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संयम
४. पंचन कालमें भी सम्भव है
२.सा./१८ सम्मोही सपगुणचारित सणादानरिधानं
भरहे
दुस्समकाले मणुयाणं जायदे णियद |३८| इस दुस्सह दुःखम (पंचम) कालमें मनुष्योंके सम्यग्दर्शन सहित तप व्रत अठाईस मूलगुण, चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दान आदि सब होते हैं । ३८१ दे. धर्मध्यान / ५ [ यद्यपि पंचम काल में शुक्लध्यान सम्भव नहीं परन्तु अपनी अपनी भूमिका नुसार तरतमता लिये धर्मध्यान अवश्य सम्भव है ] ।
९. जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्वं लघुकाल १. विच
घ. ५ / २, ६, ३७/३२ / ४ एत्थ वे उवदेसा । तं जहा - तिरिक्खेसु वेमासमुहतपुत्तस्वरि सम्म जमाज जी ... एसा पत्ती... तिरिखे तिष्णव- तिदिवस अंतोमुहुत्तस्वरि सम्मत्तं संजमासंजमं च पडिवज्जदि ।... एसा उत्तरपडिवत्ती । इस विषय में दो उपदेश हैं । वे इस प्रकार हैं - १. तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ जीव, दो मास और मुहूर्त पृथक्त्व से ऊपर सम्यक्त्व और संयमासंयमको प्राप्त करता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है २. वह तोन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर सम्यम और संयम संयमको प्राप्त होता है। यह उत्तर प्रतिपत्ति है। सम्यग्दर्शन //V2/2] [ तिर्यो में उत्पन्न हुआ जीव व लगाकर उपरिमकालमें प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करता है नोचेके कालमें नहीं।]
२. मनुष्यों में
घ. ५/१. 4.२०/२२/४ मे
सुगन्धादि सजमासंजम च अमस्सावरि
जहा अमस्से अंतराम्भहिए सम्म संजर्म विदिति । ऐसा दमिडियती ...मसे सम्मत्तं संजम संजमासंजमं च पडिवज्जदिति । एसा उत्तरपडिबत्ती । इस विषय में दो उपदेश हैं - १. मनुष्यों में गर्भ कालसे प्रारमकर अन्तर्मुहूर्त से अधिक आठ वर्षोंके व्यतीत हो जानेपर सम्प सयम और संयमासंयमको प्राप्त होता है। यह दक्षिण प्रतिपत्ति है । (ध. ५ / १.६.६६/५२ ) २. वह आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व, संयम और संयम संयमको प्राप्त होता है । यह उत्तर प्रतिपत्ति है ।
घ. १/४.१.६६/२००२ मधुमास विमा मासतांतरे सम्मत संजम संजना जमा महगाभावादी मनुष्यों में वर्ष पृथवत्वके बिना मास पावके भीतर समय संयम और संवासंयम ग्रहणका अभाव है।
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ध. १०/४,२,४,५६/२७८/१२ गम्भादो क्विंत पढमसमय पहुडि अवस् गणपाओग्गो होदि हेट्ठा ण होदि सि एसो भावत्थो । गमम्मि पदिदपढमसमय पहुडि अट्ठबस्सेसु गदेसु संजमग्गहण पाओग्गो होदित्ति के वि भवति । तण्ण वडदे, जोणिणिक्खभणजम्मणेणेत्ति वणण हाणुवत्तदो । जदि गर्भम्मि पदिदपढ़मसमयादी अवस्थाणि ततो जम्मण अस्सीओ जादो त्ति सुप्तकारी भणेज्ज । ण च एवं तम्हा सत्तमासाहिय अट्ठहि मारोह संजम पडिवजन्ति एसोचेम अस्थमसम्म णिद्द े सण्णहाणुववत्सीदो । गर्भ से निकलने के प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष बीत जानेपर संयम ग्रहण के योग्य होता है, इसके पहले संयम के योग्य नहीं होता, यह इसका भावार्थ है। गर्भ में आनेके प्रथम समय से लेकर आठ वर्षोंके बीतनेपर संयम ग्रहण के योग्य होता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर 'योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे' यह सूत्र - बचन ( इसी पुस्तक के सूत्र नं. ७२,५६ ) नहीं बन सकता। यदि गर्भ
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संयोग द्रव्य
में आनेके प्रथम समय से लेकर आठ वर्ष ग्रहण किये जाते हैं तो 'गर्भपतनरूप जन्म से आठ वर्ष का हुआ ऐसा सूत्रकार कहते हैं । किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा है। इसलिए सात मास अधिक आठ वर्षका होनेपर संयमको प्राप्त करता है, यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अन्यथा सूत्रमें 'सर्वलघु' पदका निर्देश घटित नहीं होता । दे. सम्यग्दर्शन / IV/२/५ | जन्म लेनेके पश्चात् आठ वर्षोंके ऊपर प्रथमसम्यक्त्व प्राप्त करता है, उसके नीचे नहीं
२. सूक्ष्म आदि जीवो
५. १०/५.१,४२६/२०६/६ तेहितो गिग्गयस्स सएण काग संजमा जग्गाभावाद आउकाइयपन से हितोमरप्पण्णस्स सब्बलहुएण कालेन संजमादिग्रहणाभावादो । अपर्याप्तकोंमेंसे निकले हुए जीवके सर्व लघुकाल द्वारा संयमासंयमके ग्रहणका अभाव है |... अकायिक पर्याप्तकों मे से मनुष्योंमे उत्पन्न हुए जीवके सर्वकाल के द्वारा संयम आदिका ग्रहण सम्भव नहीं है। दे. जन्म /६/२ [सूक्ष्म निगोदियासे निकले हुए जीवके सर्व द्वारा संयमासंयम या संयमका ग्रहण । सूक्ष्म निगोदिया से निकलकर सीधे मनुष्य होनेवाले जीव युगपत् सम्यक्श्य व संयमासंयम ग्रहण नहीं कर सकते, बीच में एक भय त्रसका धारण करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवके ही वह सम्भव है । ]
का
१०. पुनः पुनः संयमादि प्राप्त करनेकी सीमा
. . १०/४.२४/०९/२१४ एवं माणाभवरहगेहि अट्ट जम याणि अणुपालइत्ता चदुवखुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवमस्स असं खेज्ज विभागमेत्ताणि संजमा जमयाणि सम्मत उमाणि च अणुपादता एवं संसारिण अपनिछमे भमरगपुरवि पृथ्व कोडाउए मणुसे उबवण्णो । ७११ = इस सूत्र के द्वारा संयम, संयमासंयम और सम्यक्त्वके काण्डकोंकी तथा कषायोपशमनाकी संख्या कही गयी है । यथा-चार बार संयमको प्राप्त करनेपर एक संयम काण्डक होता है। ऐसे आठ ही संयम काण्डक होते है (अर्थात अधिकसे अधिक ३२ बार ही सयमका ग्रहण होता है। क्योंकि इससे आगे संसार नहीं रहता ) इन आठ संयमकाण्डकोंके भीतर कषायोपशामनाके बार बार ही होते हैं। जीवस्थान चूलिकामें जो चारित्र मोहके उपशामन विधानकी और दर्शनमोहके उपशामन विधानकी प्ररूपणा की गयी है, उसकी यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिए। परन्तु संयमासंयम काण्डक परयोपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं ( अर्थात् अधिक से अधिक पत्य / असके चौगुने बार संयमासंयमका ग्रहण होना संभव है। संयमासंयमकाण्डकोंसे सम्यक्त्वकाण्डक विशेष अधिक है, जो पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र है। गो../मू./१०-६२६/८२२ सम्मतं वेसजमं अगसंजोगणविहि एक्कर पलाएं खेज्जदि बार पडिम जीवो ६१ चारि बारमु समसेढिं समरुहृदि खविदकम्मंसो । बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय णिव्वदि । ६१ । प्रथमोपशम सम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, देशसंयम और अनन्तानुबन्धो के विसंयोजनवा विधान में एक जीव में उत्कृष्टतः पण्योपमके असंख्यात बार ही होते हैं । ६१८ । उपशमश्रेणी चार बार चढ़ने के पीछे अवश्य कर्मोंका क्षय होता है। संयम ३२ बार होता है, पीछे अवश्य निर्वाण प्राप्त करता है। पं. सं./प्रा./टी./५/
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संयमभूतकालीन १२ वें तीर्थंकर - दे. तीर्थंकर / ५ । संयमी - दे. संयत ।
संयोग - दे, सम्बन्ध |
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संयोग द्रव्य -- दे, द्रव्य / १ ।
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