Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 277
________________ उत्कथा सत्कथा - दे. कथा | सत्कर्म तथा सत्कर्म पञ्जिका दे. परिशिष्ट - सत्व । सत्कमिक दे सक्रिया किया / २/३ सत्पुरुष - किम्पुरुष जातिका व्यन्तर देव - दे. किंपुरुष । सत्वाद--६/१५/१७/१७ भाषा -- चूंकि असत् कार्य नहीं किया जा सकता है ।... अतएव... कारण व्यापारसे पूर्व भी कार्य सतु ही है, यह सिद्ध है। ऐसा किन्हीं कपिलादिका कहना है । सत्संगति दे संगति । सतालक पिशाच जातीय व्यन्तर देव - दे, पिशाच । सतीपुत्र[मद्रास प्रान्त में वर्तमान केरल (म.पु. / प्र.५० ) । सत्कार पुरस्कार परिषह --- स.सि./६/६/४२६/६ सत्कारः पूजाप्रशंसात्मकः । पुरस्कारो नाम क्रियारम्भादिष्यग्रतः करणमामन्त्रणं वा तत्रानादरो मयि क्रियते । चिरो - पर्यस्य महातपस्विनः स्वपर समय निर्णयस्य महुकृष्णः परवा दिविजयिनः प्रणामासनादीनि मे न कश्चिकशेति निपात्राती भक्तिमन्तः किंचिदजानन्तमपि सर्वज्ञसंभावना संमान्यस्वसमयप्रभावनं कुर्वन्ति । व्यन्तरादयः पुरा अत्युग्रतपसा प्रत्यग्रपूजा निर्वर्तयन्तीति मिथ्याश्रुतिर्यदि न स्यादिदानीं कस्मान्मादृशां न कुर्वन्तीति दुष्प्रणिधानविरहितचित्तस्य सरकारपुरस्कारपरिषविजय इति निहायत सरकारका अर्थ पूजाविज्ञायते । - प्रशंसा है। तथा क्रिया आरम्भ आदिकमें आगे करना या आमन्त्रण देना पुरस्कार है । इस विषय में यह मेरा अनादर करता है। चिरकालसे मैंने मायका पालन किया है. महा तपस्वी हूँ, स्वसमय और परसमयका निर्णयज्ञ हूँ, मैंने बहुत बार परवादियोंको जीता है तो भी कोई मुझे प्रणाम, और मेरी भक्ति नहीं करता एवं उत्साहसे आसन नहीं देता, निष्यादृष्टि हो अत्यन्त मक्तिवाले होते हैं, कुछ नहीं जानने वाले को भी सर्वज्ञ समझ कर आदर-सत्कार करके अपने समयकी प्रभावना करते हैं, व्यन्तरादिक पहले अत्यन्त उग्र तप करने वालोंकी प्रत्ध पूजा रचते हैं यदि मिथ्या श्रुति नहीं है तो इस समय वे हमारे समान तपस्वियोंकी क्यों नहीं करते इस प्रकार खोटे अभिप्रायसे जिसका चित्त रहित है उसके सत्कारपुरस्कार परीषह जय जानना चाहिए। (रा.वा./६/१/२५/१९२/४) (चा.सा./१२६/५)। सत्तरिका परिशिष्ट में सप्ततिका दे. सत्ता पं.का./मू./८ सत्ता सम्बपयत्था सविस्सरूवा अणं तपज्जाया । पारवत सम्पत्रिहमद एक्का १८-सत्ता उत्पाद व्यय-धौ व्यात्मक, एक सर्वपदार्थ स्थिति, सविश्वरूप, अनन्तपर्यायमय और सापि है ( . १/४.१.४५ / ६०/१०१) सप्रतिपक्ष । गा (५.१३/५.३.१२/४/१६) दे. द्रव्य / १/१ [ सत्ता. सत्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि मे एकार्थक शब्द है] नि सा./ता.वृ./३४ अस्तित्वं नाम सत्ता अस्तित्वको सत्ता कहते हैं। * सत्ताके दो भेदमहासत्ता व अवान्तर सत्ता - (दे. अस्तित्व ) । सत्ताग्राहक द्रव्यार्थिक नयन / IV/२ सत्तावलोकन दर्शन १.३ । - दे. / सत्य -- जैसा हुआ हो वैसा ही कहना सत्यका सामान्य लक्षण है, परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्वव पर अहिंसा की प्रधानता होनेसे हित व मित वचनको सत्य कहा जाता है, भले ही कदाचित् वह कुछ असत्य भी क्यों न हो। सत्य वचन अनेक प्रकारके होते हैं। Jain Education International -- २७० - सत्य १. सत्य निर्देश १. सत्य धर्मका लक्षण 1 मा. अणु /०४ परसंतावयकारणत्रयणं मोतृण सपरहस्य जो मददि भिक्खु तुइयो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं 1७४ | जो मुनि दूसरेको क्लेश पहुँचाने वाले वचनोंको छोड़कर अपने और दूसरेके हित करने वाले वचन कहता है उसके चौया सत्य धर्म होता है। स.सि./१/६/४१२/७ सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधुवचनं सत्यमित्युच्यते । - अच्छे पुरुषोंके साथ साधु वचन बोलना सत्य है ५१६/०): (चा.सा./41/2 ) ( न घ.६/३५) । भ.आ./.४६/२५४/१६ स सानो हितभाषणं यमुनि और उनके भक्त अर्थात् श्रावक इनके साथ आत्महितकर भाषण बोलना यह सत्य धर्म है। (रा.वा./६६६ाध रा.सा./६/१० ज्ञानचारित्र शिक्षादी स धर्मः सुनिगद्यते धर्मोच्हणार्थ यत् साधु सत्यं तदुच्यते ।१७१ - धर्मकी वृद्धिके लिए धर्म सहित बोलना वह सत्य कहाता है। इस धर्मके व्यवहारकी आवश्यकता ज्ञान चारित्रके सिखाने आदि लगती है। पं. वि. / ९/११ स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च । विधेयं घोषने मौन ६१-मुनियोंको सदैव ही स्वपर हितकारक, परिमित तथा अमृतके सदृश ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिए। यदि कदाचित् सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत होती है तो मौन रहना चाहिए।११। का.अ./मू./३१८ जण वयणमेव भासदि तं पालेदु असक्कमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो | ३६८|-जो जिनआचारोंको पालने में असमर्थ होता हुआ भी जिन-वचनका कथन करता है उससे विपरीत कथन नहीं करता है तथा व्यवहार में भी झूठ नहीं बोलता वह सत्यवादी है | २६८| २. महावतका लक्षण नि.सा./५७ रागेण व दोसेण व मोहेण व मोस भासपरिणामं । जो पजहृदि साहु सया विदियवयं होइ तस्सेव । ५७१ - रागसे, द्वेषसे अथवा मोहसे होनेवाले, मृषा भाषाके परिणामको जो साधु छोड़ता है, उसीको सदा दूसरा व्रत है |ভা आ./६.२६० रागादीहिं असचं पता परतावसच्चयोति सुतस्थावि कहणे अयधा वयणुज्झणं सच्चं | ६| हस्सभयको हलोहा मणिचिकायेण सव्वकालम्मि मोसं ण य भासिज्जो पच्चयधादी हवदि एसो | २६०१ - राग, द्वेष, मोहके कारण असत्य वचन तथा दूसरोंको सन्ताप करने से ऐसे चनको छोड़ना और द्वादशांग के अर्थ कहनेने अपेक्षा रहित वचनको छोड़ना सत्य महामत है। हास्य, भय, क्रोध अथवा लोभस मन-वचन-कायकर किसी समय में भी विश्वास घातक दूसरेको पीडाकारक वचन न बोले । यह सत्यवत · IREN ३. सत्य अणुव्रतका लक्षण र.क.आ./६४ स्थूलमती न वदति न पराम्यादयति सत्यमपि विप यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलाल झूठ तो नाप बोले न दूसरों से बुलवावे, तथा जिस वचनसे विपत्ति आती हो, ऐसा वचन यथार्थ भी न आप भोले और न दूसरोंसे बुलवाये ऐसे उसको सरपुरुष सत्यात कहते हैं। स.सि./७/२०/३६८/० स्नेहमोहादिवशाह गृहविनायो ग्रामविनाशे म कारणमित्यभिमाद सत्यवचनाशिवृतो गृहीति द्वितीयमवतस् ।गृहस्थ स्नेह और मोहादिकके वशसे गृहविनाश और ग्रामविनाशने जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551