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सत्त्व
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२. सत्त्व प्ररूपणा सम्बन्धी कुछ नियम (परस्पर विरोधी प्रकृतियों के ) बिरोधका अभाव देखकर बम्धमें भी करणद्विविधादादो वि एत्थतणअपुख्यकरणद्विदिघादस्स बहुबयरत्तादो उस ( विरोध ) का अभाव नहीं कहा जा सकला, क्योंकि बन्ध और। बा। ण चेद ण पुब्बकरणं पढमसमत्ताभिमुहमिच्छाइटि अपुवकरणेण सत्त्वमें एकत्वका विरोध है।
तुनल, सम्मत्त-संजम-संजमासंजमफलाणं तुम्लत्तविरोहा। ण
चापुब्धकरणाणि सव्वणियट्टीकरणे हितो अणं तगुणहीणाणि ति ९. सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्यस्थिति सत्व दो समय कैसे
वोत्तुं जुत्तुं, तप्पदुप्पायाणमुत्ताभावा । -प्रश्न-अपूर्वकरणके क. पा. ३/२,२२/६४२०/२४४/६ एगसमयकालट्ठिदिय किण्ण बुच्चदे। ण,
अन्तिम समयमें वर्तमान इस उपर्युक्त मिथ्याष्टि जीवका स्थिति उदयाभावेण उदयणिसेयहिदी परसरूवेण गदाए विदियणिसेयस्स
सत्व, प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख अनिवृत्तिकरणके अन्तिम दुसमयकालट्ठिदियस्स एगसमयावट्ठाणविरोहादो । विदियणिसेओ
समयमें स्थित मिथ्याष्टिके स्थितिसत्त्वसे संख्यात गुणित हीन सम्मामिच्छत्तसरूवेण एगसमयं चेव अच्छदि उपरिमसमए मिच्छत्त
के से है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, स्थिति सत्वका अपवर्तन करके स्स सम्मत्तस्स वा उदयणिसेयसरूवेण परिणाममुबलं भादो। तदो संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले संयमासंयमके अभिमुख चरमसमयएयसमयकाल द्विदिसेसं ति बत्तव्यं । ण, एगसमयकालद्विदिए णिसेगे
वर्ती मिथ्यादृष्टिके संख्यात गुणित हीन स्थिति सत्त्वके होनेमें कोई संते विदियसमए चेव तस्स णिसेगस्स अदिण्णफलस्स अकम्मसरूवेण
विरोध नहीं है। अथवा वहाँके, अर्थात प्रथमोपशमसम्यक्त्व के परिणामप्पसंगादो। ण च कम्म सगसरूवेण परसरूवेण वा अदत्त
अभिमुख मिथ्यादृष्टिके, अनिवृत्तिकरणसे होनेवाले स्थिति घातकी फलमकम्मभावं गच्छदि. विरोहादो। एगसमयं सगसरूवेणच्छिय
अपेक्षा यहाँके अर्थात संयमासंयमके अभिमुख मिथ्याष्टिके, अपूर्वविदियसमए परपयडिसरूवेणच्छिय तदियसमए अकम्मभावं
करणसे होनेवाला स्थितिधात बहुत अधिक होता है। तथा, यह, गच्छदि ति दुसमर्थकालट्ठिदिणिद्देसो कदो। -प्रश्न- सम्य
अपूर्वकरण, प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्याष्टिके अपूर्व ग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति एक समय काल प्रमाण क्यों नहीं
करणके साथ समान नहीं है, क्योंकि, सम्यक्त्व, संयम और संयमाकही जाती है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जिस प्रकृतिका उदय नहीं
संयम रूप फलबाले विभिन्न परिणामोंके समानता होनेका विरोध होता उसकी उदय निषेक स्थिति उपान्त्य समयमें पर रूपसे
है। तथा, सर्व अपूर्वकरण परिणाम सभी अनिवृत्तिकरण परिणामों के संक्रमित हो जाती है। अतः दो समय कालप्रमाण स्थितिवाले दूसरे
अनन्तगुणित हीन होते है, ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि, निषेककी जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण मानने में विरोध आता इस बातके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अभाव है। है। प्रश्न-सम्यग्मिथ्यात्वका दूसरा निषेक सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे एक समय काल तक ही रहता है, क्योंकि अगले समयमें उसका ११. सत्व व्युच्छित्ति व सत्य स्थान सम्बन्धी दृष्टि भेद मिथ्यात्व या सम्यक्त्व के उदयनिषेक रूपसे परिणमन पाया जाता है अतः सूत्रमें 'दुसमयकालट्ठिदिसेस 'के स्थानपर 'एकसमयकाल
गो. क./मू./३७३,३६१,३६२ तित्थाहारचउक्क अण्णदराउगदुगं च सत्तेदे। द्विदिसेसं' ऐसा कहना चाहिए। उतर-नहीं, क्योंकि इस निषेकको
हारचउक्कं वज्जिय तिण्णि य केइ समुट्ठि ।२७३। अस्थि अणं यदि एक समय काल प्रमाण स्थितिवाला मान लेते हैं तो दूसरे ही
उवसमगे खवगापुवं खवित्तु अट्ठा य। पच्छा सोलादीणं खवर्ण समयमें उसे फल न देकर अकर्म रूपसे परिणमन करनेका प्रसंग प्राप्त
इदि केई णिहिट्ठ ३६१ अणियट्टिगुणट्ठाणे मायारहिद च ठाणहोता है और कर्म स्वरूपसे या पररूपसे फल बिना दिये अकर्म
मिच्छत्ति । ठाणा भंगपमाणा केई एवं परूवें ति ।३६२ -सासादन भावको प्राप्त होते नहीं, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है।
गुणस्थानमें तीर्थकर, आहारककी चौकड़ी, भुज्यमान व मधमान किन्तु अनुदयरूप प्रकृतियों के प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूपसे आयुके अतिरिक्त कोई भी दो आयुसे सात प्रकृतियाँ हीन १४१ का रहकर और दूसरे समयमें पर प्रकृतिरूपसे रहकर तीसरे समयमें
सत्त्व है। परन्तु कोई आचार्य इनमें-से आहारककी ४ प्रकृतियोंअकर्मभावको प्राप्त होते हैं ऐसा नियम है अतः सूत्र में दो समय काल
को छोड़कर केवल तीन प्रकृतियाँ हीन १४५ का सत्त्व मानते हैं प्रमाण स्थितिका निर्देश किया है।
1१७३। श्री कनकनन्दी आचार्य के सम्प्रदायमें उपशम श्रेणी वाले चार
गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी चारका सत्व नहीं है। इस कारण १०. पाँचवेंके अभिमुखका स्थिति सत्त्व पहलेके अमि- २४ स्थानों में-से बद्ध व अश्रद्धायुके आठ स्थान कम कर देनेपर मुखसे हीन है
१६ स्थान ही हैं। और क्षपक अपूर्वकरण वाले पहले आठ कषायोका
क्षय करके पीछे १६ आदिक प्रकृतियों का क्षय करते हैं ।३६१। कोई ध. ६/१,६-८-१४/२६९/१ एदस्स अनुबकरणचरिमसमए वट्टमाणमिच्छा
आचार्य अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें मायारहित चार स्थान है, ऐसा इद्विस्स विदिसंतकम्म पढमसम्मत्ताभिमुहअणियट्टीकरण चरिम
मानते हैं। तथा कोई स्थानों को भंगके प्रमाण कहते हैं ।३६२। समयट्ठिदमिच्छाइट्ठिद्विदिसंतकम्मादो कध संखेज्जगुणहीणं । ण, विदिसंतमोवट्टियं काऊण संजमासजमपडिवज्जमाणस्स संजमा- दे. सत्त्व/२/१ मिप्रमें तीर्थ करके सत्वका कोई स्थान नहीं, परन्तु कोई संजमचरिममिच्छाइडिस्स तद विरोहादो। तस्यतणअणियट्टी- कहते हैं कि मिश्रमें तीर्थंकरका सत्त्व स्थान है।
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