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श्रेणी
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२. क्षपक श्रेणी निर्देश
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क्षपक श्रेणीसे तद्भव मुक्तिका नियम ।
-दे. अपूर्व करण/४। क्षपक श्रेणीमें आयुकर्मकी प्रदेश निर्जरा ही होती है।
-दे. निर्जरा/३/२। | उपशम श्रेणी निर्देश
चारित्र मोहका उपशमन विधान। -दे. उपशम।। यदि मरण न हो तो ११वाँ गुणस्थान अवश्य प्राप्त होता है।
-दे. अपूर्व करण/४। उपशम व क्षायिक दोनों सम्यक्त्वमें सम्भव है। उपशम श्रेणीसे नीचे गिरनेका नियम । उपशान्त कषायसे गिरनेका कारण व विधान । उपशम श्रेणीमें मरण सम्भव है, मरकर देव ही होता है।
-दे. मरण/३। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसे सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति सम्बन्धी दो मत।
-दे, सासादन/२। गिरकर असंयत होनेवाले अल्प हैं। अधिकसे अधिक उपशम श्रेणी मांडनेकी सीमा।
--दे. संयम/२। | पुन: उसी द्वितीयोपशमसे श्रेणी नहीं मांड सकता है। गिर जानेपर भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त द्वितीयोपशम सम्यक्त्व रहता है।
-दे. मरण/३/
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गणरायमच्च-तलवर-पुरोहिया दप्पिया महामत्ता। अठारह सेणीओ पयाइणामीलिया होति ।३८०-घोड़ा, हाथी, रथ, इनके अधिपति, सेनापति, मन्त्री, श्रेष्ठी, दण्डपति, शुद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, महत्तर, गणराज, अमात्य, तलवर, पुरोहित, स्वाभिमानी, महामात्य और पैदल सेना. इस तरह सब मिलाकर अठारह श्रेणियाँ होती है। ३७-३८। ३. आकाश प्रदेशोंका श्रेणी-निर्देश स. सि./२/२६/१८३/७ लोकमध्यादारभ्य ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च आकाशप्रदेशानां क्रमसनिविष्टानां पक्तिः श्रेणी इत्युच्यते। -लोकमध्यसे लेकर ऊपर नीचे और तिरछे क्रमसे स्थित आकाश प्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणी कहते हैं । (रा. वा./२/२६/१/१३७/१६ ); (ध. १/१,१,६०/३००/४)। ध. १/४,१,४५/२२३/३ पटसूत्रवच्चर्मावयववद्वानुपूबिणोधिस्तिर्य
व्यवस्थिताः आकाशप्रदेशपङ्क्तयः श्रेणयः । वस्त्र तन्तुके समान ..अथवा चमके अवयवके समान अनुक्रमसे ऊपर नीचे और तिरछे रूपसे व्यवस्थित आकाश प्रदेशोंकी पंक्तियाँ श्रेणियाँ कहलाती है।
४. श्रेणिबद्ध विमान व बिल द्र.सं./टो /११६/१. विदिक्चतुष्टये प्रतिदिशं पक्तिरूपेण यानि... विलानि ( विमानानि वा)... तेषामत्र श्रेणीमद्धसंहा। -चारों मिदिशाओं में से प्रत्येक विदिशामें पंक्ति रूप जो...मिल ( अथवा विमान ) हैं.. उनकी श्रेणीबद्ध संज्ञा है। त्रि. सा./पं, टोडरमल/४७६ पटल-पटल प्रति तिस इन्द्रक विमानकी पूर्वादिक च्यारि दिशानिवि जे पक्तिबंध विमान ( अथवा मिल ) पाईए तिनका नाम श्रेणीबद्ध विमान है।
विशेष दे० नरक/५/३: स्वर्ग!५/३.६ । ५. उपशम व क्षपक श्रेणीका लक्षण रा. वा./६/१/१८/५६०/१ यत्र मोहनीयं कर्मोपशमयन्नारमा आरोहति सोपशमकश्रेणी। यत्र तत्क्षयमुपगमयन्नुगच्छति सा क्षपकश्रेणी।
जहाँ मोहनीयकर्मका उपशम करता हुआ आत्मा आगे बढता है वह उपशम श्रेणी है, और जहाँ क्षय करता हुआ आगे जाता है वह क्षपक श्रेणी है। ६. उपशम व क्षपक श्रेणीमें गुणस्थान निर्देश रा. वा./६/१/१८/५६०/७ इत ऊध्र्व गुणस्थानानां चतुर्णा द्वे श्रेण्यौ भवतः-उपशमकश्रेणी क्षपकश्रेणी चेति। इसके (अप्रमत्त संयतसे) आगेके चार गुणस्थानोंकी दो श्रेणियों हो जाती है-उपशमश्रेणी. और क्षपकश्रेणी। (गो. क./जी.प्र./३३६/४८७/८)।
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१. श्रेणी सामान्य निर्देश
१. श्रेणी प्ररूपणाके भेद व भेदोंके लक्षण प, वं./११/४,२,६/सू. २५२ व टी./३५२ तेसि दुविधा सेडिपरूवणा
अणं तरोवणिधा परंपरोवणिधा ।२५२। जत्थ णिरंतर थोरबहुत्तपरिक्खा कीरदे सा अणं तरोधणिधा। जत्थ दुगुण-चदुगुणादि परिक्खा कीरदि सा परंपरोवणिधा। -श्रेणीप्ररूपणा दो प्रकार की हैअनन्तरोपनिषा और परम्परोपनिधा ।२५२१ (ध. १०/४,२,४,२८/ ६३/१) जहाँ पर निरन्तर अल्पमहत्वकी परीक्षा की जाती है वह अनन्तरोपनिधा कही जाती है। जहाँपर दुगुणत्व और चतुर्गणत्व आदिकी परीक्षा की जाती है वह परम्परोपनिधा कहलाती है।
२. राजसनाकी १८ श्रेणियोंका निर्देश ति.प./२/४३-४४ करितुरयरहाहिबई सेणबईपदत्तिसेठ्ठिदंडवई। सुद्दवत्तियवइसा हवं ति तह महयरा पवरा ।४३। गणरायमंतितलवरपुरोहियामत्तयामहामत्ता। बहुविह पइण्णया य अट्ठारस होति सेणोओ।४४। -हस्ती, तुरग ( घोड़ा), और रथ, इनके अधिपति, सेनापति, पदाति ( पादचारीसेना), श्रेष्ठि ( सेठ ), दण्डपति, शुद्र, क्षत्रिय, वैश्य, महत्तर, प्रवर अर्थात ब्राह्मण, गणराज, मन्त्री, तलवर ( कोतवाल ), पुरोहित, अमात्य और महामात्य, वह बहुत प्रकारके प्रकीर्णक ऐसी अठारह प्रकारकी श्रेणियाँ हैं ।४३-४४। (ध.१/१,१,१/
गा. ३६/५७)। घ. १/१,१,१/गा. ३७.३८/५७-य-हत्थि-रहाण ह्विा सेणाकइ-मंति. सेठि-दंडवई । सुद-कवत्तिय बम्हण-बइसा तह महयरा चेव ।३७
२. क्षपक श्रेणी निर्देश
१. अबद्धायुष्कको ही क्षपक श्रेणीकी सम्भावना घ. १२/४,२ १३.६२/४१२/८ भद्धाउआणं खवगसेडिमारुहणाभावादो।
-बद्घायुष्क जीवों के क्षपक श्रेणिपर आरोहण सम्भव नहीं है। गो, क./जी.प्र./३३६/४७/८ चतुर्गणस्थानेष्वेकत्र क्षपितत्वान्नरकतिर्यग्देवायुषां चाबद्धायुष्कत्वेनासत्वात् । जिसने असंयतादिक गुणस्थानमेंसे किसी एकमें (प्रकृतियोंका) क्षय किया है, और देव, तियंच और नरकायुका जिसके सत्त्व न हो. और जिसके आयुबन्ध नहीं हुआ हो वही क्षपक श्रेणिको मांडता है।
२. क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही माँड सकता है घ.१/१.१.१६/१८२/६ सम्यक्त्वापेक्षया तु क्षपकस्य क्षायिको वा भावः दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपक श्रेण्यारोहणानुपपत्तः। -सम्यक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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