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संशयवचनी भाषा
संशयवचनी भाषा दे. भाषा । संशयसमा जाति
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न्या. सू. / मू. व भाष्य / ५ /१/१४/२१३/१३
सामान्यदृष्टान्तयोरिन्द्रिय
करवे समाने नित्यानित्यसाधम्र्म्यात्संशयसमः । १४। अनित्यः शब्दः प्रयत्नान्तरीयकत्वा पटवदित्युक्ते देती संशयेन प्रत्यवतिष्ठते सति प्रयत्नानन्तरीयकर अस्त्येवास्य नित्येन सामान्येन साधर्म्यमे न्द्रयकरवमस्ति च घटेनानित्येनातो नित्यानित्यसाधर्म्याद निवृत्तः संशयइति अस्योत्तरम् | १४ | = सामान्य ( शब्दत्व ) और दृष्टान्त (घट) दोनोंके ऐन्द्रियकत्व समान होनेपर नित्य, अनित्योके साधर्म्यसे संशयसम प्रतिषेध उठा दिया जाता है ।१४। जैसे - शब्द अनित्य है प्रयत्न से उत्पन्न होनेवाले परकी भाँति ऐसा कहनेपर हेतुमें सन्देह खड़ा रहता है । प्रयत्नकी समानता रहनेपर भी इसका नित्य सामान्यके साथ ऐन्द्रियक रूप साम्य है और अनित्य घटके साथ भी समानधर्मता है, इसलिए नायिके साधर्म्य से संदेह निवृत्त न हुआ। ( श्लो. वा. २/१/३/न्या. ३८०/५०६/१३ में इसपर चर्चा ) । संशयाने कान्तिक हेत्वाभास दे, व्यभिचार
संशयासिद्ध हेत्वाभास दे. असिद्ध
संश्लेश बन्ध - दे, श्लेष ।
दिवसा
संसक्त साधु १. भ. बा. / . / १२१२-१२१४ अधवा समण जोगपरितो । जो उब्वायदि सो होदि नियत्तो साधु१३१३ दिसावया केई मामि तापि सव्वाणि । दोसेहि रोहि सम्मेहि संसचा १३९४ इन्द्र और कषायों के दोष से अथवा सामान्य ध्यानादिकसे विरक्त होकर जो साधु चारित्रसे भ्रष्ट होता है वह साधु सार्थ से अलग होता है | १३१३ । इन्द्रिय विषय और मायके वशीभूत कनेक भ्रष्ट मुनि सर्व दोषोंसे युक्त 1. हो कर सर्व अशुभ स्थानको प्राप्ति करानेवाले परिणामोंको प्राप्त होत हैं । १३१४ ।
भ. आ / वि. / १९६५०/१७२२/२४ संसक्तो निरूप्यते-- प्रियचारित्रे प्रियचारित्रः अप्रियचारित्रे दृष्टे चारित्रः नटवदनेकरूपग्राही संसक्तः, पचेद्रियेषु प्रसक्तः विविधगौरवप्रविद्धः स्त्रीविषये क्लेसहित गृहस्थजनप्रियश्च संरुतः संसक्त मुनिका वर्णन-ऐसे मुनि चारित्रप्रिय मुनिके सहवाससे चारित्रप्रिय और चारित्र"अप्रिय मुनके सहवाससे चारित्र अप्रिय बनते हैं। नटके समान इनका आचरण रहता है। ये संसक्त मुनि इन्द्रियोंके विषयमें आसक्त रहते हैं, तथा तोन प्रकार गारवों में आसक्त होते हैं । स्त्रीके विषय में इनके परिणाम संपलेश युक्त होते हैं। गृहस्थोंपर इनका विशेष प्रेम होता है।
चा.सा./१४४/११.मयेकज्योतिष्कोपजीवी राजादिसेवकः संसक्तः । - जो मन्त्र, वैद्यक वा ज्योतिष शास्त्रसे अपनी जीविका करते हैं। और राजा आदिकों की सेवा करते हैं वे संसक्त सांधु हैं। ( भा. पा./ टी. / १४ / १३७ /२० ) । २. संसक्त साधु सम्बन्धी विषय- दे. साधु /५ । संसर्ग - १. स्या. म. / २३/२८४/२८ संसर्गे तु भेदः प्रधानम् - अभेदोगोण इति विशेष संसर्ग में भेइकी प्रधानता और अभेदकी गौणता होती है। ( स. भं. स. / ३३/२१ ) । २. संसर्गकी अपेक्षा बस्तु भेदाभेद देगी/४/८
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संसार - संसरण करने अर्थात् जन्म मरण करने का नाम संसार है। अनादिकाल से जन्म मरण करते हुए इस जीवने एक-एक करके लोकके सर्व परमाणुओंको, सर्व प्रदेशोंको, कालके सर्व समको, सर्व प्रकार के कषाय भावोंको और नरकादि सर्वभवको अनन्त अनन्त
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संसार
बार ग्रहण करके छोड़ा है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व भव के भेद से यह संसार पंच परिवर्तन रूप कहा जाता है।
१. संसार सामान्य निर्देश
१. संसार सामान्यका लक्षण
१. परिवर्तन
स.सि./२/१०/१६४/० संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः । स.सि./१/०/४१६/९ कर्म विपाशादात्मनो भवान्तराजातिः संसारः ।
- १. संसरण करनेको संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है। २. कर्म के विपाकके वंशसे आत्माको भवान्तरकी प्राप्ति होना संसार है । ( . रा. बा० / - २ / १० /१/१२४/१५; ६/९/८/५८८/२ ६/७/३/200/२८)।
का.अ./मू./२२-१३ एका पयदि सरीर अवं गिव्हेदि जनणवं जीमो पुणु पुणु अगं अगं हिदि मुंचेदि बहु मार |३२| एवं जं संसरणं णाणा देहेसु होदि जीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छ कसाएहिं जुत्तस्स |३३| - जीव एक शरीरको छोड़ता है और दूसरे नये शरीरको ग्रहण करता है । पश्चात् उसे भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है। इस प्रकार अनेक बार शरीरको ग्रहण करता है और अनेक बार उसे छोड़ता है। मिथ्यात्व कषाय वगैरहसे युक्त जीवका इस प्रकार अनेक शरीरोंमें जो संसरण (परिभ्रमण ) होता है, उसे संसार कहते हैं ।
२. कर्म
१३/५४,१०/०४/१० संसरति अनेन पातिकर्मसापेन चतम गति वितिघातिकर्मकलापः संसारः । - जिस घातिकर्म समूहके कारण जीव चारों गतियों में संसरण करते हैं, वह घातिकर्म समूह संसार है ।
२. संसार असंसार आदि संसार निर्देश
रा. बा./१/७/३/६००/२८ चतुर्विधात्मावस्था:- संसारः असंसारः नोसंसारः तत्रितयव्यायश्चेति । तत्र संसारश्चतसृषु गतिषु नानायोनिविकल्पासु परिभ्रमणम् अनागतिरसंसारः शिवपदपरमामृत 'नोसंसारसयोगकेवलिन सुप्रतिष्ठा चतुर्गतिभ्रमणाभावाद असंसाराभावाच ईपत्संसारो नोसंसार इति अयोगकेयसिनः तत्रितयव्यपायः भवभ्रमणाभावात सयोग केवलिवत् प्रदेशपरिस्पन्दः विगमात् असंसारावाप्स्यभावाच्च । - आत्माकी चार अवस्थाएँ होती हैं संसार, असंसार, नोसंसार और इन तीनों से विलक्षण अनेक योनिवाली चारों गतियों में परिभ्रमण करना संसार है। फिर जन्म न लेना - शिवप्रद प्राप्ति या परमसुख प्रतिष्ठा असंसार है। चतुर्गतिमें परिभ्रमण न होनेसे तथा अभी मोक्षकी प्राप्ति न होनेसे सयोगकेवली की जीवन्मुक्त अवस्था ईषत्संसार या नोसंसार है । अयोगकेवली इन तीनों से विलक्षण है। इनके चतुर्गति भ्रमण और असंसारकी प्राप्ति तो नहीं है पर केसीकी तरह शरीर परिस्पन्द भी नहीं है। जब तक शरीर परिस्पन्द न होनेपर भी आत्म प्रदेशका चलन होता रहता है तब तक संसार है । ( चा. सा./१८०/३) ।
३. द्रव्य क्षेत्रादि संसार निर्देश
रा. बा./१/७/३/६०१/४ द्रव्यनिमित्त संसारश्चतुर्विधः कर्मनो कर्मवस्तु'विषयाश्रयभेदात् । तत्र क्षेत्रहेतुको द्विविधः - स्वक्षेत्र पर क्षेत्र विकल्पात् । लोकाकाश तुल्यप्रदेशस्यात्मनः कर्मोदयवशात् संहरणविसर्पणधर्मणः होनाधिप्रवेशपरिणामावगाहित्वं स्वक्षेत्रसारः सम् पपादजन्मनययोनिविलम्बः परक्षेत्रसंसारः॥ कालो द्विविधः परमार्थरूपो व्यवहाररूपाचेति तयोक्षणायाख्या
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