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ससार
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२. पंच परिवर्तनरूप संसार निर्देश
२. परक्षेत्र बा. अणु./२६ सय मिह लोयखेत्ते. कमसो तणस्थि जण्ण उप्पण्णं । उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारं ।२६। क्षेत्र परिवर्तनरूप संसारमें अनेकवार भ्रमण करता हुआ यह जीव तीनों लोकों में सम्पूर्ण क्षेत्र में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँपर अपनी अवगाहना वा परिणामको लेकर उत्पन्न न हुआ हो। (भा. पा./मू./२१); (स.सि./ २/१० पर उद्धृत'; (प.प्र././६५/प्रक्षेपक); (ध. ४/९.५,४/गा. २३/३३३ ): ( का, अ./मू./२८): (द्र.सं./टो./३५/१०३/७)। स. सि /२/१०/१६५/१३ क्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते-सूक्ष्मनिगोदजीबोउपर्याप्तकः सर्वजघन्यप्रदेशशरोरो लोकस्याष्टमध्यप्रदेशान् स्वशरीरमध्ये कृत्वोत्पन्नः क्षुद्रग्रहणं जीवित्वा मृतः । स एव पुनस्तेनैवाबगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथात्रिस्तथा चतुरित्येवं यावद् घनाङ्गुलत्यासंख्येयभागप्रमिताकाश प्रदेशास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जनित्वा पुनरेकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्बो लोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुपनीतो भवति यावत्तावरक्षेत्रपरिवर्तनम् । - जिसका शरीर आकाशके सबसे कम प्रदेशोपर स्थित है, ऐसा एक सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकजीव लोकंके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्यमें करके उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण कालतक जीवित रहकर, मर गया। पश्चाद वही जीव पुनः उसी अवगाहनासे वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुलके असंख्यातवें भागमें आकाशके जितने प्रदेश प्राप्त हों उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुनः उसने आकाशका एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोकको अपना जन्म क्षेत्र बनाया। इस प्रकार वह सब मिलकर एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है । (गो. जी./जी. प्र./५६०/६१२/२),
५. काल परिवर्तन निर्देश बा. अणु./२७ अवसप्पिणि उस्सप्पिणि समयावलियासु णिरबसेसासु । जादो मुदो य बहुसो परिभमिदो कालसंसारे। - काल परिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके सम्पूर्ण समयो और आवलियों में अनेक बार जन्म धारण करता है और मरता है। (भा. पा./मु./३६); (स. सि /२/१०/१६६ पर उधृत); (ध,४/१,५,४/गा. २४/३३३); (का. अ./म् /48); (द्र. सं./टी./
३५/१०३/४)। स.सि./२/१०/१६६/६ कालपरिवर्तनमुच्यते-उत्सपिण्याः प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीवः स्वायुषः परिसमाप्तौ मृतः। स एव पुनर्वितीयाया उत्सपिण्या द्वितीयसमये जातः स्वायुषक्षयान्मृतः । स एव पुनस्तृतीयाया उत्सपिणमारतृतीयसमये जातः। एवमनेन क्रमेणोत्सर्पिणी परिसमामा । तथावसर्पिणी च । एवं जन्मनै रन्तर्यमुक्तम् । मरणस्यापि नैरन्तयं तथैव ग्राह्यः । एतावत्काल परिवर्तनम्। -कोई जीव उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ और आंयुके समाप्त हो जानेपर मर गया । पुनः वही जीव दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ और अपनी आयुके समाप्त होनेपर मर गया। पुनः वही जीव तीसरी उत्सपिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ इस प्रकार इसने क्रमसे उत्सर्पिणी समाप्त की और इसी प्रकार अबसपिणी भी। यह जन्म नैरन्तर्य कहा। तथा इसी प्रकार मरणका भी नैरन्तर्य लेना चाहिए। यह सब मिलकर एक कालपरिवर्तन है। (गो. जी./जी, प्र./५६०/६६२/१२)।
६. भव परिवर्तन निर्देश बा. अणु./२८ णिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उपरिल्ल वा (गा) दुगेवेज्जा मिच्छत्तसंसिदेंण दु बहुसो वि भवहिदीभमिदा ।२८। इस मिथ्यात्व संयुक्त जीवने नरककी छोटी से छोटी आयु लेकर ऊपरके प्रै बेयक विमान तककी आयु क्रमसे अनेक बार पाकर भ्रमण किया है । (भा. पा./म./२४); (स.सि./२/१०/१६७ पर उदधृत ) (4.४/
१,५,४/गा, २५/३३३); ( का. अ./म्./७०); (द्र.सं./टी./१३/१०४/१)। स. सि./२/१०/१६७/१ नरकगतौ सर्वजधन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तेनायुषा तनोत्पन्नः पुनः परिभ्रम्य तेनैवायुषा जातः । एवं दशवर्ष सहसाणा यावन्तः समयास्तावत्कृत्वस्तत्रैव जातो मृतः। पुनरेकै कसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य तिर्यग्गताबन्तर्मुहूर्तायुः समुत्पन्नः। पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त्रीणि पत्योपमानि तेन परिसमाप्तानि । एवं. मनुष्यगतौ च । देवगतौ च नारकवदं । अयं तु विशेष:-एकत्रिशत्सागरोपमाणि परिसमाप्तानि यावत्ताबद भवपरिवर्तनम् । नरकगतिमें सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है। एक जीव उस आयुसे वहाँ उत्पन्न हुआ पुनः घूमफिरकर पुनः उसी आयुसे वहाँ उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय है उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मर गया। पुनः आयुमैं एक-एक समय बढाकर नरककी तेतीस सागर आयु समाप्त की। तदनन्तर नरकसे निकलकर अन्तर्मुहूर्त आयुके साथ तिथंच गति में उत्पन्न हुआ। और पूर्वोक्त क्रमसे उसने तिच गतिकी तीन पत्य आयु समाप्त की। इसी प्रकार मनुष्य गतिमें अन्तर्मुहूर्त में लेकर तीन पस्य आयु समाप्त की। तथा देवगतियोंमें नरक गतिके समान आयु समाप्त की। किन्तु देवगतिमें इतनी विशेषता है कि यहाँ ३१ सागर आयु समाप्त होने तक कथन करना चाहिए। [ क्योंकि ऊपर नव अनुदिश आदिके देव संसारमें भ्रमण नहीं करते ] इस प्रकार यह सब मिलकर एक भवपरिवर्तन है। (गो. जी./जी.प्र./ ५६०/६६२/२०)।
७. भाव परिवर्तन निर्देश बा, अनु./२६ सव्वे पय डिविदिओ अणुभागप्पदेसबंधट्टाणाणि । जीवों मिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ।२६।- इस जीवने मिथ्यात्वके वशमें पड़कर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध के कारणभूत जितने प्रकारके परिणाम बा भाव हैं, उन सबका अनुभव करते हुए भाव परिवर्तनरूप संसार में अनेक बार भ्रमण किया है। (स.सि./ २/१०/९६६ पर उद्धृत); (ध ४/१३५,४/गा. २६/३३३ ); (का. अ./ मू./७१)। स. सि./२/१०/१६७/१० भावपरिवर्तनमुच्यते-पठचेन्द्रियः सज्ञी पर्याप्त
को मिथ्याष्टिः कश्चिज्जीवः सर्व जघन्यां स्वयोग्यां ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तः कोटी कोटीसंज्ञिकामापद्यते । तस्य कषायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि घटू स्थानपतितानि तस्थितियोग्यानि भवन्ति । तत्र सर्वजघन्य कषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रमितानि भवन्ति । एवं सर्वजघन्य स्थिति सर्वजघन्यं च कषायाध्यबस्थान सर्वजघन्यमेवानभागबन्धस्थानमास्कन्दतस्तद्योग्यं सर्वजघन्यं योगस्थान भवति । तेषामेव स्थिंतिकषायानुभागस्थानानां द्वितीयमसरव्येयभागवृद्धियुक्त योगस्थानं भवति । एवं च तृतीयादिषु चतुस्थानपतितानि श्रेण्यसंख्येयंभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति तवेव कषायाध्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितीयमनुभवाध्यवसायस्थानं भवति । तस्य च योगस्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयाविष्वपि अनुभवाध्यवसायस्थानेषु आअसंख्येयलोकपरिसमाप्तेः । एवं तामेव स्थितिमापद्यमानस्य द्वितीयं कषायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभवाध्यवसायस्थानानि च पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि कषायाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्तेवृद्धिक्रमो वेदितव्यः । उक्ताया जघन्यायाः स्थितेः समयाधिकायाः कषायादिस्थानानि पूर्ववत् । एवं समयाधिवक्रमेण आ उस्कृष्टस्थिते स्त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोटीपरिमितायाः कषायादिस्थानानि बेदितव्यानि। अनन्तभागवृद्धिः...इमानि षवृद्धिस्थानानि । हानिरपि तथैव। अनन्तभागवृद्धयनन्तगुण वृद्धिरहितानि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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