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संयोगवाद
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संवर
संयोगवादगो. क./मू./८६२/१०७२ संजोगमेवेति वदंति तण्णा णेवेकचक्केण रहो पयादि । अंधो य पंगू य वर्ण पविट्ठा ते संपजुत्ता णयई पविट्ठा 1८६२/- यथार्थ ज्ञानी संयोग ही को सार्थक मानते हैं। उनका कहना है कि जैसे एक पहियेसे रथ नहीं चलता और बनमें प्रविष्ट अन्धा
और पांगला एक दूसरेके संप्रयोगसे दावाग्निसे अपनी रक्षा करके नगरमें प्रवेश कर जाते हैं, उसी प्रकार बस्तुओंके संयोगसे ही सर्वार्थसिद्धि होती है ।८६२। नोट-[ उपरोक्त बात मिथ्या एकान्तरूप संयोगवादके सम्बन्धमें कही गयी है, पर बिलकुल यही बात इसी उदाहरण सहित सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्रकी मैत्री दर्शानेके लिए आगममें कही गयी- दे. मोक्षमार्ग/१/२/रा. वा.] संयोग सम्बन्ध-१. लक्षण सामान्य स. सि./६/६/३२६५७ संयुजाते इति संयोगो मिश्रीकृतम् । -संयोगका
अर्थ मिश्रित करना अर्थात मिलाना है । (रा.वा./६/६/२/११६/१)। रा, वा./५/१६/२७/१२ अप्राप्तिपूर्विका हि प्राप्ति. संयोग'। - आपके (बैशेषिकों के मसमें ) अप्राप्ति पूर्वक प्राप्तिको संयोग कहा है। (स. म./२७/३०२/२६ )। ध. १५/२४/२ को संजोगो । पुधप्पसिद्धाण मेलणं संजोगो) -पृथक
सिद्ध पदार्थोंके मेलको संयोग कहते हैं। म. आ./१८ की वसुनन्दि कृत टीका-अमात्मीयस्थात्मभावः संयोगः ।
अनात्मीय पदार्थो में आत्मभाव होना संयोग है। दे. द्रव्य/१/१० ( पृथक् सत्ताधारी पदार्थोंके संयोगसे संयोग द्रव्य बनते हैं, जैसे छत्री, मौली आदि ।
२. संयोगके भेद व उनके लक्षण घ. १४/५.६.२३/२७/३ तत्व संजोगो दुविहो देसपच्चासत्तिकओ गुण
पच्चासत्तिको चेदि । तत्थ देसपच्चासत्तिको णाम दोणं दवाणमवयवफासं काऊण जमच्छणं सो देसपच्चासत्तिकओ संजोगो । गुणेहि जमण्णोण्णाणुहरणं सो गुणपच्चासत्तिकओ संजोगो। संयोग दो प्रकारका है-देशप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध और गुणप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध । देशप्रत्यासत्ति कृतक काअर्थ है दो द्रव्योंके अवयवोंका सम्बद्ध होकर रहना, यह देशप्रत्यासत्तिकृत संयोग है। गुणों द्वारा जो परस्पर एक दूसरेको ग्रहण करना बह गुणप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध है। * संयोग व बन्ध, अन्तर-दे, युति। * द्रव्य गुण पर्यायमें संयोग सम्बन्धका निरास
-दे. द्रव्य/४॥ संयोगाधिकरण-दे. अधिकरण । संयोजन-आहारका एक दोष-दे, आहार/11/४/४ । संयोजना सत्यदे. सत्य/१। संरभ-स. सि./६/८/३२६/३ प्राणव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरम्भः । -प्रमादी जीवोंका प्राणोंकी हिंसा आदि कार्यमें प्रयत्नशील होना संरम्भ है। (रा. वा/६/८/२/५१३/३२); (चा.
सा./८७/४)। संवत्सर-१. वीरसंबत, विक्रमसंवत्. शकसंबतईस्वी संबद, गुप्त संबतोंका निर्देश-दे. इतिहास/२। २. कालका एक प्रमाण विशेष । असर नाम वर्ष-दे. गणित/1/१/४ ।
संवर-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और मन, वचन, काय की प्रवृत्ति ये सब कर्मोके आनेके द्वार होनेसे आसव हैं। इनसे विपरीत सम्यक्त्व देश व महावत, अप्रमाद, मोह व कषायहीन शुद्धात्म परिणति तथा मन, वचन, कायके व्यापारकी निवृत्ति ये सब नबीन कर्मोके निरोधके हेतु होनेसे संबर हैं। तहाँ समिति गुप्ति आदि रूप जीवके शुद्धभाव तो भाव संवर है और नबीन कर्मोंका न आना द्रव्य संबर है। १. संवर सामान्य निर्देश .
१. संवर सामान्यका लक्षण त. सू./६/१ आस्रवनिरोधः संवरः ॥११ - आस्रवका निरोध संबर है। रा, वा./९/४/११,१८/पृष्ठ/पंक्ति संवियतेऽनेन संवरणमात्र वा संवरः (१९/२६/१)संबर हव संवरः । क उपमार्थः । यथा मुगुप्तमुस वृतद्वारकवाट पुरं सुरक्षितं दुरासादमारातिभिर्भवति, तथा मुगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रात्मनः सुसंवृतेन्द्रियकषाययोगस्य
अभिनवकर्मागमद्वारसंबरणाव संवरः। (१०/२७/४)। रा. वा. १/१/१,२,६/५८७ कर्मागमनि मित्ता प्रादुर्भूतिरासवनिरोधः ॥१॥ तन्निरोधे सति तत्पूर्वकर्मादानाभावः संवरः ।। मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययकर्मसंवरणं संवरः ।६। -१. जिनसे कर्म रुकें बह कर्मोका रुकना संवर है ।११। संवरकी भाँति संवर होता है। जैसे जिस नगरके द्वार अच्छी तरह बन्द हों, वह नगर शत्रुओंको 'अगम्य है, उसी तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहूजय और चारित्रसे कर ली है संवृत इन्द्रिय कषाय व योग जिसने ऐसी आत्माये नवीन कर्मोंका द्वार रुक जाना संबर है ।१८। २. अथवा मिथ्यादर्शनादि जो कर्मों के आगमनके निमित्त है ( दे० आस्त्रब ) उनका अप्रादुर्भाव आसवका निरोध है ।१। उसके निरोध हो जानेपर, उस पूर्वक जो कर्मों का ग्रहण पहले होता था, उसका अभाव हो जाना संबर है ।२। अर्थात मिथ्यादर्शन आदिके निमित्त से होने वाले कर्मोका रुक जाना संवर है ।। भ. आ./वि./३८/१३४/१६ संवियते संरुध्यते मिथ्यादर्शनादिः परिणामो येन परिणामान्तरेण सम्यग्दर्शनादिना, गुप्त्यादिना वा स संवरः। = जिस सम्यग्दर्शनादि परिणामोंसे अथवा गुप्ति, समिति आदि परिणामोंसे मिथ्यादर्शनादि परिणाम रोके जाते हैं वे रोकनेवाले परिणाम संवर शब्दसे कहे जाते हैं। न. च. वृ./१५६ रुधिय छिद्दसहस्से जनजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छताइअभाव तह जीवे संवरो होई ।१५६३ - जिस प्रकार नावके छिद्र रुक जानेपर उसमें जल प्रवेश नहीं करता, इसी प्रकार मिथ्यास्वादिका अभाव हो जानेपर जीवमें कर्मोंका संबर होता है, अर्थात नवीन कर्मोंका आलब नहीं होता है। * संवरानुप्रेक्षाका लक्षण दे० अनुप्रेक्षा
२. द्रव्य व भाव संवर सामान्य निर्देश स. सि./६/१/४०६/६ स द्विविधो भावसंवरो द्रव्यसंवरश्चेति। तत्र संसारनिमित्तकिपानिवृत्तिर्भावसंवरः । तन्निरोधे तत्पूर्वकर्म पुदगलादान विच्छेदो द्रव्यसंवरः। -वह दो प्रकारका है- भावसंवर और द्रव्यसंबर। संसारकी निमित्तभूत क्रियाकी निवृत्ति होना भावसंवर है, और इसका (उपरोक्त क्रियाका ) निरोध होनेपर तत्पूर्वक होने वाले कर्म पुदगलोंके ग्रहणका विच्छेद होना द्रव्यसवर है। (रा.वा./९/१/७-१/५८८/१). (ज्ञा /२/८/१-३)। द.सं./मू./३४-३५ चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू। सो
भावसंबरो खलु दवासवरोहणे अण्णो ।४। बदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य । चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंबर
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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