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संसार
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२. पंच परिवर्तनरूप संसार निर्देश तम् । तत्र परमार्यकालवतितपरिस्पन्देतरपरिणामविकल्पः तत्पूर्वक- दो भेद हैं..नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और कर्मदव्य परिवर्तन । (ध. कालव्यपदेशौपचारिककालावृत्तिः कालसंसारम् । भवनिमित्तः ४/१,५.४/३२५/७ ); (गो, जी./जी. प्र./५६०/८/१४) । २. यह संसारः द्वात्रिंश द्विधः-पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकाः प्रत्येकं चतुविधाः पुद्गल (नोकर्म) परिवर्तनकाल तीन प्रकारका होता है- अगृहीत. सूक्ष्मवादर पर्याप्तकापातकभेदात् । बनस्पतिकायिका द्वेधा-प्रत्येक- ग्रहण काल, गृहीतग्रहण काल और मिश्र काल । शरीराः साधारण शरारोश्चेति । प्रत्येक शरीरा द्वेधा-पर्याप्तका
३. द्रव्यपरिवर्तन निर्देश पर्याप्तकभेदात् । साधारणशरीराश्चतुर्धा सूक्ष्मवादर पर्याप्तकापर्याप्तकविकल्पात। विकले न्द्रिया प्रत्येक द्विधा पर्याप्तकापर्याप्त कवि स. सि./२/१०/१६५/२ तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं नाम त्रयाणां शरीकल्पात। पञ्चेन्द्रियाश्चतुर्धा सक्ष्यसज्ञिपर्याप्तकापर्याप्तकापेक्षयेति । राणां षण्णां पर्याप्तीनां च योग्या ये पुद्गला एकेन जीवेन एक स्मिभावनिमित्तो संसारो द्वधा स्वभावपरभावाश्रयात्। स्वभावो समये गृहीताः स्निग्धरूपवर्ण गन्धादिभिस्तीवमन्दमध्यमभावेन च मिथ्यादर्शनादि पर भावो ज्ञानावरणादिकम रसादिः। - १. कर्म यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निजी अगृहीताननन्तवारानमोकर्म वस्तु और विषयाश्रयके भेदसे द्रव्यसंसार चार प्रकारका तीत्य मिश्रकाश्चानन्तवारानतीत्य मध्ये गृहीताश्चानन्तवारानतात्य है। २. स्वक्षेत्र , और परक्षेत्रके भेदसे क्षेत्रसंसार दो प्रकारका त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्म भावमापद्यन्ते यावत्ता." है। लोकाकाशके समान असंख्य प्रदेशी आत्माको कर्मोदयवश वत्समुदितं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनम्। कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यतेसंहरणविसर्पण स्वभाव के कारण जो छोटे-बड़े शरीरमे रहना है एकस्मिन्समये एकेन जीवेनाष्टविधकर्मभावेन ये गृहीताः पुद्गलाः वह स्वक्षेत्र संसार है। सम्मूर्छन गर्भ उपपाद आदि नौ प्रकारकी समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जी, पूर्वोक्तेयोनियोंके आधीन परक्षेत्र संसार है। ३. काल व्यवहार और पर- नैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते मार्थ के भेदसे दो प्रकारका है ।... परमार्थ कालके निमित्तसे होनेवाले यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनं उक्तं च-"सव्वे घि पुगला खलु परिस्पन्द और अपरिस्पन्दरूप परिणमन जिनमें व्यवहारकालका कमसो भुत्तुझिया य जीवेण । असई अणं तरबुत्तो पुग्गल परियट्टविभाग भी होता है कालसंसार है। ४. भवनिमित्त संसार बत्तीस संसारे।" == नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनका स्वरूप कहते हैं-किसी एक प्रकार का है -सूक्ष्म, बादर और पर्याप्त व अपर्याप्तके भेदसे चार-चार जीवने तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको एक प्रकारके-पृथिवी, जल, तेज और वायुकायिक; पर्याप्तक और अपर्या
समयमें ग्रहण किया। अनन्तर वे पुद्गल स्निग्ध या रूक्ष स्पर्श तथा तक प्रत्येक वनस्पति-सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्तक ये चार वर्ण और गन्ध आदिके द्वारा जिस तीव्र, मन्द और मध्यम भावसे साधारण जनस्पति; पर्याप्तक और अपर्याप्तकके भेदसे दो दो प्रकार- ग्रहण किये थे उस रूपसे अवस्थित रहकर द्वितीयादि समयों में के-बोन्द्रिप, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय; संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्तक
निर्जीर्ण हो गये। तत्पश्चात् अगृहीत परमाणुओंको अनन्तबार ग्रहण और अपर्याप्तक ये चार पंचेन्द्रिय इस प्रकार बत्तीस प्रकार भवसंसार करके छोड़ा, मिश्र परमाणुओंको अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा हैं। ५.भावनिमित्तिक संसारके दो भेद हैं स्वभाव और परभाव ।
और बीच में गृहीत परमाणुओंको अनन्त बार ग्रहण करके मिथ्यादर्शनादि स्वभाव संसार हैं तथा ज्ञानाचरणादि कर्मोका रस छोड़ा। तत्पश्चात जब उसो जीवके सर्वप्रथम ग्रहण किये गये परभाव संसार हैं।
वे ही परमाणु उसी प्रकारसे नोकर्म भाव को प्राप्त होते हैं, तब यह सब प्र. सा./ता. प्र./ यस्तु परिणममानस्य द्रव्यस्य पूर्वोत्तरदशापरि- मिलकर एक नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन है। अब कर्मद्रव्यपरिवर्तनका प्यागोपादानात्मक क्रियाख्यपरिणाम तरसंसारस्य स्वरूपम् । कथन करते हैं-एक जीबने आठ प्रकारके अमरूपसे जिन पुद्गलोको -परिणमन दरते हुए द्रव्यका पूर्वोत्तर दशाका त्याग-ग्रहणात्मक ग्रहण किया वे समयाधिक एक आवलीकालके बाद द्वितीयादिक क्रिया नामक परिणाम है सो वह ( भाव ) संसारका स्वरूप है।
समयों में भर गये। पश्चात् जो क्रम नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन में बतलाया प्र.सा./ता. वृ./988 मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपेण भावसंसारे
है उसी क्रमसे वे ही पुद्गल उसी प्रकारसे उस जीवके जब कर्मभावपतन्त...... -मिथ्यात्व रागादिके संसरणरूप भाव संसारे...
को प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्म द्रव्यपरिवर्तन होता * जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोदसे निक- है। "इस जीवने सभी पुद्गलोंको क्रमसे भोगकर छोड़ा है। और लते हैं-दे. मोक्ष/२।
इस प्रकार यह जीव अनन्तबार पुद्गल परिवर्तनरूप संसारमें घूमता
रहता है। (भा. पा./मू-/२२); (बा. अनु./२५); (ध. ४/१,२,४/ * निरन्तर मुक्त होते भी जोवोंसे संसार रिक्त नहीं
३२५-३३); (का.अ./६७); (द्र. सं/टी./३/१०३/३); (गो. जी./ होता-दे. मोक्ष/६।
जी. प्र./५६०/६८४/१५)
४. क्षेत्रपरिवर्तन नि २. पंच परिवर्तनरूप संसार निर्देश
१. स्त्रक्षेत्र १. परिवर्तनके पाँच भेद
गो. जी./जी./५६०/६६१/२० स्वक्षेत्रारिवर्तनमुच्यते-कश्चि ज्जीव स, सि /२/१०,१६५४१ तद परिवर्तन पञ्चविधं इत्यपरिवर्तनं क्षेत्रपरि- सूक्ष्म निगोदजघन्यावगाहनेनोत्पन्नः स्वस्थिति जीवित्वा मृतः पुनः वर्तनं कालपरिवर्तनं भवपरिवर्तनं भावपरिवर्तनं चेति । -परि- प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्नः । एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण महामत्स्यावतन के पाँच भेष हैं-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, वगाहनपर्यन्ताः संख्यातघनाङ्गुनप्रमितावगाहनविकरूपाः तेनैव भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन । (म. आ./७०४ ); (ध.४/१,५.४।। जीवेन यावत्स्वीकृताः तत् सर्व समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तन भवति । ३२५/५); (गो. जी/जी. प्र./५६०/६८६/१४)
- स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं-कोई जोव सूक्ष्म निगोदियाकी जघन्य २. द्रव्यपरिवर्तन आदिके उत्तर भेद
अवगाहनासे उत्पन्न हुआ, और अपनी आयु प्रमाण जीवित रहकर मर
गया। फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न स. सि./२/१०/१६५/२ द्रव्यपरिवर्तनं द्विविधम्-नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन हुआ । एक-एक प्रदेश अधिककी अवगाहनाओंको क्रममे धारण करते___ कर्मद्रव्यपरिवर्तन चेति ।
करते महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त संख्यात घनागुल प्रमाण ध.४/१.५.४/३२७/१० पोग्गल परियहकालो तिविह हो दि, अगहितगह- अवगाहनाके विकल्पों को वही जीव जितने समय में धारण करता है णदा गहिदगहणद्धा मिस्सयगणद्धा चेदि । १. द्रव्यपरिवर्तनके उतने काल के समुदायको स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
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