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संस्कार
२. संस्कार कर्म निर्देश
चार प्रकारको निर्मल बुद्धिके मलसे विनयपूर्वक बारह अंगका अबधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट सस्कारके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होनेपर इस भवमें पढ़ने-सुनने व पूछने
आदिके व्यापारसे रहित जीवकी प्रज्ञा औत्पत्तिकी कहलाती है। ल. सा./जी. प्र./६/४५/४ नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति । -नरकादि भवोंमे जहाँ उपदेशका अभाव है, वहाँ पूर्व भवमें धारण किये हुए तत्त्वार्थज्ञानके संस्कारके मलसे सभ्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है। (और भी दे० सम्यग्दर्शन/III) मो. मा. प्र./७/२८३/१० इस भवमें अभ्यास करि परलोक विषै तियंचादि गतिविर्षे भी जाय-तौ तहाँ संस्कारके बलसे देव गुरु शास्त्र बिना भी सम्यक्त्व होय जाय। ...तारतम्यतें पूर्व अभ्यास संस्कारतें वर्तमान इनका निमित्त न होय (देव-शास्त्र आदि निमित्त न होय) तौ भो सम्यक्त्व होय सके।
३. संस्कारके उदाहरण स, श /मू./३७ अविद्याभ्याससंस्कार रवशं क्षिप्यते मनः । तदेव ज्ञान
संस्कार: स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ।३७1 -अविद्याके अभ्यास रूप संस्कारोंके द्वारा मन स्वाधीन न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वहीं मन विज्ञान रूप संस्कारोंके द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूपमें स्थिर हो
जाता है। ध. ६/१,६-१,२३/४१/१० एदेहि जीवम्हि जणिदसंसकारस्स अणतेमु
भवेसु अवठ्ठाणभुवगमादो। -इन (अनन्तानुबन्धी) कषायोंके द्वारा जीवमें उत्पन्न हुए संस्कारका अनन्त भवों में अबस्थान माना
गया है। ध. ८/३,३६/७३/१ तिस्थयराइरिय-बहुमुद-पवयण-विसयरागज णिद -
संसकाराभावादो। वहाँ ( अपूर्वकरणके उपरिम सप्तम भागमें ) तीर्थकर. आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन विषयक रागसे उत्पन्न हुए
संस्कारोंका अभाव है। ध.६/४.१,४५/१५४/३ आहितसंस्कारस्य कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तदसादिप्रययोत्पत्त्युपलम्भाच्च। - शब्द ग्रहणके काल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुषके उसके (शब्दके वाच्यभूत पदार्थ के ) रसादि विषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है।
४. पूर्व संस्कारका महत्त्व स. श./म./४५ जानन्नध्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि । पूर्व विभ्रमसंस्कारात भ्रान्ति भूयोऽपि गच्छति । - शुद्ध चैतन्य स्वरूपको जानता हुआ भी. और अन्य पदार्थोंसे भिन्न अनुभव करता हुआ भी पूर्व भ्रान्तिके संस्कारवश पुनरपि भ्रान्तिको प्राप्त
२. संस्कार कर्म निर्देश
१. गर्भान्वयादि क्रियाओंका नाम निर्देश म. पु./३८/५१-६८ गर्भावयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्धयक्रियाः। कर्बन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधैव बुधैर्मताः ॥५१॥ आधानाधास्त्रिपश्चाशत ज्ञेया गर्भान्वयक्रियाः। चत्वारिंशदथाष्टौ च स्मृता दीक्षान्वयक्रिया ।१२। कन्वयक्रियाश्चैव सप्त तज्ज्ञैः समुश्चिताः। तासा यथाक्रम नामनिर्देशोऽयमनूद्यते ।।३। अङ्गानां सप्तमादङ्गाद दुस्तरादर्णवादपि । श्लोकैरष्टभिरुन्नेष्ये प्राप्त ज्ञानल मया ।।४। (नोटआगे केवल भाषार्थ)। -गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कन्वय क्रिया इस प्रकार विद्वान् लोगोंने तीन प्रकारकी क्रियाएँ मानी हैं ।५१। गर्भावय क्रिया आधानादि तिरपन (५३) जाननी चाहिए। और दीक्षान्व्य क्रियाएँ अड़तालीस (४८) समझना चाहिए।२। इसके अतिरिक्त इस विषयके जानकार लोगों ने कत्रन्वय क्रियाएँ सात (७) संग्रह की है। अब आगे यथा कमसे उनका नाम निर्देश किया जाता है ।१३। जो समुद्रसे भी दुस्तर है, ऐसे १२ अंगोंमें सातवें अंग ( उपासकाध्ययनांग ) से जो कुछ मुझे ज्ञानका अंश प्राप्त हुआ है उसे मैं नीचे लिखे हुए श्लोकोंसे कहता हूँ ॥५५॥ केवल भाषार्थ-गर्भान्वयकी ५३ क्रियाएँ-१ गर्भाधान, २ प्रीति, ३ सुप्रीति, ४ धृति, ५ मोद, ६ प्रियोदभव, ७ नामकर्म, ८ बहिर्यान,
निषद्या, १० प्राशन, १९ व्युष्टि, १२ केशवाप, १३ लिपि संख्यान संग्रह. १४ उपनीति, १५वतचर्या, १६वतावरण, १७विवाह, १८ वर्णलाभ, १६ कुलचर्या, २०गृहीशिता, २१ प्रशान्ति, २२ गृहत्याग, २३ दीक्षाद्य, २४ जिन-रूपता, २५ मौमाध्ययन बतत्व, २६ तीर्थ कृतभावना, २७ गुरुस्थानाभ्युपगमन, २८ गणोपग्रहण, २६ स्वगुरुस्थान संक्रान्ति, ३०. निःसंगरवारमभावना, ३१ योगनिर्वाणसे प्राप्ति. २ योगनिर्वाणसाधन, ३३ इन्द्रोपपाद, ३४ अभिषेक, ३५ विधिदान, ३६ सुखोदय, ३७ इन्द्रत्याग, ३८ अवतार, ३६ हिरण्य स्कृष्टजन्मता, ४० मन्दरेन्द्राभिषेक, ४१ गुरुपूजोपलम्भन, ४२ यौवराज्य,४३ स्वराज, ४४चक्रलाभ.४५ दिग्विजय, ४६ चक्राभिषेक, ४७ साम्राज्य, ४८ निष्क्रान्ति, ४६ योगसन्मह, १० आहन्य, ५१ तद्विहार, ५२ योगत्याग, ५३ अग्रनिवृत्ति । परमागममें ये गर्भसे लेकर निर्वाण पर्यन्त १३ क्रियाएँ मानी गयी है। १५२-५३। २. दीक्षान्वयकी ४८ क्रियाएँ-१ अवतार, २ वृत्तलाभ, ३ स्थानलाभ, ४ गणग्रह, ५ पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, हनचर्या, उपयोगिता। इन आठ क्रियाओंके साथ (गर्भाग्यय क्रियाओंमें-से) उपनीति नामकी चौदहवी क्रियासे अग्रनिवृत्ति नामकी तिरपनवी क्रिया तककी चालीस क्रियाएँ मिलाकर कुल अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं।६४-६५। ३. कर्मन्वयको ७ क्रियाएँ-कन्वय क्रियाएं दे हैं जो कि पुण्य करनेवाले लोगोंको प्राप्त हो सकती हैं,
और जो समीचीन मार्गकी आराधना करनेके फलस्वरूप प्रवृत्त होती हैं ६६॥ १.सज्जाति, २ सदगृहित्य, ३ पारिवज्य, ४ सुरेन्द्रता साम्राज्य, ६ परमार्हन्त्य, ७ परमनिर्वाण । ये सात स्थान तीनों लोकों में उत्कृष्ट माने गये हैं और ये सातों ही अन्त भगवादके बचनरूपी अमृतके आस्वादनसे जीवोंको प्राप्त हो सकते हैं।६७-६॥ महर्षियोंने इन क्रियाओं का समूह अनेक प्रकार माना है अर्थात अनेक प्रकारसे क्रियाओं का वर्णन किया है, परन्तु मैं यहाँ विस्तार छोड़कर संक्षेपसे उनके लक्षण कहता हूँ।
द्र. सं./टी/३/१५६-१६०/६ सम्यग्दृष्टि...तत्र (शुद्धारमतत्त्वे) असमर्थः सन...परमं भक्ति करोति । तेन...पञ्चविदेहेषु गत्वा पश्यति... समवशरणं ... पूर्वभवभावितविशिष्टभेदज्ञानवासना( संस्कार )बलेन मोह न करोति, ततो जिनदीक्षां गृहीत्वा...मोहं गच्छति । -सम्यग्दृष्टि शुद्धात्मभावना भाने में असमर्थ होता है, तब वह परम भक्ति करता है।...पश्चात पंच विदेहों में जाकर समवशरणको देखता है। पूर्व जन्ममें भावित विशिष्ट भेदज्ञानकी बासना (संस्कार) के बलसे मोह नहीं करता अतः दीक्षा धारण करके मोक्ष पाता है। * शरीर संस्कारका निषेध-दे० साधु/२/७ । * धारणा ज्ञान सम्बन्धी संस्कार-दे० धारणा। * रजस्वला स्त्री व सूतक पातक आदि-दे० सूतक।
२. गर्भान्वयकी ५३ क्रियाओंके लक्षण म. पु./३०/७०-३१० आधाम नाम गर्भादी संस्कारो मन्त्रपूर्वकः । पत्नीमृतुमती स्नाता पुरस्कृत्याह दिज्यया ७०। .....अत्रापि पूर्वबहानं जैनी पूजा च पूर्ववत । इष्टमन्धसमाहानं समाशादिश्च लक्ष्यताम् 189 ...क्रियाप्रनिवृति म परानिर्वाणमायुषः । स्वभाव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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