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संवर
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२. निश्चय व्यवहार संवरका समन्वय
मसि.//सूत्रसं/पृष्ठ सं./पक्ति सं. कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्ते कर्म नासवतीति संवर प्रसिद्धिरवगन्तव्या। (४/४११/५)। तथा प्रवर्तमानस्यासंयमपरिणामनिमित्तकस्सिवात्संवरो भवति। (१) ४१६/११)1 तान्येतानि धर्मव्यपदेशभाझि स्वगुणप्रतिपक्षदोषसद्भाबनाप्रणिहितानि संवरकारणानि भवन्ति । (६/४१३/१२)। एवमनित्यस्वाद्यनुप्रेक्षासंनिधाने उत्तमक्षमादिधारणान्महान् संवरो भवति । (७४१६७)। एवं परिषहान् असंकल्पोपस्थितान् सहमानस्यासंक्लिष्टचेतसो रागादिपरिणामासवनिरोधान्महान्संवरो भवति । (६/४२८/१)। रा.पा./१/१८/१४/६१८/१ तदेतच्चारित्र पूर्वानवनिरोधकारणत्वात्परम
संबरहेतुरवसेयः। -१. काय आदि योगोंका निरोध होनेपर योग निमित्तक कर्मका आस्रव नहीं होता है, इसलिए गुप्तिसे संवरकी सिद्धि जान लेना चाहिए ।४। (रा. वा./६/१/४/५६३/२०); (त. सा./६/५) । इस प्रकार समितियों रूप प्रवृत्ति करनेवाले के असंयमरूप परिणामोंके निमित्तसे होनेवाले कर्मोके आसवका संवर होता है । (रा. वा./६/५/६/५६४/३२ ); (ता. सा./६/१२)। इस प्रकार जीवन में उतारे गये स्वगुण तथा प्रतिपक्षभूत दोषोंके सद्भावमें • यह लाभ और यह हानि है, इस तरहकी भावनासे प्राप्त हुए ये धर्मसंज्ञावाले उत्तम क्षमादिक संवरके कारण हैं ।६। (रा.वा.// ६/२७/१६६/३२); (त. सा./६/२२)। इस प्रकार अनित्यादि अनुप्रक्षाओंका सान्निध्य मिलनेपर उत्तमक्षमादिके धारण करनेसे महान् संबर होता है । (रा. वा./६/७/११/६०७/५); (त. सा./६/२६) । इस प्रकार जो संकल्पके बिना उपस्थित हुए परिषहोंको सहन करता है, और जिसका चित्त संक्लेश रहित है, उसके रागादि परिणामों के आत्रबका निरोध होनेसे महान संबर होता है ।। (रा. वा./8/8/२८/६१२/२१); (त. सा./६/४३)। २. यह सामायिकादि भेदरूप चारित्र पूर्व आत्रबों के निरोधका हेतु होनेसे परमसंवरका हेतु है। ( त. सा./६/५०)
३. व्रत वास्तवमें शुमास्रव हैं संवर नहीं स. सि./७/१ को उत्थानिका/३४२/२ आस्रवपदार्थो व्याख्यातः। तत्प्रा
रम्भकाले एवोक्तं 'शुभः पुण्यस्य' इति तत्सामान्येनोक्तम् । तद्विशेषप्रतिपत्त्यर्थ कः पुनः शुभ इत्युक्ते इदमुच्यते-हिंसानृतस्तैयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ।१३ -आस्रव पदार्थका व्याख्यान करते समय उसके आरम्भमें 'शुभ योग पुण्यका कारण है' यह कहा है (त. सू./ ६/३)। पर वह सामान्य रूपसे ही कहा है अतः विशेषरूपसे उसका ज्ञान करानेके लिए शुभ क्या है ऐसा पूछनेपर आगेका सूत्र कहते हैं कि हिंसा आदिसे निवृत्त होना व्रत है। रा.वा./७/१ की उत्थानिका/५३१/४ कैस्ते क्रियाविशेषाः प्रारभ्यमाणास्तस्यास्रवा भवन्तीति । अत्रोच्यते-बतिभिः। - प्रश्न --वे क्रिया विशेष कौन सी हैं, जिनके द्वारा कि उसके प्रारम्भ करनेवालोंको पुण्यका आसव होता है । उत्तर-बतरूप क्रियाओं के द्वारा पुण्यका
आस्रव होता है। दे. पुण्य/१/५ [जीव दया, शुभ योग व उपयोग, सरलता, भक्ति, चारित्र में प्रीति, यम, प्रशम, व्रत, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्य, आगमाभ्यास, मुगुप्तकाय योग, व कायोत्सर्ग आदिसे पुण्य कर्मका
आस्रव होता है। दे. तत्त्व/२/६ [ पुण्य और पाप दोनों तत्त्व आस्रवमें अन्तर्भत हैं।] दे, वेदनीय/४ [सराग संयम आदि सातावेदनीयके आलवके कारण
दे. मनोयोग/ [ व्रत, समिति, शोल, संयम आदिको शुभ मनोयोग जानना चाहिए।
४. व्रतादिसे केवल णपका संवर होता है पं. का./म./१४१ इंदियकसायसण्णा णिगहिदा जेहिं सु? मग्गम्मि ।
जावत्तावत्तेहि पिहियं पात्रासच्छिदं । =जो भलीभाँति मार्ग में रहकर इन्द्रिय, कषाय और संज्ञाओ का जितना निग्रह करते हैं उतना
पाप आखवका छिद्र उनका बन्द होता है। द्र. सं./टी./३६/१४६/६ एवं बतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजय
चारित्राणां भावसं वरकारणभूतानां यदव्याख्यानं कृतं, तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापात्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि । यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसबरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । = इस प्रकार भावसंवर काकारणभूत व्रत,समिति, गुप्ति,धर्म,अनुप्रेक्षा, परोषहजय और चारित्र इन सबका जो पहले व्याख्यान किया है (दे. संवर/१/४) उस व्याख्यानमें निश्चय रत्नत्रयको साधनेवाला जो व्यवहार रत्नत्रयरूप शुभोपयोग है, उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य हैं वे पापालवके संवरमें कारण जानने चाहिए। और जो व्यवहार रत्नत्रयसे साध्य शुद्धोपयोग रूप निश्चय रत्नत्रयके प्रतिपादक वाक्य है वे पुण्य तथ, पाप इन दोनों आस्रबोंके संवरके कारण होते हैं, ऐसा समझना चाहिए। दे, संवर/२/२ [शुभयोगरूप प्रवृत्तिसे अशुभयोगका संवर होता है और
शुद्धोपयोगसे शुभयोगका भी। दे. निर्जरा/३/१ [सरागी जीवों को निर्जरासे यद्यपि अशुभकर्मका विनाश होता है, पर साथ ही शुभकर्मोंका बन्ध हो जाता है। ] * सम्यग्दृष्टिको ही संवर होता है मिथ्यादृष्टिको नहीं
-दे. मिथ्यादृष्टि/४/२। * प्रवृत्तिके साथ भी निवृत्तिका अंश-दे. चारित्र/9/७ । ५. निवृत्त्यंशके कारण ही व्रतादि संवर हैं स. सि./७/१/३४३/७ ननु चास्य व्रतस्यास्रव हेतुत्वमनुपपन्नं संवरहेतुष्यन्तर्भावात् । संवरहेतवो बड्यन्ते गुप्तिसमित्यादयः। तत्र दशविधे धर्म संयमे वा बतानामन्तर्भाव इति । नैष दोषः; तत्र संवरो निवृत्तिलक्षणो वक्ष्यते। प्रवृत्तिश्चात्र दृश्यते; हिंसानृतादत्तादानादिपरित्यागे अहिंसासत्यवचनदत्तादानादिक्रियाप्रतीतेः गुप्त्यादिसंबरपरिकर्मत्वाच्च । व्रतेषु हि कृतपरिकर्मा साधु सुखेन संवरं करोतीति ततः पृथक्त्वेनोपदेशः क्रियते । प्रश्न-यह व्रत आस्रवका कारण है यह बात नहीं बनती क्योंकि संवरके कारणों में इसका अन्तर्भाव होता है। आगे गुप्ति, समिति आदि संवरके कारण कहनेवाले हैं। वहाँ दस प्रकारके धर्मों में एक संयम नामका धर्म बताया है। उसमें व्रतोंका अन्तर्भाव होता है । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ निवृत्तिरूप संवरका कथन करेंगे, और यहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है। क्यों कि, हिंसा, असत्य और अदत्तादान आदिका त्याग करनेपर भी अहिसा, असत्य, वचन और दत्तवस्तुका ग्रहण आदिरूप क्रिया देखी जाती है। दूसरे ये बत, गुप्ति आदि रूप संवरके अंग हैं। जिस साधुने व्रतोंकी मर्यादा कर ली है, वह सुख पूर्वक संवर करता है, इसलिए व्रतोंका अलगसे उपदेश दिया है । (रा.वा/७/१/१०-१४/५३४/१४) । त. सा./६/४३, ५१ एवं भावयतः साधोभवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महात् भवति संवरः ।४३ तपस्तु वक्ष्यते लद्धि सम्यग्भावयतो यतैः । स्नेहक्षयात्तथा योगरोधाइ भवति संवरः ॥११॥ -इस प्रकार १२ अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करनेसे साधुके धर्मका महान् उद्योत होता है, ऐसा करनेसे उसके प्रमाद दूर हो जाते हैं
दे. आयु/३/११ [ सराग संयम व संयमासंयम आदि देवायुके आस्रवके
कारण हैं।] दे. चारित्र/१/४ [बत, समिति, गुप्ति आदि शुभ प्रवृत्ति रूप चारित्र
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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