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सत्त्व
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बन्ध उदय सत्त्वकी त्रिसंयोगी प्ररूपणाएँ ।
- दे, उदय / मूलोसर प्रकृतिके चार प्रकार सरस व सत् कर्मिको सम्बन्धी सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर व अल्प बहुत्व प्ररूपणाएँ । - दे. वह वह नाम
१८ | मूलोत्तर प्रकृति के सच्च चतुष्ककी प्ररूपणा सम्बन्धी सूची ।
१९ अनुभाग सरवकी ओप आदेश प्ररूपणा सम्बन्धी सूची ।
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१. सत्त्व निर्देश
१. सत्त्व सामान्यका लक्षण
१. अस्तित्व के अर्थ में
दे. सव/१/१ का अर्थ अस्तित्व है।
दे द्रव्य / १/७ सत्ता, सत्त्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि मे सब एकार्थक है।
२. जीवके अर्थ
स.सि./०/११/२४६/- दुष्कर्म विपाकशाज्ञानायोनिषु सीदन्तीति
सत्त्वा जीवाः ! = बुरे कर्मोंके फलसे जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्त्व हैं । सत्त्व यह जीवका पर्यायवाची नाम है । ( रा. वा. / ७ /११/५/५३८/२३ )
३. कर्मोंकी सत्ताके अर्थ में
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पं. सं. / प्रा./३/३ घण्णस्स संगहो वा संत.. - धान्य संग्रहके समान जो पूर्व संचित कर्म हैं, उनके आरमा अवस्थित रहने को समय कहते हैं। क. पा./१/१,१३-१४/१२५० / २६१/६ ते चेत्र विदियसमय पहुडि जान फलदाडिमसमओ चि ताथ संतपयएस पडियजति जीवसे सबद्ध हुए में ही (मिष्यामके निमित्त से संचित कर्म स्वध दूसरे समय से लेकर फल देनेसे पहले समय तक सब इस संज्ञाको प्राप्त होते हैं।
२. उत्पन्न व स्वस्थान सत्त्वके लक्षण
गो.क./भाषा / २९/०६/१ पूर्ण पर्याय
जो बिना उसना (अपकर्षण द्वारा अन्य प्रकृतिरूप करके नाश करना ] व उद्वेलनात सत्व या तिस तिस उत्तर पर्याय विषे उपजे तहाँ उत्तरपर्याय तिस सत्वको उत्पन्न स्थानविधे सव कहिए। तिसर्या बिना। उद्वेलना व उद्वेलना ते जो सत्त्व होय ताकी स्वस्थान विषै सत्त्व कहिए ।
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२. सत्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम
३. सच्च योग्य प्रकृतियोंका निर्देश
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घ. १२/४,१,१४.३८/४६५ / १२ जाति पुष पयडीचं मंधी चैव रथ बंधे संतेवि जासि पयडीणं द्विदिसंतादो उवरि सव्वकाल' बंधो ण संभवदि; ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। णच आहारदुगतित्थयराणं द्विदितादो उवरि बंधो अस्थि, समाइट्ठीसु तदणुवलंभादो तम्हा सम्म सम्ममिच्छता व दाणि तिणि वि संतकम्माणि जिन प्रकृतियोंका वध नहीं होता है और बन्धके होनेपर भी जिन प्रकृतियोंका स्थिति सत्त्व से अधिक सदाकाल बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्व प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि, सत्त्वकी प्रधानता है । आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृतिका स्थिति सबसे अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जाता है, इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वके समान ये तीनों भी सत्त्व प्रकृतियाँ हैं।
गो, क./ /३० पंचम दोणि अट्ठावीस चउरो कमेण तेनउदी दोणिय पंच य भणिया एदाओ सत्त पयडोओ |३८| = पाँच, नौ, दो अट्ठाईस चार तिरानवे दो और पाँच इस तरह सम (आठों कर्मों की सर्व ) १४८ सत्तारूप प्रकृतियाँ कही हैं |३८|
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२. सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ
१. तीर्थंकर व आहारकके सच सम्बन्धी
नियम
१. मिथ्यादृष्टिको युगपत् सम्भव नहीं
गो. जी. प्र./३३३/४८५/४ मिथ्यादृष्टी तीर्थ कृत्य
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आहारकइन आहारकयन्ये च तीर्थकृत्वसत्वं न उभयसले तु मिया न तेन सह इम रात्र मुगपदेकजीयापेक्षया न नानाजीवापेक्षयास्त्विकर्मणा जीवानां सद्गुणस्थानं न संभवतीति कारणात् मिध्यादृहि स्थानमें जिसके तीर्थंकरका सम हो उसके आहारक द्विकका सत्त्व नहीं होता, जिसके आहारक द्वयकासव हो उसके तीर्थंकरका सत्त्व नहीं होता, और दोनोंका सत्त्व होनेपर मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं होता। इसलिए मिध्यादृष्टि गुणस्थान में एक जीवकी अपेक्षा युगपत् आहारक द्विक व तीर्थंकरका 'सत्त्व नहीं होता, केवल एकका ही होता है । परन्तु एक ही जीव में अनुक्रमसे वा नाना जीवकी अपेक्षा उन दोनों का सत्व पाया जाता है।... इसलिए इन प्रकृतियोंका जिनके सत्त्व हो उसके यह गुणस्थान नहीं होता (गो, क./जी./२३/१९)
२. सासादनको सर्वथा सम्भव नहीं
गो.क./जी. प्र./३३३/४८५/५ सासादने तदुभयमपि एकजीवापेक्षयानेकजीवापेचया च क्रमेण युगपद्वा सत्त्वं नेति । सासादन गुणस्थान में एक जीवकी अपेक्षा वा नाना जीव अपेक्षा आहारक द्विक तथा सीकरका सर नहीं है।
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३. मिश्र गुणस्थान में सत्त व असत्त्व सम्बन्धी दो दृष्टियाँ गो.क./जी. ३३३/४०५/२ मि तीर्थ करण जीवन गुणस्थानं न संभवति कारणात्। गो../जी./११/प्रक्षेपक /१/२२२/१२ मिले गुणस्थाने तीर्थंयुतं चास्ति । रात्र कारणमाह । तत्तत्कर्म स्वजीवानां तत्तद्गुणस्थानं न संभवति । = १. मिश्र गुणस्थान में तीर्थंकरका सत्व नहीं होता । २. इसका सत्त्व
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