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संगित
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संशय
और प्रमाद रहित होनेसे कर्मोंका महान् संवर होता है ।४३। तप आगे प.ध./उ./४३१ संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चित्तः। सधर्मेष्वनुरागो कहेंगे। उसको यथार्थ भावना करनेवाले योगीका राग-द्वेष नष्ट हो वा प्रीति परमेष्ठिषु ।४३११- धर्म में व धर्म के फलमें आत्माके परम जाता है, और योग भी रुक जाते हैं। इसलिए उसके संवर सिद्ध उत्साहको संवेग कहते हैं, अथवा धार्मिक पुरुषोमे अनुराग अथवा होता है ।५१
पंचपरमेष्ठी में प्रीति रखनेको सवेग कहते हैं ।४३१० दे. उपयोग/II/३/३ [ जितना रागांश है उतना बन्ध है और जितना * संवेगोत्पादक कुछ भावनाएँ-दे. वैराग्य/२।
वीतरागाश है उतना संवर है। दे. निर्जरा/२/४ [ जब तक आत्मस्वरूपमें स्थिति रहती है तब तक
* अकेले संवेगसे तीर्थंकरत्वके बन्धकी सम्भावना संबर व निर्जरा होते हैं।]
__-दे. भावना/२। संगित-धर्गित संवर्गितकरण विधि-दे, गणित/II/१/३ ।
२. संवेगमें शेष १५ भावनाओं का समावेश संवाद-दे. वाद।
ध. ८/३.४१/०६/५ कधं लद्धिसंवेगसंपयाएं सेसकारणाणं संभयो। ण संवास अनुमति-दे. अनुमति ।
सेसकारणे हि विणा लद्धिसंवेगस्स संपया जुज्जदे, पिरोहादो। लद्धिसंवाह
संवेगो णाम तिरयणदोहल ओ, ण सो दंसण विसुज्झदादीहि विणा
संपुष्णो होदि, विपडिमहादो हिरण्णसुवण्णादीहि विणा अड्ढो व्व। ध.१३/५५,६३/३३६/२ यत्र शिरसा धान्यमारोप्यते स संवाहः ।
तदो अप्पणो अंतोखित्तसेसकारणा लद्धिसंवेगसंपया छट्ट' कारण । __जहाँपर शिरसे लेकर धान्य रखा जाता है उसका नाम संबाह है।
- प्रश्न-लब्धिसंवेग सम्पन्नतामें शेष कारणों की सम्भावना कैसे म. पु./१६/१७३ संवाहस्तु शिरोव्यूढधान्यसंजय इष्यते ११७३ - जहाँ
है ? उत्तर- क्योंकि शेष कारणों के बिना विरुद्ध होनेसे लब्धिसंवेगकी मस्तक पर्यन्त ऊंचे-ऊंचे धान्यके ढेर लगे हों वह संवाहन कह
सम्पदाका संयोग ही नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि लाता है। त्रि. सा./६७४-६७६ संबाह ।६७४।...सिन्धुवेलावलयितः।६७६ समुद्रकी
रत्नत्रय जनित हर्ष का नाम लब्धिसंवेग है । और वह दर्शनविशुद्धतावेलासे वेष्टित स्थान संवाह कहलाता है।
दिकों के विना सम्पूर्ण होता नहीं है, क्योंकि, इसमें हिरण्य सुवर्णा
दिकों के विना धनाढय होने के समान विरोध है। अतएव शेष कारणोंसंवाहन
को अपने अन्तर्गत करनेवाती लब्धिसंवेग सम्पदा तीर्थकर कर्मति.प./४/१४०० संवाहणं ति बहुविहर महासेल सिहररथ १४००। बन्धका छठा कारण है। बहुत प्रकारके अरण्योंसे युक्त महापर्वतके शिखरपर स्थित संवाहन
संवेजनीकथा-दे. कथा। जानना चाहिए।
संव्यवहरण-आहार का एक दोष-दे. आहार/II/४/४। सावत् स्या. म/१६/२२१/२८ सम्यग्वै परीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति संवित । जिससे यथार्थ रीतिसे वस्तुका ज्ञान
संशय यह सीप है या चाँदी इस प्रकार के दो कोरिमें झूलनेवाले हो उस ज्ञान को संवित् कहते हैं।
ज्ञानको संशय कहते हैं। देव व धर्म आदिके स्वरूपमें यह ठीक संविति-दे. अनुभव/१।
है या नहीं ऐसी दोलायमान श्रद्धा संशय मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन
में क्षयोपशमकी हीनताके कारण संशय व संशयातिचार हो सकते हैं सवृत-स. सि./२/३२/१८७/११ सम्यग्वृतः संवृतः। संवृत इति पर तत्त्वोंपर दृढ़ प्रतीति निरन्तर बने रहनेके कारण उसे संशय दुरुपलक्ष्यप्रदेश इत्युच्यते।भले प्रकारसे जो ढका हो उसे संवृत मिथ्यात्व नहीं होता। कहते हैं। यहाँ संवृत ऐसे स्थानको कहते हैं जो देखने में न आवे ।
१. संशय सामान्यका लक्षण (विशेष दे, योनि); (रा.वा./२/३२/३/१४१/२६) संवृति सत्य--दे सत्य/१ ।
रा. वा./१/६/४/३६/११ सामान्य प्रत्यक्षाइ विशेषाप्रत्यक्षाइविशेषस्मृतेश्च
संशयः। संवेग-१. संसारसे भयके अर्थ में
रा. वा./९/१२/१३/६९/२७ कि शुक्लमुत् कृष्णम् इत्यादि विशेषाप्रतिपत्तेः स. सि./६/२४/३३६/११ संसारदुःखान्नित्यभीरता संवेगः- संसारके । संशयः । =१. सामान्य धर्मका प्रत्यक्ष होनेपर और विशेष
दुःखोंसे नित्य डरते रहना संवेग है ( रा. वा./६/२४/१/५२६/२५); धर्म का प्रत्यक्ष न होनेपर किन्तु उभय विशेषोंका स्पर्श होनेपर (चा. सा/५३/५); (भा.पा./टी./७७/२२१/७)
संशय होता है। (और भी दे. अत्रग्रह/२/१) । २. 'यह शुक्ल है कि भ.आ./वि./३५/१२७/१३ संविग्गो संसाराद् द्रव्यभावरूपात परिवर्तनात कृष्ण' इत्या दिमें विशेषताका निश्चय न होना संशय है ।
भयमुपगतः । - संवेग अर्थात् द्रव्य व भावरूप पंचपरिवर्तन संसारसे न्या. दी./१/88/8/५ विरुद्धानेककोटिस्पर्शिज्ञान संशयः, यथा स्थाणुर्वा जिसको भय उत्पन्न हुआ है।
पुरुषो वेति । स्थाणुपुरुषसाधारणोद्वतादिधर्मदर्शनात्तद्विशेषस्य २. धर्मोत्साहके अर्थ में
बक्रकोटरशिरःपाण्यादेः साधकप्रमाणाभावादनेककोट्यवलम्बित्वं
ज्ञानस्य। = विरुद्ध अनेक पक्षोंका अवगाहन करने वाले ज्ञानको ध.८/३,४१/०६/३ सम्मदसणणाणचरणेसु जीवस्स समागमो लद्धी संशय कहते हैं। जैसे-'यह स्थाणु है या पुरुष है.' स्थाणु और
णाम । हरिसो संतो संवेगो णाम। लद्धीए संवेगो लद्धिसंवेगो, तस्स पुरुषमें सामान्य रूपसे रहने वाले ऊँचाई आदि साधारण धर्मोके संपण्णदा संपत्ती ।-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें देखने और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर, जो जोवका समागम होता है उसे लब्धि कहते हैं, और हर्ष व पैर आदि विशेष धर्मों के साधक प्रमाणोंका अभाव होनेसे नाना सात्विक भावका नाम संवेग है। लब्धिसे या लब्धिमें संवेगका नाम कोटियों को अवगाहन करने वाला यह संशय ज्ञान उत्पन्न होता है। लब्धि सवेग और उसकी सम्पन्नताका अर्थ सम्प्राप्ति है।
(स. भ.त/८०/४), (न्या. सू./टी/१/१/२३/२८/२१)। द्र. संटी./३५/११२/७ पर उधृत-धम्मे य धम्मफलम्हि दंसणे य स भ.तं./८/४ एकवस्तुविशेष्यकविरुद्ध नानाधर्म प्रकारकज्ञानं हि हरिसो य हुति संवेगो । धर्म में, धर्मके फल में और दर्शनमे जो हर्ष संशयः । -एक ही बस्तु विषयक, विरुद्ध नानाधर्म विशेषणक युक्त होता है, वह संवेग है।
ज्ञानको संशय कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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