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संसार
चार स्थानानि एवं सर्वे कर्मणां परिवर्तनको वेदितव्यः
प्रकृतीनामुतरप्रकृतीनां च तस्य समुदित भावपरिवर्तनम्। - भाव परिवर्तनका कथन करते हैं- पंचेंद्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिध्यादृष्टि कोई एक जीव ज्ञानावरण प्रकृतिकी सबसे जघन्य अपने योग्य अन्ताफोड़ा-फोड़ी प्रमाण स्थितिको प्राप्त होता है उसके उस स्थितिके योग्य षट्स्थान पतित असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थान होते हैं। और सबसे जघन्य इन कषाय अध्यवसाय स्थानों के निमित्तसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थान होते हैं । इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषाय अध्यवसाय स्थान और सबसे जधन्य अनुभाग अध्यवसाय स्थानको धारण करनेवाले इस जीवके तद्योग्य सबसे जघन्य योग स्थान होता है। तत्पश्चात् स्थिति कषाय अध्यवसाय स्थान और अनुभाग अध्यवसाय स्थान वहीं रहते हैं किन्तु योगस्थान दूसरा हो जाता है जो असंख्यात भाग वृद्धि संयुक्त होता है। इसी प्रकार तीसरे, चौथे आदि योग स्थानों में समझना चाहिए। ये सब योग-स्थान चार स्थान पतित होते हैं, और इनका प्रमाण श्रेणी के असंख्यातवें भाग है । तदनन्तर उसी स्थिति और उसी कषाय अध्यवसाय स्थानको धारण करनेवाले जोवके दूसरा अनुभाग अध्यवसायस्थान होता है इसके योगस्थान पहले के समान जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ भी पूर्वोक्त तोनों बातें ध्रुव रहती हैं किन्तु योगस्थान श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं । इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग अध्यवसाय स्थानो के होने तक तीसरे आदि अनुभाग अध्यवसाय स्थानों में जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यहाँ स्थिति और कषाय अध्यवसायस्थान तो जघन्य ही रहते हैं । किन्तु अनुभाग अध्यवसाय स्थान क्रमसे असंख्यात लोक प्रमाण हो जाते हैं और एक-एक अनुभाग अध्यवसाय स्थानके प्रति जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण योगस्थान होते हैं। तत्पश्चात् उसी स्थितिको प्राप्त होनेवाले जीवके दूसरा कषाय अध्यवसाय स्थान होता है, इसके अनु भाग अध्यवसाय स्थान और योगस्थान पहलेके समान जानना चाहिए। इस प्रकार असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थानों के होने तक तीसरे कषाय अध्यवसाय स्थानोंमें वृद्धिका क्रम जानना चाहिए। जिस प्रकार सबसे जघन्य स्थितिके कषायादि स्थान कहे हैं उसी प्रकार एक समय अधिक जघन्य स्थितिके भी कषायादि स्थान जानना चाहिए। और इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रमसे तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति तक प्रत्येक स्थिति विकल्पके भी कषायादि स्थान जानने चाहिए। अनन्तभागवृद्धि... ये वृद्धिके छह स्थान हैं तथा इसी प्रकार हानि भी यह प्रकारको है। इनमें सेना और अनन्तगुवृद्धि इन दो स्थानों कम कर देनेपर चार स्थान होते हैं। इस प्रकार सर्व सूत उत्तर प्रकृतियों के परिवर्तनका क्रम जानना चाहिए। यह सब मिलकर एक भाव परिवर्तन होता है । (द्र.सं./टी./३५/ १०४/८ ); (गो. जी./जी. प्र./५६०/६१२/२२ ) ।
८. पाँच परिवर्तनों में अल्पबहुस्व
ध.४/१५,४/३३४/७ अदीदकाले एगहस जीवस्स सम्बत्यो वा भावपरियट्ट बारा भवपरिवारा अनंतगुगा कालपरियहमारा अनंतगुणा । खेत्तपरियहवारा अनंतगुणा । प्रोग्गल परियट्टवारा अणं सगुणा । सन्त्र थोमोपोरिका परिकारया गुणो भनपरियका अगुतो भाग रियालो अनंतगुणो । १. अतीतकाल में एक जीवके सबसे कम भाव परिवर्तनके बार हैं। भव परिवर्तन के वार भावपरिवर्तन के वारोंसे अनन्तगुणे हैं। काल परिवर्तनके वार भव परिवर्तनके बारोंसे अनन्तगुणे हैं । क्षेत्र परिवर्तनके बार कालपरिवर्तन के बारोंसे अनन्तगुणे है परिवर्तन बार क्षेत्र परिवर्तन के वासे अनन्तगुणे हैं। २. पुदगल
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संस्कार
परिवर्तनका का सबसे कम है। क्षेत्र परिवर्तनका काल पुग परिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। कालपरिवर्तनका काल क्षेत्र परिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है । भव परिवर्तनका काल, काल परिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। भावपरिवर्तनका काल भवपरिवर्तन के काल से अनन्तगुणा है। (गो. जी./जी.प्र./५६०/६१४/३) । संसारानुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा ।
संसारी
१. जीवोंका एक भेद- दे. जीव/१ २. न च वृ./१०६ कम्मकलें कालीणा अलद्धससहावभावसन्भावा । गुणमग्गण जीवठिया जीवा संसारिणों भणिया | १०६ | - कर्म कलंकसे जो लिप्त हैं, स्वस्वभावको जिन्होंने प्राप्त नहीं किया। गुणस्थान, मार्गणास्थान तथा जीवस्थानमें जो स्थित है वे संसारी जी कहे गये हैं। पं.का./ता../१०१/१०२/१३ कर्मचेतनाक फसवेतनात्मका: संसाकर्म व कर्म फलचेतनारि:... अशुद्धोपयोगयुक्ताः संसारिणः । त्मक संसारी जीव हैं। ...संसारी जीव अशुद्धोपयोग से युक्त हैं । .../१४ मद्धो यथा स ससारी स्यादधस्वरूपवान् पितो = जो अनादिकाल से आठ नादितोऽष्टाभिधावृतिकर्मभिः । कमसे मोहित होकर अपने स्वरूपको नहीं पाने वाला और मेधा हुआ वह संसारी जीव है।
संस्कार व्यक्ति जीवनकी सम्पूर्ण शुभ और अशुभ वृत्ति उसके संस्कारोंके अयोग है, जिनमें से कुछ मह पूर्व से अपने साथ लाता है, और कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदिके प्रभाव से उत्पन्न करता है इसीलिए गर्म में आनेके पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करनेके लिए विधान बताया गया हैं। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर जिनेन्द्र पूजन व मन्त्र विधान सहित ५३ क्रियाओंका विधान है, जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाणका भाजन बन जाता है।
१. संस्कार सामान्य निर्देश
१. संस्कार सामान्यका लक्षण
सि.वि././१/५/३४/१४ वस्तुस्वभावोऽयं यत् संस्कार स्मृतिबीजमादधीत । वस्तुका स्वभाव ही संस्कार है। जिसको स्मृतिका बीज माना गया है।
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स. श./टी./२०/२३६/८ शरीरादी स्थिरात्मीया विज्ञानाम्यविद्यास्ता सामम्य सः पुनः पुनः प्रवृत्तिस्तेन जनिताः संस्कारा वासनास्ते कृत्वा । - शरीरादिको शुचि स्थिर और आत्मीय मानने रूप जो अविद्या अज्ञान है उसके पुनः पुनः प्रवृत्ति रूप अभ्यास से उत्पन्न संस्कार अर्थात् वासना द्वारा करके...| पं.का./२०१६मस्कार करोति स आत्मसंस्कारः । = निज परम आत्मामे शुद्ध संस्कार करता है वह आत्म संस्कार है ।
२. पति ज्ञान के संस्कार साथ जाते हैं
. आ / २८६ विपण सुदमधीदं जदिवि पमादेश होदि विस्सरिव समुद्वादि परभ केलाच महादि विनयसे पड़ा हुआ • शास्त्र किसी समय प्रमादसे विस्मृत हो जाये तो भी वह अन्य जन्ममें स्मरण हो जाता है, संस्कार रहता है और क्रमसे केवलज्ञानको प्राप्त कराता है । ( ध १ / ४.१.१८ / गा २२ / -२ ) ।
घ. ३/४.१.१०/०२/२१ तत्थ जम्सरेहम्मिसमदमले निपाहा विवाहसंगस्स देबेसुरपति मधु विकारेप्पण्णस्स एत्थ भवम्मि पढग सुणण-पुंच्छणवावारविरहियम्स अउ - पत्तियाँ णाम । उनमें (चार प्रकार प्रज्ञाओं में ) जन्मान्तर में
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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