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सककापिर
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सकलादेश
उत्तम संहननमेंसे मोक्षका कारण प्रथम संहनन होता है और ध्यानके सकलचद्र-नदिसंघ देशीयगण, अभयनन्दि के शिष्य, मेषचन्द कारण तो तीनों हैं ।। क्योंकि उत्तम संहननवाला हो इतने समय विवा के गुरु । समय-(ई. १४०-१०२०) । (दे. इतिहास/0/101 तक ध्यान धारण कर सकता है अन्य संहननवाला नहीं। (भ. आ./
सकलदत्ति-दे दान/१। वि./१६६६/१५२१/१४)।
सकल परमात्मा-दे. परमात्मा/१ । घ. १३/५.४.२६/७३/१२ सुकलेस्सिओ...वज रिसहवरणारायणसरीरसंधडणो..खबिदासेसकसायवग्गो...। = जिसके शुक्ल लेश्या है...
सकल विधि विधान-दे. पूजापाठ । (जो) वज्रऋषभ नाराच संहननका स्वामी है...ऐसा क्षीणकषाय जीव सकलादेश-१. सकलादेश निर्देश
ही एकत्व वितर्क अविचार ध्यानका स्वामी है। ज्ञा./४१४६-७ न स्वामित्वमतः शुक्ले विद्यतेऽत्यल्पचेतसाम् । आद्य
रा. वा./४/४२/१३/२५२/२३ यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन संहननस्यैव तत्प्रणीतं पुरातनैः ।६। छिन्ने भिन्ने हते दग्धे देहे
वृत्तमारमा पमुच्यते तदै केनापि शब्देन एकधर्मप्रत्यायनमुखेन स्वमिव दूरगम् । प्रपश्यन् वर्षवातादिदुःस्त्रैरपि न कम्पते ।७४ - पहले
तदारमकत्वमापन्नस्य अनेकाशेषरूपस्य प्रतिपादनसंभवात योगपद्यम् । संहननवालेके ही शुक्लध्यान कहा है क्योंकि इस संहननवालेकाही
तत्र यदा यौगपद्य तदा सकलादेशः, स एव प्रमाण मित्युच्यते । चित्त ऐसा होता है कि शरीरको छेदने, भेदने, मारने और जलानेपर
'सकलादेशः प्रमाणाधीनः' इति वचनात। -जब उन्हीं अस्तित्वादि भी अपने आत्मको अत्यन्त भिन्न देखता हु। चलापमान नहीं
धमौकी कालादिककी दृष्टिसे अभेद विवक्षा होती है तब एक भी होता, न वर्षाकाल आदिके दुःखों से कम्पायमान होता है ।६-७।
शब्दके द्वारा एक धर्ममुखेन तादात्म्य रूपसे एकत्वको प्राप्त सभी त. अनु. ८४ यत्पुनर्वकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः। श्रेण्योनि
धोका अखंड भावसे युगपत्त कथन हो जाता है। यह सकलादेश प्रतीत्योक्तं तन्नाथस्तन्निषेधकम् ।८।। - 'वज्र कायस्य ध्यानं
कहलाता है । सकलादेश प्रमाण रूप है। कहा भी है-सकलादेश ऐसा जो वचन निर्देश है वह दोनों श्रेणियों को लक्ष्य करके कहा गया
प्रमाणाधीन है। (श्लो. वा. २/२/६/१४/४५१/१५), (स्या. म./२३/ है इसलिए वह नोचेके गुणस्थानवर्तियों के लिए ध्यान का निषेधक
*२८३/१०)। नहीं है (पं. का./ता, वृ./१२६/२१२/१४), (द्र. सं./टी./५७/२३२/४) ।
श्लो.बा.२/१/६/५६/पृष्ठ सं./पंक्ति सं. धर्मिमात्रबचनं सकलादेशः धर्मद्र. सं /टी./५७/२३२/६ उपशमक्षपक श्रेण्योः शुक्लध्यानं भवति,
मात्रकथन तु बिकलादेश इत्यप्यसारम्, सत्त्वाद्यन्यतमेनापि धर्मेणातच्चोत्तमसंहननेनैव, अपूर्वगुणस्थानादधस्तनेषु गुणस्थानेषु धर्म
विशेषितस्य धर्मिणो वचनासंभवात् । धर्ममात्रस्य क्वचिद्धर्मिण्य. ध्यान, तच्चादिमत्रिकोत्तमसंहननाभावेऽप्यन्तिमत्रिकसंहननेनापि
वर्तमानस्य वक्तुमशक्तेः । स्याज्जीव एव स्यादस्त्येवेति धर्मिमात्रस्य भवति । - उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी में जो ध्यान होता है वह
च धर्ममात्रस्य वचनं संभवत्येवेति चेद, न, जीवशब्देन जीवत्वउत्तम संहनन से ही होता है, किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थानसे नीचे
धर्मात्मकस्य जीववस्तुनः कथनादस्तिशब्देन चास्तित्वस्य कचिद्विके गुणस्थान में जो धर्मध्यान होता है वह पहले तीन उत्तर संहननके
शेष्ये विशेषणतया प्रतीयमानस्याभिधानात । (४५६/११) सकलाप्रतिअभाव होने पर भी अन्तिमके तीन संहननसे भी होता है।
पादकत्वात् प्रत्येक सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना
युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात ४६०/२३. यदि ६. स्त्रीको उत्तम संहनन नहीं होती
पुनरस्तित्वादिधर्मसप्तकमुखेनाशेषानम्तसप्तभङ्गीविषयानन्तधर्मसप्तक - मो. क //३२ अंतिम तियसंहणणस्सुदओ पुण कम्मभूमिमहिलाणं ।
स्वभावस्य बस्तुनः कालादिभिरभेद वृत्त्या भेदोपचारेण प्रकाशनारसआदिमतिगसंहडणं णस्थिति जिणे हिं णिद्दिष्टं। कर्म भूमिकी दादिसप्तविकल्पात्मकवाक्यस्य सकलादेशत्व सिद्धिस्तदा स्यादस्त्येव स्त्रियों के अन्तके तीन अर्द्धनाराच आदि संहननका ही उदय होता जोबादिवस्त्वित्यस्य सक्लादेशत्वमस्तु । विवक्षितास्तित्वमुखेन है, आदिके तीन वज्रऋषभनाराचादि संहननका उदय नहीं होता।
शेषानन्तधर्मात्मनो वस्तुनस्तथावृत्त्या कथनात् (४६२/१) =१. केवल (पं.का./ता. इ./प्रक्षेपक/२२५-८/३०४ पर उदधृत)।
धर्मीको कथन करनेवाला वाक्य सकलादेश है और केवल धर्मको ७. अन्य सम्बन्धित विषय
कथन करना हो तो विकलादेश है। इस प्रकार लक्षण साररहित है १. किस संहननवाला जीव मरकर कहाँ उत्पन्न हो
क्योंकि अस्तित्व नास्तित्वादि धर्मों मेंसे किसी एक भी धर्मसे तथा कौन सा गुण उत्पन्न करनेको समर्थ हो। -दे. जन्म/६ ।
विशिष्ट नहीं किये गये धर्मीका कथन असम्भव है। अर्थात सम्पूर्ण २. संहनन नाम कर्मकी बन्ध उदय सत्त्र प्ररूपणाएँ
धर्मोंसे रहित शुद्ध वस्तुका निरूपण नहीं हो सकता है। किसी न
किसी धर्मसे युक्त हो धर्मीका कथन किया जा सकता है । (स. भ.त.. तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान ।
-दे. वह वह नाम। १७/१) २. कथंचित जीव ही है, इस प्रकार केवल जीवद्रव्य रूप ३. सल्लेखनामें संहनन निर्देश।
-दे. सहलेखना/३। धर्मीको कहनेवाला वचन विद्यमान है, और 'कथं चित् है ही' ऐसे सककापिर-भरतक्षेत्र दक्षिण आर्य खण्डका एक देश-दे,
केवल अस्तित्व धर्मको कहनेवाला वाक्य भी सम्भवता है। ऐसा मनुष्य/४1
कोई कटाक्ष करते हैं। सो ऐसा तो नहीं कहना क्योंकि धर्मी वाचक सकलकीत-मन्दीसंघ बलात्कार गणकी ईडर गद्दी पर यह
जीव शब्द करके प्राणधारणरूप जीवख धर्मसे तदात्मक हो रही जीव
वस्तु कथन को गयी है केवल धर्मीका ही कथन नहीं। और धर्मपद्मनन्दिनं.१ के शिष्य तथा भुवनकी तिके गुरु, संस्कृत एवं प्राकृत
वाचक अस्ति शब्द करके किसी विशेष्य में विशेषण होकर प्रतीत किये बाङ्मय के संरक्षक, अनेकानेक ग्रन्थों के रचयिता। कृतियें मूलाधार
जा रहे हो अस्तित्वका निरूपण किया गया है कोरे अस्तित्वधर्मका प्रदीप, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सिद्धान्तसार दीपक, तत्त्वार्थसार
नहीं ।४५६/११॥ ३.अस्तित्व नास्तित्व आदि धर्मोको कहनेवाले, दीपक, आगमसार, द्वादशानुप्रेक्षा, समाधिमरणोत्साह दीपक, सार
सातों भी बाक्य यदि प्रत्येक अकेले बोले जाँय तो सकलादेश है इस चतुर्विशतिका, सद्भाषितावली, परमात्मर ज स्तोत्र, पंचपरमेष्ठी
प्रकार दूसरे अन्यवादी कह रहे हैं। वे भी युक्ति और शास्त्र प्रमाणमें पूजा. अष्टान्हिका पूजा. सोलहकारण पूजा, गणधरबलय पूजा, आदि
प्रवीण नहीं हैं क्योंकि युक्ति और आगम दोनोंका अभाव है। यों तो पुराण, उत्तर पुराण, पुराणसार संग्रह. सुकुमाल. धन्यकुमार आदि
उन सातो वाक्योंके समुदायको भी विकलादेशपनेका प्रसंग होगा। अनेकों चारित्र ग्रन्थ । समय-जन्म वि.१४४३, पट्टाभिषेक बि.१४७१,
अस्तित्वादि सातो वाक्य भी समुदित होकर भी सम्पूर्ण वस्तुभूत समाधि बि. १४६६1 (ई. १४२२-१४४२)। (ती./३/३२६): (दे,
अर्थ के प्रतिपादक नहीं है ।४६०/२३. ४. अस्तित्व आदि सातों धर्म की इतिहास ७/४)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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