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सकलादेश
प्रमुखता से शेष बचे हुए अनन्त सप्तभंगियोंके विषयभूत अनन्त संख्यावाले सातों धर्मस्वरूप वस्तुका काल, आत्म रूप आदि अभेद वृत्ति या भेदउपचार करके प्ररूपण होता है। इस कारण अस्तित्व नास्तित्व आदि सप्त भेद स्वरूप वाक्यको सकलादेशपना सिद्ध हो जाता है ऐसा विचार होनेपर हम कहेंगे कि तब तो 'स्यात् अस्ति एवं जीवादि वस्तु" किसी अपेक्षाजवादि वस्तु है ही इस प्रकार इस एक भगको सलादेशपन हो जाओ। क्योंकि विवक्षा किये गये एक अस्तित्व धर्मकी प्रधानता करके शेष बचे हुए अनन्त धर्म स्वरूप वस्तुका तिस प्रकार अभेद वृत्ति या अभेद उपचारसे कथन कर दिया गया है (४६२/१) ।
पा, १/१.१३-१४/१९७० / २०२ / २ कयमेतेषां समानयान का देशनः एकधर्मप्रधानभावेन साकल्येन वस्तुनः प्रतिपादकत्वाद। सकलमादिशति कथयतीति सफलादेशः न च त्रिकालमोचरानन्तधर्मोपचितं वस्तु स्यादस्तीत्यनेन आदिश्यते तथानुपलम्भात् ततो नैते सकलादेशा इति; न; उभयनयविषयीकृतविधिप्रतिषेधधर्मव्यतिरिक्तत्रिकालो चरानन्तधर्मानुपलम्भात् उपसा व्य पर्यायार्थिकनयाभ्यां व्यतिरिक्तस्य तृतीयस्य नयस्यास्तित्वमास - जेत्, न चैवम् । - प्रश्न- इन सातों (स्यादस्ति आदि ) सुनयरूप वाक्योंको सकला देशपना कैसे प्राप्त है ? उत्तर- ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि ये सुनय वाक्य किसी एक धर्मको प्रधान करके साकल्य रूप से वस्तुका प्रतिपादन करते हैं, इसलिए ये सकलादेश रूप हैं; क्योंकि साकल्य रूपसे जो वस्तुका प्रतिपादन करता है वह सकलादेश कहा जाता है। प्रश्न- त्रिकाल के विषयभूत अनन्त धर्मोसे उपचित वस्तु 'कथंचित् है' इस एक वाक्यके द्वारा तो कही नहीं जा सकती है, क्योंकि एक धर्म के द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तुका ग्रहण नहीं देखा जाता है। इसलिए उपर्युक्त सातों पाका सकतादेश नहीं हो सकते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि हस्याधिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंके द्वारा विषय किये गये विधि और प्रतिषेध रूप धर्मोंको छोड़कर इससे अतिरिक्त दूसरे त्रिकालवर्ती अनन्त धर्म नहीं पाये जाते हैं। अर्थात् वस्तुमें जिसने धर्म हैं वे या तो विधि हैं या प्रतिषेधरूप, विधि और प्रतिषेधसे हि धर्म नहीं है। सवा विधिरूप धर्मोको द्रव्यार्थिक नय विषय करता है । यदि विधि और प्रतिषेध के सिवाय दूसरे धर्मोका सद्भाव माना जाय तो द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके अतिरिक्त एक तीसरे नयको मानना पड़ेगा परन्तु ऐसा है नहीं।
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सभंत / पृष्ठ /
अत्र केचित् अनेकधर्माविषय जनकवाक्यत्वं सकलादेशत्वं । तेषां प्रमाणवाक्यानां नयवाक्यानां च सप्तविधत्वव्याघातः । (१६ / ३) 1 सिद्धान्तविदस्तु एकधर्मबोधनमुखेन तदात्मकाने काशेषधर्मात्मक वस्तुविषयक बोधजनकवाक्यत्वम् । तदुक्तम् : 'एकगुणमुखेन शेषवस्तुरूपसङ्घात्मक् लादेश', इति । ( १६ / ६) । - यहाँपर कोई ऐसा कहते हैं: सत्य असत्य आदि अनेक धर्म रूप जो वस्तु है उस वस्तु विषय भोजन अर्थात वस्तु के अनेक धर्मोका ज्ञान करानेवाला सकलादेश है ।... उनके मत में प्रमाण वाक्योंके तथा नय वाक्योंके भी सात प्रकारका भेद नहीं सिद्ध होगा । (१६/३) सिद्धान्तवेशा ऐसा कहते हैं कि एक धर्म के बोधन के मुख से उसको आदि के सम्पूर्ण जो धर्म है उन सब धर्म स्वरूप जो वस्तु तादृश वस्तु विषयक बोधजनक जो वाक्य हैं उनको सकलादेश कहते हैं । इसी बात को अन्य आचार्यने भी कहा है । 'वस्तुके एक धर्म के द्वारा शेष सर्व वस्तुओंके स्वरूपोंका' संग्रह करनेसे सकला देश कहलाता है।
' * 'नय कथंचित् सकलादेश है - दे. सप्तभंगी / २ ।
★ प्रमाण सकलादेश हैन // २१
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सकलेन्द्रिय जीव - दे. इन्द्रिय / ४ | सक्तनिभ
- एक ग्रह - दे. ग्रह ।
सक्ता जीवको सक्ता कहनेको विवक्षा- दे. जीव / १ / ३ ।
सगर - १. म. पु. / सर्ग / श्लोक पूर्व भव नं. २ में विदेह में बरसकावती देशका राजा जयसेन था (४८/५) तथा पूर्व भनमें अच्युत स्वर्ण महाकाल नामक देव था ( ४८ /६८ ) । इस भवमें कौशल देशके वावशी राजा समुद्रविजयका पुत्र था (४८/०१-०२) तथा प. पु. '५/७४ की अपेक्षा इसके पिताका नाम विजयसागर था । यह द्वितीय चक्रवर्ती था ( दे. शलाकापुरुष ) | दिग्विजय करके भोगोंमें आसक्त हो गया । यह देखकर पूर्व भवके मित्र मणिकेतु नामक देवने अनेक दृष्टान्त दिखाकर इसको सबोधा। जिसके प्रभाव से यह विरक्त होकर मुक्त हो गया (४८/१३६-१३७ ) । यह अजितनाथ भगवाका मुख्य श्रोता था ३० तीर्थंकर २. म. पू. / ६० / श्लोक मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के समय में भरत चक्रवर्तीके बाद इक्ष्वाकुवंशमें असंख्यात राजाओंके पश्चात् तथा दसवें चक्रवर्ती के १००० वर्ष पश्चात् अयोध्या में राजा हुआ था। उस समय रामचन्द्रका ५५वाँ कुमार काल था । एक बार सुलसा कन्याके स्वयंवर में मधुपिंगलको छल से वरके दुष्ट लक्षणों से युक्त बता कर स्वयं सुलसा से विवाह किया। राम मधुगिने असुर बनकर पर्वत नामक ब्राह्मण की सहायतासे ( १५४-१६०) वैर शोधनके अर्थ यज्ञ रचा। जिसमें उसको बलि चढ़ा दिया गया (६७/३६४ ) |
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सचित्त - जीव सहित पदार्थोंको सचित्त कहते हैं। सूखनेसे, अग्निपर पकने से कटने छटने से अथवा नमक आदि पदार्थोंसे संसक्त होनेपर वनस्पति, जल आदि पदार्थ अचित्त हो जाते हैं। व्रती लोग सचिन्त पदार्थोंका सेवन नहीं करते ।
सचित्त
१. सचित्त सामान्यका लक्षण
स.सि./२/१२/१००/१० आरमनश्चेतश्यविशेषपरिणामश्चित सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः ।
स.सि./७/३६/३७१/६ सह चित्तेन वर्तते इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् | = १. आत्मा के चैतन्य विशेषरूप परिणामको चित्त कहते हैं । जो उसके साथ रहता है वह सचित कहलाता है (रा. वा./२/१२/१/१४१/२२) २, जो चित सहित है वह सचित्त कहलाता है (रा. वा./७/२३/१/५५९)।
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२. सचित त्याग प्रतिमाका लक्षण
चा सा./२०११)
रा./१४१ शाखाकर प्रसूनानि नामानि योऽति सोऽयं पितविरतो दयावृतिः जो करचे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, जमीकन्द, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दयाकी मूर्ति सचित त्या प्रतिमा है ।९४१ ( का अ./मू./३७१-३८०) (ला. सं./०/९६) सुश्रा/२६५ बजिरहरियं सुपादीयं अप्पासुग च सलिलं सचित्तणित्रित्ति तं ठाणं । जहाँपर हरित, कू (छाल), पत्र, प्रवाल, कन्द, फल, बीज और अप्रामुक जल त्याग
किया जाता है वह सचित्त विनिवृत्तिवाला पाँचवाँ प्रतिमा स्थान
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है (गुण. आ. १७८ : (व. सं./टी./ ४५/११७/८ ) । सा. घ. ०-१० हरिताली बजाया जाकृष्यतुनिष्ठः सरितः स्मृतः पावेनापि स्मृनर्थ-बशायीऽति ऋतीयते । हरितान्याश्रितानन्त- निगोतानि स भोक्ष्यते || अहो जिनोक्ति निर्णोतिरहो असजिति सताए नामजप दरिय प्यासन्त्येते सुक्षयेऽपि यत् | १०|- प्रथम चार प्रतिमाओं का पालक तथा
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