुर्न यकी तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मोका निषेध नहीं किया जाता, इसलिए नयको दुर्न य नहीं कहा जा सकता। तथा नयमें स्यात शब्दका प्रयोग न होनेसे इसे प्रमाण भी नहीं कह सकते। २. वस्तुके नाना दृष्टियोंकी अपेक्षा कथं चित् सतरूप विवेचन करनेको प्रमाण कहते हैं. जैसे 'घट कथंचित् सत् है। प्रत्यक्ष और अनुमानसे अबाधित होनेसे और विपक्षका बाधक होनेसे इसे प्रमाण कहते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभावसे सत और दूसरे स्वभावसे असत् है, यह पहले कहा जा चुका है। यहाँ वस्तुके एक सव धर्मको कहा गया है। इसी प्रकार असद, नित्य, अनित्य, वक्तव्य, अवक्तव्य, सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्म समझने चाहिए। स्या, म./२८/३२१/१ स्याच्छन्नलाञ्छितानां नयानामेव प्रमाणव्यपदेश
भाक्त्वाव । -नय वाक्यों में स्यात् शब्द लगाकर बोलनेवालेको प्रमाण कहते हैं। पं.का./ता, वृ/११/३२/१६ स्पादस्ति द्रव्यमिति पठनेन वचनेन प्रमाणसप्तभङ्गी ज्ञायते। कथमिति चेत् । स्यादस्तोति सकलवस्तुग्राहक. स्वात्त्रमाणवाक्यं स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वान्नयन वाक्यम् । -'द्रव्य कथंचित है' ऐसा कहनेपर प्रमाण सप्तभंगी जानी जाती है क्योंकि, 'कथं चित है' यह वाक्य सकल वस्तुका ग्राहक होने के कारण प्रमाण वाक्य है। 'द्रव्य कथं चित है हो' ऐसा कहनेपर यह वस्तुका एकदेश ग्राहक होनेसे नय वाक्य है। दे. विकलादेश केवल धर्मी विषयक बोधजनक वाक्य सकलादेश, तथा केवल धर्म विषयक बोधजनक वाक्य नय है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्यों कि धर्मी और धर्म दोनों स्वतन्त्र रूपसे नहीं रहते हैं।
४. सप्तमंगोंमें प्रमाण व नयका विभाग युक्त नहीं स. भ. त/R/हन च वीण्येव नयवास्यानि चत्वार्यत्र प्रमाणवाक्यानि
३. अनेक प्रकारसे सप्तभंगी प्रयोग
१. एकान्त व अनेकान्तकी अपेक्षा रा. वा./04/६/३५/१७-२२ अनेकान्ते तदभावादव्याप्तिरिति चेत; न; तत्रापि तदुपपत्तेः ।६।...स्यादेकान्तः स्यादनेकान्तः इति । तत्कथमिति चेतः । -प्रश्न-अनेकान्तमें सप्तभंगीका अभाव होनेसे 'सप्तभंगीकी योजना सर्वत्र होती है। इस नियमका अभाव हो जायेगा। उत्तर-ऐसा नहीं है, अनेकान्तमें भी सप्तभंगीकी योजना होती है। ...यथा-'स्यादेकान्तः', स्यादनेकान्तः...इत्यादि'। क्योंकि (यदि अनेकान्त अनेकान्त ही होवे तो एकान्तका अभाव होनेसे अनेकान्तका अभाव हो जावेगा और यदि एकान्त ही होवे तो उसके अविनाभावि शेष धर्मोंका लोभ होनेसे सब लोप हो जावेगा। (दे.
अनेकान्त/२/५)। स.भ../७५/१ सम्यगेकान्तसम्यगनेकान्तावाश्रित्य प्रमाणनयार्पणाभेदात, स्यादेकान्तः स्यादनेकान्तः...सप्तभङ्गी योज्या । तत्र नयार्पणादेकान्तो भवति, एकधर्मगोचरत्वान्नयस्य । प्रमाणादनेकान्तो भवति, अशेषधर्मनिश्च यात्मकत्वात्प्रमाणस्य ।- सम्यगेकान्त और सम्यगनेकान्तका आश्रय लेकर प्रमाण तथा नयके भेदकी योजनासे किसी अपेक्षासे एकान्त, किसी अपेक्षासे अनेकान्त.. (आदि)। इस रीतिसे सप्तभंगीकी योजना करनी चाहिए। उसमें नयकी योजनासे एकान्त पक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि नय एक धर्मको विषय करता है। और प्रमाण की योजनासे अनेकान्त सिद्ध होता है, क्योंकि प्रमाण सम्पूर्ण धर्मों को विषय करता है।
२. स्व-पर चतुष्टयकी अपेक्षा पं. का./त. प्र./१४ तत्र स्वद्रव्यक्षेत्रकालभारादिष्टमस्ति द्रव्यं, परद्रव्यक्षेत्रकालभारादिष्टं नास्ति द्रव्यं...इति ।न चैतदनुपपन्नमः सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपादिना अशून्यत्वात्, पररूपादिना शून्यत्वात.. इति । - द्रव्य स्वद्रव्य क्षेत्र काल-भावसे कथन किया जानेपर 'अस्ति' है। द्रव्य परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे कथन किया जानेपर 'नास्ति' है....
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