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१. सत्य निर्देश
सत्य
कारण असत्य वचनसे निवृत्त है, इसलिए उसके दूसरा अणुव्रत है।
(रा.वा./७/२०/२/५४७/८)। ' बसु.श्रा./२१० अलियं ण जंपणीयं पाणिमहकर तु सच्चबयणं पि। रायेण
य दोसेण य णेयं विदियं वयं थूलं ।२१०।--रागसे अथवा द्वेषसे झूठ बचन नहीं बोलना चाहिए, और प्राणियों का घात करनेवाला सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए. यह दूसरा स्थूल सत्यवत जानना चाहिए। का. अ./३३३-३३४ हिंसा बयणं ण बयदि कक्कस-बयण पि जो ण
भासेदि। णि ठुरं वयणं पि तहाण भासदे गुज्म-वयणं पि ३३३॥ हिद-मिद अयणं भासदि संतोस-करंतु सब-जीवाणं । धम्म-पयासणवयणं अणुब्बदी होदि सो बिदियो ।३३४। -जो हिंसाका बचन नहीं कहता, कठोर वचन नहीं कहता, निष्ठुर वचन नहीं कहता, और न दूसरोंकी गुप्त बातको प्रकट करता है। तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवोंको सन्तोषकारक वचन बोलता है, और धर्मका प्रकाशन करनेवाला वचन बोलता है वह दूसरे सत्याणुवतका धारी है ।३३३-३३४॥
४. सत्यके भेद भ. आ./मू./११६३/११८६ जणबदसंमदिठवणा णामे रूवे पडुच्चयवहारे।
संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण 1११६३। -जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतोति, सम्भावना, व्यबहार, भाव और उपमा
सत्य ऐसे सत्यके १० भेद हैं । (मू. आ./३०८); (गो. जी /मू./२२२)। रा. वा./१/२०/१२/७५/२० दश विधः संत्यसद्भावः नामरूपस्थापनाप्रतीत्य-संवृति-संयोजना-जनपद-देशभाव-समयसत्यभेदेन। सत्यके दश भेद हैं-नाम, रूप, स्थापना, प्रतीति, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव, और समयसत्य। (ध. १/१.१.२/११७/६); (ध. १/४,१,४५/२१८/१)।
- जो सब भाषाओं मे भातके नाम पृथक-पृथक बोले जाते हैं जैसे चोरु, कूल, भक्त आदि ये देशसत्य हैं। और बहुत जनोंके द्वारा माना गया जो नाम वह सम्मत्तसत्य है, जैसे-लोकमें राजाकी स्त्रीको देवी कहना ।३०। जो अर्हन्त आदिकी पाषाण आदिमें स्थापना वह स्थापनासत्य है। जो गुण की अपेक्षा न रखकर व्यवहार के लिए देवदत्त आदि नाम रखना वह नामसत्य है। और जो रूपके बहुतपनेसे कहना कि बगुलों की प्रक्ति सफेद होती है, वह रूपसत्य है ।३१०। अन्यकी अपेक्षासे जो कहा जाय सो वह प्रतीत्यसत्य है जैसे 'यह दीर्घ है' यहाँ ह्रस्वकी अपेक्षासे है। जो लोकमें 'भात पकता है ऐसा वचन कहा जाता है वह व्यवहार सत्य है । ।३११॥ जैसी इच्छा रखे वैसा कर सके वह सम्भावना सत्य है । जैसे इन्द्र इच्छा करे तो जम्बूद्वीपको उलट सकता है।३१२। जो हिंसादि दोष रहित अयोग्य वचन भी हो वह भावसत्य है जैसे किसीने पूछा कि, 'चोर देखा, उसने कहा कि. 'नहीं देखा। जो उपमा सहित हो वह वचन उपमासत्य है जैसे पस्योपम, सागरोपम आदि कहना । (भ. आ.वि./११६३/११८६/११): (गो.जी./जी.प्र./ २२३-२२४/४८१/२) रा. वा./१/२०/१२/७५/२१ तत्र सचेतनेतरद्रव्यस्यासत्यप्यर्थे यद्वयवहारार्थ संज्ञाकरणं तन्नामसत्यम, इन्द्र इत्यादि । यदर्थासंनिधानेऽपि रूपमात्रेणोच्यते तद्रूपसत्यम्, यथा चित्र पुरुषादिषु असत्यमपि चैतन्योपयोगादावर्थे पुरुष इत्यादि । असत्यप्यर्थे यत्कार्याथं स्थापित छू ताक्षनिक्षेपादिषु तत स्थापनासत्यम् । आदिमदनादिमदौपशमिकादीन् भावान प्रतीत्य यदचन तरप्रतीत्यसत्यम् । यल्लोके संवृत्यानीतं वचस्तत् संवृतिसत्यं यथा पृथिव्याद्यनेककारणत्वेऽपि सति 'पके जात पङ्कजम्' इत्यादि । धूपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्ममकर-हंस-सर्वतोभद्र-क्रौञ्च-व्यूहादिषु वा सचेतनेतरद्रव्याणां यथा भागविधिसं निवेशाविर्भावक यद्वचस्तत संयोजनासत्यम् । द्वात्रिंशज्जनपदेष्वार्यानार्यभेदेषु धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रापक यद्वचः तत जनपदसत्यम् । ग्रामनगरराजगणपाखण्डजातिकुलादिधर्माणामुपदेष्ट्र यद्वचः तद देशसत्यम् । छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासंयतस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थ प्रामुकमिदमप्रासुकमित्यादि यदचः तव भावसत्यम् । प्रतिनियतषट्तयद्रव्यपर्यायाणामगमगम्याना याथात्म्याविष्करणं यद्वचः तत् समयसत्यम् । = पदार्थोंके न होनेपर भी, सचेतन और अचेतन द्रव्यकी संज्ञा करनेको नामसत्य कहते हैं जैसे इन्द्र इत्यादि । पदार्थका सन्निधान न होनेपर भी रूपमात्रकी अपेक्षा जो कहा जाता है बह रूपसत्य है जैसे चित्रपुरुषादिमें चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थ के न होनेपर भी 'पुरुष' इत्यादि कहना। पदार्थ के न होनेपर भी कार्यके लिए जो जूऐंके पासे आदि निक्षेपों में स्थापना की जाती है वह स्थापना सत्य है। सादि व अनादि आदि भावोंको अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्यसत्य है। जो वचन लोक रूढमें सुना जाता है वह संवृतिसत्य है, जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणोंके होनेपर भी पंक अर्थात् कीचड़में उत्पन्न होनेसे 'पंकज' इत्यादि वचनप्रयोग । सुगन्धित धूपचूर्ण के लेपन और घिसनेमें अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंचरूप व्यूह ( सैन्यरचना ) आदिमें भिन्न द्रव्यों की विभाग विधिके अनुसार की जानेवाली रचनाको प्रगट करनेवाला वचन वह संयोजना सत्य वचन कहलाता है । आर्य व अनार्य भेदयुक्त बत्तीस जनपदों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका प्रापक जो वचन वह जनपदसत्य है। जो वचन, ग्राम, नगर, राजा, गण, पारखण्ड, जाति एवं कुल आदि धर्मों का व्यपदेश करनेवाला है बह देशसत्य है। छद्मस्य ज्ञानीके द्रव्यके यथार्थ स्वरूपका दर्शन होनेपर भी संयत अथवा संयतासंयतके अपने गुणों का पालन करनेके लिए 'यह प्रासुक है-यह अप्रासुक है' इत्यादि जो बचन कहा जाता है वह भावसत्य है । जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छह द्रव्य व उनकी पर्यायोंकी
५. जघन्योत्कृष्ट सत्य निर्देश सा.ध./४/४१-४३ यद्वस्तु यह शकालप्रमाकार प्रतिश्रुतम् । तस्मिस्त
थैव संवादि, सत्यासत्य वचो वदेव ॥४१॥ असत्यं वय वासोऽन्धो, रन्धयेत्यादि-सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण, दानात्सत्यमसत्यगम् । ॥४२॥ यत्स्वस्य नास्ति तत्कव्ये, दास्यामीत्यादिसं विदा। व्यवहार विरुन्धान, नासत्यासत्यमालपेत् ।४३। -जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकारवाली प्रसिद्ध है, उस वस्तुके विषय में उसी देश, काल, प्रमाण और आकार रूप कथन करनेवाले सत्यासत्य वचनको बोलना चाहिए ।४१॥ सत्याणुव्रतके पालक श्रावकके द्वारा वस्त्रको बुनो
और भातको पकाओ इत्यादि सत्यसूचक असत्यवचन तथा कालकी मर्यादाको उल्लंघन करके देनेसे असत्य सूचक वचन बोलने योग्य हैं। ऐसे वचन सत्यासत्य कहलाते हैं ।४। सत्याणुवतको पालन करनेवाला श्रावक जो वस्तु अपनी नहीं है वह वस्तु मैं तुम्हारे लिए प्रातःकाल दूंगा इत्यादि रूप प्रतिज्ञाके द्वारा लोक व्यवहारको बाधा देनेवाले असत्यासत्य वचनको नहीं बोले ।४३। ६. जनपद आदि दश सत्योंके लक्षण मू. आ./३०१-३१३ जणपदसच्चं जध ओदणादि रुचिदे य सब्वभासाए । बहुजणसंमदमवि होदि जंतु लोए तहा देवी ।३०६। ठवणा ठविदं जह देवदादि णामं च देवदत्तादि। उक्कडदरोत्ति वण्णे रूवे सेओ जध बलाया ।३१० अण्णं अपेच्छसिद्ध' पडच्चसत्यं जहा हवदि दिग्धं । वबहारेण य सच्चं रज्झदि करो जहा लोए ।३१११ संभाषणा य सच्चं जदि णामेच्छेज्ज एव कुज्जति । जदि सक्को इच्छेज्जो जंबूदीवं हि पालत्थे १३१२। हिंसा दिदोसविसुदं सच्चमकप्पियविभावदो भावं। ओवम्मेण दु सच्चं जाणम् पलिदोवमादीया ।३१३
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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