________________
संवर
१४२
२. निश्चय व्यवहार सवरका समन्वय
विसेसा ॥३५॥ आत्माका जो परिणाम कर्मके आसवको रोकनेमें के विषयोंसे अपनेको सदा दूर रखता है, उनमें प्रवृत्ति नहीं करता, कारण है, उसको भाव संवर कहते हैं और जो द्रव्यानवको रोकने- उसी मुनिके निश्चयसे संवर होता है ।१०१॥ में कारण है द्रव्य सवर है ।३४॥ पाँचवत, पाँचसमिति, तीनगुप्ति, दे. संवर/१/२/द्र. सं. [उपरोक्त समिति गुप्ति आदि भाव संवरके : दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय तथा अनेक प्रकारका विशेष है।
चारित्र इस तरह ये सब भाव संवरके विशेष जानने चाहिए ।३॥ द्र. सं./टी./३५/१४६/६ निराखवशुद्धात्मतत्त्वपरिणतिरूपस्य संवरस्य है. सं./टी./३४/६६/१ निराखवसहजस्वभावरवात्सर्वकर्मसंवरहेतुरित्युक्त- कारणभूता द्वादशानुप्रेक्षाः। =निरास्रव शुद्धात्मतत्त्वकी परिणतिलक्षणः परमात्मा तत्स्वभावनोत्पन्नो योऽसौ शुद्धचेतनपरिणामः स रूप जो सबर है उसकी कारणरूप बारह अनुप्रेक्षा है। [ अर्थात भावसंवरो भवति। यस्तु भावसंवरात्कारणभूतादुत्पन्नः कार्यभूतो शुद्धात्मानुभूति तो संवरमें कारण है, और अनुप्रेक्षा तथा अन्य समिति नवतरद्रव्यवामिनाभावः स द्रव्यसंवर इत्यर्थः । = आस्रवविर- गुप्ति आदि संवरके उस कारणके भी कारण हैं।] हित सहजस्वभाव होनेसे सब कर्मोके रोकने में कारण, जो शुद्ध दे. तप/४/५[ तप संबर व निर्जरा दोनों का कारण है । ) परमात्मतत्त्व है उसके स्वभावसे उत्पन्न जो शुद्धचेतन परिणाम है * कर्मोंके संवरकी ओघ आदेश प्ररूपणा सो भावसंवर है। और कारणभूत भावसंवरसे उत्पन्न हुआ जो
-दे. प्रकृतिबन्ध/७ । कार्यरूप नवीन द्रव्यकर्मोके आगमनका अभाव सो द्रव्यसंवर है।
* निर्जरामें संवरकी प्रधानता-दे, निर्जरा/२। यह गाथार्थ है।
* संवर व निर्जराके कारणोंकी समानता-दे, निर्जरा/२/४। ३. संवरके निश्चय हेतु स. सा./भू./१८७-१८६ अप्पाणमपणा रुधिऊण दोपुण्णपावजोएसु। २. निश्चय व्यवहार संवरका समन्वय दसणणाण म्हि ठिदो इच्छाविरदो य अण्ण म्हि ११८७। जो सव्वसंगमुक्को झायदि अपाणमप्पणो अप्पा । णवि कम्मं णोकम्मं चेदा चितेदि
१. निश्चय संवरकी प्रधानतामें हेतु एयत्तं । १८८। अप्पाणं झायंतो दसणणाणमओ अणण्णमओ। लहइ स, सा./मू./१८६ [ कथं शुद्धात्मोपलम्भादेव संवर इति चेत्-( उत्थाअचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मविप्पमुक्को ।१८। [एष संवरप्रकार:- निका)]-सुद्ध तु वियाणं तो सुद्ध' चेव अप्पयं लहइ जीवो। स.सा./आ./१८६] = आत्माको आत्माके द्वारा जो पुण्यपापरूपी जाणं तो दु असुद्ध' असुद्धमेवप्पयं लहइ ।१८६। -प्रश्न-शुद्धात्माकी शुभाशुभ योगोंसे रोककर दर्शनज्ञानमें स्थित होता हुआ और उपलब्धि ही संबर कैसे है ! उत्तर-शुद्धात्माको जानता हुआ, अनु. अन्य वस्तुकी इच्छासे विरत होता हुआ।१८७। जो आत्मा सर्व संगसे भव करता हुआ जीव शुद्धात्माको ही प्राप्त करता है, और अशुद्धात्मारहित होता हुआ अपने आत्माको आत्माके द्वारा ध्याता है और कर्म को जानता हआ जीव अशुद्धात्माको ही प्राप्त करता है ।१८६ ( विशेष तथा नोकर्मको नहीं ध्याता एवं चेतयिता (होनेसे ) एकत्वको दे.संबर/१/३) ही चिन्तवन करता है, अनुभव करता है ।१८८वह (आत्मा) पं. का./मू./१४२-१४३ जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वआत्माको ध्याता हुआ दर्शनज्ञानमय और अनन्यमय होता हुआ दव्वेसे । णासबति सुहं असहं समसुदुरवस्स भिरनुस्स १४२। जस्स अल्पकाल में ही कर्मोंसे रहित आत्माको प्राप्त करता है ।१८६। यह जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स। संवरणं तस्स तदा संवरकी विधि है।
सहारहकदस्स कम्मरस ।१४३। --जिसे सद्रव्यों के प्रति राग, द्वेष स. सा./आ./१८३/क. १२६ के पीछे-भेद विज्ञानाच्छ्रद्धात्मोपलम्भः या मोह नहीं है, उस समसुख-दुःख भिक्षुको शुभ और अशुभ कर्म प्रभवति । शुद्धात्मोपलम्भात रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभ- आत्रवित नहीं होते ।१४२। जिसे विरतरूप वर्तते हुए योगमें अर्थात वति। -भेद विज्ञानसे शुद्धात्माकी उपलब्धि होती है और मन, वचन, काय इन तीनों में ही जब पुण्य व पापमें से कोई भी नहीं शुद्धात्माकी उपलब्धिसे राग-द्वेष मोहका अगव जिसका लक्षण है होता है, तब उसे शुभ व अशुभ दोनों भावोंकृत कर्म का अर्थात पुण्य ऐसा संवर होता है।
व पाप दोनोंका संबर होता है ।१४३॥ द्र. सं./टी./२८/८५/१२ कर्मास्त्रवनिरोधसमर्थ स्वसं वित्तिपरिणतजीवस्य ।
बा. अ./६३ सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स । सुहशुभाशुभकर्मागमनसंवरणं संवरः। = कर्मों के आस्त्रबको रोकने में जोगस्स सिरोहो सुद्धवजोगेण संभव दि। - मन, वचन, कायकी समर्थ स्वानुभवमें परिणत जीवके जो शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने- शुभ प्रवृत्तियोंसे अशुभयोगका संवर होता है और शुद्धोपयोगसे का निरोध है वह संबर है। (4. का/ता. बृ./१४४/२०६/१०)।
शुभयोगका भी संवर हो जाता है ।६३ ( और भी दे. संवर/२/४)
दे. धर्म/७/१ [जब तक साधु आत्मस्वरूपमें लीन रहता है तब तक ही ४. संवरके व्यवहार हेतु
सकल विकल्पोंसे विहीन उस साधुको संवर व निर्जरा जाननी त. सू./8/२ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः ।२। वह
चाहिए । संवर गुप्ति, समिति. दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय
२. व्यवहार संवर निर्देश में हेतु और सामायिकादि पाँच प्रकार चारित्र इनसे होता है। (रा. वा/९/ ७/१४/४०/१२); ( का.अ.मू./६६); (दे. संवर/१/१)।
ना, आ /६२ पंचमहव्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा । का. आ./मू.'१५,१०१ सम्मत्तं देसवयं महब्बयं तह जओ कसायाण । कोहादि आसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगे हिं ( 1 ) ६२॥ - पाँच एदे संबरणामा जोगाभावो तहा चेव ।१५। जो पुण विसयविरत्तो महावतोंसे नियमपूर्वक पाँच अविरति रूप परिणामोंका निरोध अप्पाणं सव्वदो वि संवरइ । मणहरविसएहितो तस्स फुडं संवरो होता है और कषाय रहित परिणामों से क्रोधादि रूप आत्रवों के द्वारा होदि ।१०१। -१. सम्यक्त्व, देशवत, महावत, कषायोंका जीतना रुक जाते हैं ।६।
और योगोंका अभाव ये सब संवरके नाम हैं । १५ [(दे. संवर/२/२)- ध.७/२.१,७/गा. २/8 मिच्छत्ताविरदी विय कसाय जोगा य आसवा मिथ्यात्व अविरति आदि जो पाँच बन्धके हेतु कहे गये हैं, उनसे होति ।२१ -मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मों के आत्रव विपरीत ये सम्यक्त्व आदि संवरके हेतु सिद्ध हैं। (दे. संवर/१/१)। हैं। तथा ( इनसे विपरीत) सम्यग्दर्शन, विषयविरक्ति, कषायनिग्रह, २. जो मुनि विषयों से विरक्त होकर, मनको हरनेवाले पाँचों इन्द्रियों- और मन, वचन, कायका निरोध ये सबर हैं ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org