Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 159
________________ संस्कार १५२ २. संस्कार कर्म निर्देश इन्द्र के योग्य सुख भोगते हुए देवलोक में चिरकाल तक रहना ।२००२०११ ३७. इन्द्र त्याग क्रिया-आयुके अन्त में शान्ति पूर्वक समस्त वैभवका त्याग कर तथा देवोंको उपदेश देकर देवलोकसे च्युत होना ।२०२-२१३।३८. इन्द्रावतार क्रिया-सिद्ध भगवान्को नमस्कार करके, १६ स्वप्नों द्वारा माताको अपने अवतारकी सूचना देना ।२१४-२१६। ३६. हिरण्योत्कृष्ट जन्मता-छह महीने पूर्व से ही कुबेर द्वारा हिरण्य, सुवर्ण व रत्नोंकी वर्षा हो रही है जहाँ, तथा श्री ह्री आदि देवियाँ कर रही हैं सेवा जिसकी, ऐसा तथा शुद्ध गर्मवाली माताके गर्भ में तीन ज्ञानोको लेकर अवतार धारण करना ।२१७-२२४॥ ४०, मन्दराभिषेक क्रिया-जन्म धारण करते ही नवजात इस बालकका इन्द्र द्वारा सुमेरु पर्वतपर अभिषेक किया जाना ।२२५-२२८। ४१. गुरु पूजन क्रिया-बिना शिक्षा ग्रहण किये तीनों जगत्के गुरु स्वीकारे जाना ।२२१-२३०१ ४२. यौवराज्य क्रिया-पूजन अभिषेक पूर्वक युवराज पटका बाँधा जाना।२३१॥ ४३. स्वराज्य क्रिया -- राज्याधिपतिके स्थानपर निष्ठ होना ।२३२॥ ४४. चक्रलाभ क्रियापुण्यके प्रतापसे नव निधि व चक्ररत्नकी प्राप्ति ।२३३। ४५. दिशांजय क्रिया-षट् खण्ड सहित समुद्रान्त पृथिवी को जीतकर वहाँ अपनी सत्ता स्थापित करना ।२३४। ४६. चक्राभिषेक क्रिया-दिग्विजय पूर्ण कर नगर में प्रवेश करते समय चक्रका अभिषेक करना। नगर के लोग चक्रवर्ती पद पर आसीन उनके चरणों का अभिषेक कर चरणोदकको मस्तकपर चढ़ाते हैं ।२३५-२५२॥ ४७. साम्राज्य क्रिया -शिष्टोंका पालन व दुष्टों का निग्रह करनेका तथा प्रेम व न्याय पूर्वक राज्य करनेका उपदेश अपने आधीन राजाओंको देकर सुखपूर्वक राज्य करना ।२५३-२६५३४८. निष्क्रान्ति क्रिया-वैराग्य पूर्वक राज्यको त्यागना, लौकान्तिक देवों द्वारा सम्बोधनको प्राप्त होना। क्रमसे मनुष्यों, विद्याधरों व देवों द्वारा उठायी हुई शिविकापर आरूढ होकर वनमें जाना । वस्त्रालंकारको त्याग कर सिद्धोंकी साक्षीमें दिगम्बर बतको धारण कर पंचमुष्टि केश लौंच करना आदि क्रियाएँ ।२६.६.२६४। ४६.योग सम्मह क्रिया-ज्ञानाध्ययनके योगसे उत्कृष्ट तेज स्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति २६५-३००१ ५०. आर्हन्त्य क्रिया-समवशरणकी दिव्य रचनाकी प्राप्ति ।३०१-३०३। ५१. विहारक्रिया-धर्मचक्रको आगे करके भब्य जीवों के पुण्यसे प्रेरित, उनको उपदेश देनेके अर्थ उन अर्हन्त भगवान्का विहार होना।३०४। ५२. योग त्याग क्रिया-केवलिसमुद्धात करके मन, बचन, काय रूप योगोंको अत्यन्त निरोध कर, अत्यन्त निश्चल दशाको प्राप्त होना ।३०५-३०७। ५३. अग्रनिवृत्ति क्रिया- समस्त अघातिया कर्मों का भी नाश कर, विनश्वर शरीरसे सदाके लिए नाता तुड़ाकर उत्कृष्ट व अविनश्वर सिद्ध पद को प्राप्त हो, लोक शिखरपर अष्टम भूमिमे जा निवास करना 1३०८-३०६॥ प्राणी अवतार धारण करता है।६-३५॥ २. वृत्तिलाभ क्रिया-गुरुके द्वारा प्रदत्त बतोको धारण करना ॥३६॥ ३. स्थानलाभ क्रियागृहस्थाचार्य उसके हाथसे मन्दिर जी में जिनेन्द्र भगवान के समवशरण की पूजा करावे। तदनन्तर उसका मस्तक स्पर्श करके उसे श्रावककी दीक्षा दे । पंच मुष्टि लौंचके प्रतीक स्वरूप उसके मस्तकका स्पर्श करे। तत् पश्चात विधि पूर्वक उसे पंच नमस्कार मन्त्र प्रदान करे।३७-४४। ४. गण ग्रहणक्रिया-मिथ्या देवताओंको शान्ति पूर्वक विसर्जन करता हुआ अपने घरसे हटाकर किसी अन्य योग्य स्थानमें पहुँचाना ।४५-४८० १. पूजाराध्य क्रिया-जिनेन्द्र देवकी पूजा करते हुए द्वादशांगका अर्थ ज्ञानी जनोंके मुख से सुनना ।४ . पुण्य यज्ञक्रिया-साधर्मी पुरुषोंके साथ पुण्य वृद्धिके कारणभूत चौदह पूर्व विद्याओंका सुनना ।१०। ७. दृढचर्या क्रिया-शास्त्र के अर्थका अवधारण करके स्वमतमें दृढता धारना । ८ उपयोगिता क्रिया-पर्व के दिन उपवासमें अर्थात् रात्रिके समय प्रतिमा योग धारण करके ध्यान करना ।।२।६. उपनीति क्रियाब्रह्मचारीका स्वच्छवेश व यज्ञोपवीत आदि धारण करके शास्त्रानुसार नाम परिवर्तन पूर्वक जिनमत में श्रावककी दीक्षा लेना ।५३१६।२०, व्रतचर्या क्रिया - तदनन्तर उपासकाध्ययन करके योग्य यतादि धारण करना ।५७। ११. व्रतावरण क्रिया-विद्याध्ययन समाप्त हो जानेपर गुरुको साक्षी में पुनः आभूषण आदिका ग्रहण करके गृहस्थमें प्रवेश करना।८।१२. विवाह क्रिया-स्व स्त्रीको भी अपने मतमें दीक्षित करके पुनः उसके साथ पूर्वरूपेण सर्व विवाह संस्कार करे ।५६-६०। १३. वर्णलाभक्रिया-समाजके चार प्रतिष्ठित व्यक्तियों से अपनेको समाजमें सम्मिलित होनेकी प्रार्थना करे और वे विधि पूर्वक इसे अपने वर्ण में मिला लें ।६१-७१। १४. कुलचर्या क्रिया- जैनकुल की परम्परानुसार देव पूजादि षट् आवश्यक क्रिया ओं में नियमसे प्रवृत्ति करना ।७२। १५. गृहीशिता बिया-शास्त्रमें पूर्ण अभ्यस्त हो जानेपर तथा प्रायश्चित्तादि विधिका ज्ञान हो जानेपर गृहस्थाचार्य के पदको प्राप्त होना ।७३-७४। १६. प्रशान्तता क्रिया-नाना प्रकारके उपवासादिको भावनाओंको प्राप्त होना ७५॥ १७. गृहत्याग क्रिया-योग्य पुत्रको नीति सहित धर्माचारकी शिक्षा देकर, विरक्त बुद्धि वह द्विजोत्तम गृह त्याग कर देता है ७६ १८.दीक्षाध क्रिया-एक वस्त्रको धारण करके बनमें जा क्षुलनककी दीक्षा लेना ७७। १६. जिनरूपता क्रिया-गुरुके समीप दिगम्बरी दीक्षा धारण करना ७८४ २०-४८. मौनाध्ययन वृत्ति-से लेकर अग्रनिवृत्ति क्रिया तक ये आगेकी सर्व क्रियाएँ गर्भान्वय क्रियाओं में नं २५ से नं. ५३ तकको क्रियाओं व जानना ७९-८० ३. दीक्षान्वयकी ४८ क्रियाओंका लक्षण म. पु/३६/१-८० अथाब्रवीद् द्विजन्मभ्यो मनदीक्षान्वयक्रियाः।१४... तदुन्मुखस्य या वृत्तिः पुंसो दीक्षेत्यसौ मता । तामन्विता क्रिया या तु सा स्याद दीक्षान्वया क्रिया ।।...यस्त्वेतास्तत्त्वतो ज्ञात्वा भव्यः समनुतिष्ठति । सोऽधिगच्छति निर्वाणम् अचिरात्सुखसाद्भवन् ।८०। इति दीक्षान्वय क्रिया । दीक्षान्वय सामान्य-बतको धारण करनेके सम्मुख व्यक्ति विशेषको प्रवृत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाओंको दीक्षान्वय क्रियाएँ कहते हैं ।१-५॥ १. अवतार क्रिया-मिथ्यात्वसे दूषित कोई भव्य समीचीन मार्गको ग्रहण करनेके सम्मुख हो किन्हीं मुनिराज अथवा गृहस्थाचार्य के पास जाकर, यथार्थ देव शास्त्र गुरु व धर्मके सम्बन्धमें योग्य उपदेश प्राप्त करके, मिथ्या मार्गसे प्रेम हटाता है और समीचीन मार्ग में बुद्धि लगाता है। गुरु ही उस समय पिता है, और तत्त्वज्ञान रूप संस्कार ही गर्भ है। यहाँ यह भव्य ४. कन्वयादि क्रियाओंके लक्षण म. पु./३८/६६ तास्तु कन्वया ज्ञया याः प्राप्याः पुण्यकर्तृभिः । फलरूपतया वृत्ताः सन्मार्गाराधनस्य वै ।६६- कर्त्तन्वय क्रियाएँ चे हैं जो कि पुण्य करनेवाले लोगोंको प्राप्त हो सकती हैं; और जो समीचीन मार्ग की आराधना करनेके फलस्वरूप प्रवृत्त होती हैं।६६। म.पु./३६/८०-२०७ अथातः संप्रवक्ष्यामि द्विजाः कन्वयक्रियाः ।। तत्र सज्जातिरित्याद्या क्रिया श्रेयोऽनुबन्धिनी। या सा वासन्नभव्यस्य नृजन्मोपगमे भवेत् ।८२२.. कृत्स्नकर्ममलापायात संशुद्धिर्याऽन्तरास्मनः । सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः सा नाभावो न गुणोच्छिदा ।२०६। इत्यागमानुसारेण प्रोक्ताः कन्वयक्रिया सप्ताः परमस्थानसंगतिर्यत्र योगिनाम् ।२०७१ -- १. सज्जाति क्रिया- रत्नत्रयकी सहज प्राप्तिका कारणभूत मनुष्य जन्म, उसमें भी पिताका उत्तम कुल और माताकी उत्तम जातिमें उत्पन्न हुआ कोई भव्य, जिस समय यज्ञोपवीत आदि संस्कारों को पाकर परब्रह्मको प्राप्त होता है, तब अयोनिज दिव्य ज्ञानरूपी गर्भ से उत्पन्न हुआ होनेके कारण सज्जातिको धारण जैनेन्द सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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