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संस्थान निर्माण कर्म
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संहनन
जा सकता वह अनित्थंलक्षण संस्थान है। (रा. वा./५/२४/१३/ ४८६/१)।
५. गति मार्गणामें संस्थानोंका स्वामित्व मू.पा./१०६० समचउरसणिग्गोहासादि य खुज्जा य वामणा हुंडा । पंचिं. दियतिरियणरा देवा चउरस्स णारया हुंडा ।-समचतुरस, न्यग्रोध, सातिक, कुब्जक, बामन और हुंड ये छह संस्थान पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों के होते हैं, देव चतुरस्र संस्थान वाले हैं, नारकी सब हुंडक सस्थान वाले होते हैं ।१०६०
६. अन्य सम्बन्धित विषय १. एकेन्द्रियोंमें संस्थानका अभाव तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान।
-दे, उदय/५। २. विकलेन्द्रियों में हुंडक संस्थानका नियम तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान ।
--दे. उदय/५॥ ३. विग्रहगतिमें जीवोंका संस्थान । -दे. अवगाहना/१। ४. संस्थान नामकर्मकी बन्ध उदय सत्त्व प्ररूपणा तथा
तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान आदि। -दे. वह बह नाम । संस्थान निर्माण कर्म-दे, निर्माणकर्म । संस्थान विचय धर्म ध्यान-दे. धर्मध्यान/१। संस्थानाक्षर-दे. अक्षर। संहनन-१. संहनन सामान्यका लक्षण स.सि./८/११/३६०/५ यस्योदयादस्थिबन्धनविशेषो भवति तत्संहनननाम । जिसके उदयसे अस्थियोंका बन्धन विशेष होता है वह संहनन नामकर्म है। (रा. बा./८/११/६/५७७/५), (ध.६/१, ६-१, २८/५४/-) (ध. १३/५,६,१०७/३६४/५), (गो. क./जी, प्र./३३/ २६/६)।
२. संहननके भेद प. खं. ६/१,६-१/सु. ३६/७३ जं तं सरीरसंघडणणामकम्मं तं छव्यिहं, वज्जरिसहवइरणारायणसरोरसंघडणणामं बज्जणारायणसरीरसंघडणणामं णारायणसरीरसंघडणणाम अद्धणारायणसरीरसंघडणणाम खोलियसरीरसघडणणामं असपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामं चेदि ।३६। = जोशरीर संहनन नामकर्म है वह छह प्रकारका है-बज्रऋषभनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, वज्रनाराचशरीरसंहनन नामकर्म, नाराबशरीरसंहनन नामकर्म, अर्धनाराच शरीरसहनन नामकर्म, की लकशरीरसंहनन नामकर्म, और असंप्राप्त सृपाटिकाशरीरसंहनन नामकर्म। (प.खं.१३/५/सू. १०६/३६६), ( स. सि /-/११/ ३६०६).(पं.सं./प्रा./१/४ की टी.) ( रा. वा./८/११/६/५७७/६), (गो, क./जी.प्र./३३/२६/६)।
३. संहननके भेदोंके लक्षण रा. वा./८/११/६/५७७/७ तत्र. वज्राकारोभयास्थिसन्धि प्रत्येकं मध्ये बलयबन्धनं सनाराचं सुसंहतं वज्रऋषभनाराचसंहननम् । तदेव वलयबन्धनविरहितं वज्रनाराचसंहननम् । तदेवोभयं वज्राकारबन्धनव्यपेतमवलयबन्धनं सनाराचं नाराचसंहननम् । तदेवैकपावें सनाराचम् इतरत्रानाराचम् अर्धनाराचसंहननम् । तदुभयमन्ते सकोलं की लिकासंहननम् । अन्तरसंप्राप्तपरस्परास्थिसन्धि पहिः सिरास्नायुमांसटितम् असंप्राप्तसृपाटिकासंहननम् । दोनों हड्डियों
की सन्धियाँ बज्राकार हों। प्रत्येकमें बल यवन्धन और नाराच हों ऐसा सुसहत बन्धन बज्रर्षभनाराचसंहनन है। बलय बन्धनसे रहित बही वज्रनाराच संहनन है। वहीं वज्राकार अन्धन और वलय बन्धनसे रहित पर नाराच युक्त होनेपर सनाराच संहनन है। वही एक तरफ नाराच युक्त तथा दूसरी तरफ नाराच रहित अवस्थामें अर्ध नाराच है । जब दोनों हड्डियोंके छोरों में कील लगी हों तब वह कोलक संहनन है। जिसमें भीतर हड्डियोंका परस्पर बन्ध न हो मात्र बाहिरसे वे सिरा स्नायु मांस आदि लपेट कर संघटित की गयी हों बह असंप्राप्तसृपाटिका संहनन है। (ध. १३/५,५,१०६/ ३६६/११)। ध. ६/१,६-१,३६/७३/८ संहननमस्थिसंचयः, ऋषभो वेष्टनम, वज्रवदभेद्यत्वाद्वज ऋषभः। वज्रवन्नाराचः बज्रनाराच', तौ द्वावपि यस्मिन् वज्रशरीरसंहनने तद्वज ऋषभवज्रनाराचशरीरसंहननम् । जस्स कम्मस्स उदएण वजहड्डाई बज्जवे?ण वेट्ठियाई वज्जणाराएण खोलियाई च होंति तं बज्जरिसहवरणारायणसरीर संघडण मिदि उत्तं होदि । एसो चेव हबंधो वज्जरिसहवज्जिओ जस्स कम्मस्स उदएण होदि तं कम्मं बज्जणारायणसरीरसंघडण मिदि भण्णदे। जस्स कम्मस्स उदएण वज्ज विसेसणरहिदणारायणरवीलियाओ हडसं धिओ हवं ति तं णारायणसरीरसंघडणं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण हडसंधीओ णाराएण अद्भविद्धाओ वंति तं अद्भणारायणसरीरसंघडणं णाम । जस्स कम्मस्स उदएण अवज्जहड्डाई खीलियाई हवंति तं खोलियसरीरसघडणं णाम । जस्स कम्मस्स उदएण अण्णोपणमसंपत्ताई सरिसिवहड्डाई व छिरावद्धाई हड्डाई हवं ति तं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं णाम । = हड्डियों के संचयको संहनन कहते हैं। वेष्टन को ऋषभ कहते हैं । बज्रके समान अभेद होनेसे वऋषभ' कहलाता है। बज्रके समान जो नाराच है वह बज्रनाराच कहलाता है। ये दोनों अर्थात बज्र ऋषभ और वज्रनाराच, जिस वज्र संहननमें होते हैं, वह वज्रऋषभ बज्रनाराच शरीर संहनन है। जिस कर्म के उदयसे वज्रमय हड्डियाँ बज्रमय वेष्टनसे वेष्टित और वज्रमय नाराचसे कीलित होती हैं, वह वज्रऋषभनाराच शरीर संहनन है। ऐसा अर्थ कहा गया है। यह उपर्युक्त अस्थिबन्ध ही जिस कर्म के उदयसे वज्र ऋषभसे रहित होता है, वह कर्म वज्रनाराचशरीर संहनन इस नामसे कहा जाता है। जिस कर्मके उदयसे वज्र विशेषणसे रहित नाराच कोलें और हड्डियोंको संधियाँ होती है वह नाराच शरीर संहनन नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे हाड़ोंकी सन्धियाँ नाराच से आधी बिंधी हुई होती हैं, वह अर्धनाराच शरीर संहनन नामकम है। जिस कर्मके उदयसे वज्र-रहित हड्रियाँ और कीलें होती हैं वह कोलक शरीर संहनन नामकर्म है। जिस कर्मके उदससे सरीसृप अर्थात् सर्पकी हड्डियों के समान परस्परमे असंप्राप्त और शिराबद्ध हड्डियाँ होती हैं, वह असंप्राप्तासृपाटिका शरीर संहनन नामकर्म है ।
४. उत्तम संहननका तात्पर्य प्रथम तीन संहनन रा. वा./६/२७/१/६२५/१६ आद्य' संहननत्रयमुत्तमम् ।। बज्रवृषभनाराचसंहनन वज्रनाराचसंहननं नाराचसंहननमित्येतस्त्रितयं संहननमुत्तमम् । कुतः। ध्यानादिवृत्तिविशेषहेतुत्वाद। -आदिके तीन उत्तम संहनन हैं अर्थात बऋषभनाराचसंहनन, बज्रनाराचसंहनन, नाराचसंहनन ये तीनों ध्यानकी वृत्ति विशेषका कारण होनेसे उत्तम संहनन कहे गये हैं। (भ. आ./वि./१६१६/१५२१/१४) ।
५. ध्यानके लिए उत्तम संहननकी आवश्यकता रा. बा./8/२७/१,११/६२५-६२६/२० तत्र मोक्षस्य कारणमाद्यमेकमेव । ध्यानस्य त्रितयमपि (१/६२५) उत्तमसंहननाभिधानम् अन्यस्येयकालाध्यवसायधारणासामर्थ्यात् । ११/६२६ । = उपरोक्त तीनों
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