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संशय
संशय
श्लो. वा./२/१/३३/न्या. ४५६/भाषाकार/१५९/१४ भेदाभेदात्मकत्वे ____४. संशय, विपर्यय व अनध्यवसायमें अन्तर सदसदात्मकत्वे वा बस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वं
न्या. दो./१/६/११ इदं हि नानाकोट्यवलम्बनाभावान्न संशयः विपसंशयः। -सम्पूर्ण पदार्थोंको अस्ति-नास्तिरूप या भेद अभेदात्मक
रीत ककोटिनिश्चयाभावान्न विपर्यय इति पृथगेव । -यह (अनस्वीकार करनेपर, वस्तुका असाधारण स्वरूप करके निश्चय नहीं
ध्यवसाय ) ज्ञान नाना पक्षोंका अवगाहन न करनेसे न संशय है किया जा सकता है, अतः संशय दोष आता है।
और विपरीत एक पक्षका निश्चय न करनेसे न विपर्यय है। २. संशयके भेद व उनके लक्षण
५. शंका अतिचार व संशय मिथ्यात्वमें अन्तर न्या.सू. व भाष्यका भावार्थ /१/९/२३/२८-३० समानानेकधर्मोपपत्तेविप्रतिपत्तेरुपलब्ध्यनुपलब्ध्यव्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः। भ. आ./वि./४४/१४३/६ ननु सति सम्यक्त्वे तदतिचारो युज्यते । -१. समान धर्म के ज्ञानसे विशेषकी अपेक्षासहित अबमर्शको संशयश्च मिथ्यात्वमावहति । तथाहि मिथ्यात्वभेदेषु संशयोऽपि संशय कहते हैं जैसे-दूर स्थानसे सूखा वृक्ष देखकर यह क्या वस्तु गणितः । .."सत्यपि संशये सम्यग्दर्शनमस्त्येवेति अतिचारता युक्ता । है स्थाणु है या पुरुष ऐसे अनिश्चित रूप ज्ञानको संशय कहते हैं। कथं । श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषाभावात्...यदि नामनिर्ण यो २. अनेक धर्मोंका ज्ञान होनेपर यह धर्म किसका है ऐसा निश्चय नोपजायते। तथापि तु इदं यथा सर्व विदा उपलब्ध सथै वेति श्रद्दन होना संशय है। जैसे-यह सब नामका धर्म द्रव्यका है, गुण- धेहमिति भावयतः कथं सम्यक्त्वहानिः । एवं भूतश्रद्धानरहितस्य का है अथवा द्रव्य गुण दोनोंका है। ३. विप्रतिपत्ति अर्थात पर- को वेति किमत्र तत्त्वमिति "तं मिच्छत्तं जमसहहणं तच्चाण होदि स्पर विरोधी पदार्थोंको साथ देखनेसे भी सन्देह होता है। जैसे- अत्थाण' मिति । " किं च छद्मस्थान रज्जूरगस्थाणुपुरुषादिषु एक शास्त्र कहता है कि आत्मा है, दूसरा कहता है कि नहीं, दोमें किमियं रज्जूरगः, स्थाणुः पुरुषो बा किमित्यनेकः संशयप्रत्ययो से एकका निश्चय कराने वाला कोई हेतु मिलता नहीं, उसमें जायते इति ते सम्यग्दृष्टयः स्युः। -प्रश्न-यदि सम्यग्दर्शन हो तो तत्त्वका निश्चय न होना संशय है। ४. उपलब्धिको अव्यवस्था- उसका शंका अतिचार मानना योग्य है परन्तु संशय मिथ्यापनेको से भी सन्देह होता है, जैसे सत्य, जल, तालाब आदिमें और असत्य धारण करता है।...मिथ्यालके भेदोंमें आचार्यने इसकी गणना किरणोंमें। फिर कहीं प्राप्ति होनेसे यथार्थ के निश्चय कराने वाले भो की है। उत्तर-आपका कहना ठीक है, संशयके सद्भावमें प्रमाणके अभावसे क्या सत्का ज्ञान होता है या असलुका 1 यह . भी सम्यक्त्व रहता ही है। अतः संशयको अतिचारपना मानना सन्देह वा संशय होना। ५. इसी प्रकार अनुपलब्धिकी अव्यवस्था- युक्तियुक्त है इसका स्पष्टीकरण ऐसा करते हैं । ...विशिष्टि क्षयोपशम से भी संशय होता है। पहले लक्षणमें तुल्य अनेक धर्म जानने योग्य त होना.. इत्यादि कारणोंसे वस्तुस्वरूपका निर्णय नहीं होता, वस्तुमें है और उपलब्धि यह ज्ञाता है। इतनी विशेषता है।
तो भी जैसा सर्वज्ञ जिनेश्वरने वस्तु स्वरूप जाना है वह वैसी
ही है ऐसी मैं श्रद्धा रखता हूँ, ऐसी भावना करने वाले भव्यके ३. संशय मिथ्यात्वका लक्षण
सम्यक्त्वकी हानि कैसे होगी. उसका सम्यग्दर्शन समल हागा स. सि./८/१/३७५/७ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि किं मोक्षमार्गः स्याद्वा
परन्तु नष्ट न होगा [.. उपर्युक्त श्रद्धासे जो रहित है वह हमेशा न वेत्यन्यतरपक्षापरिग्रहः संशयः । सम्यग्दर्शन, ज्ञान और
संशयाकुलित ही रहता है, वास्तविक तत्त्वस्वरूप क्या है । उसको चारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है या नहीं, इस प्रकार किसी
कौन जानता है कुछ निर्णय कर नहीं सकते ऐसी उसकी मति एक पक्षको स्वीकार नहीं करना संशय मिथ्यादर्शन है। (रा. वा./
रहती है...संशय मिथ्यात्वसे सच्चे तत्त्वके प्रति अरुचि भाव ८/१/२८/५६४/२१), (त. सा.//५)।
रहता है ।...छास्थोंको भी डोरी, सर्प, खूट, मनुष्य इत्यादि पदार्थों भ, आ/बि./५६/१८०/२० संसयिदं संशयितं किचित्तत्त्वमिति ।
में यह रज्जू है ! या सर्प है। यह खूट है या मनुष्य है इत्यादि तत्त्वानवधारणात्मकं संशयज्ञानसहचारि अश्रद्धानं संशयितम् ।
अनेक प्रकारका.संशय उत्पन्न होता है तो भी वे सम्यग्दृष्टि हैं। न हि संदिहानस्य तत्त्वविषयं श्रद्धानमस्ति इदमित्थमेवेति । ____ अन. ध./२/७१ विश्वं विश्वविदाज्ञयाभ्युपगतः शङ्कास्तमोहोदयाजनिश्चयप्रत्ययसहभावित्वात् श्रद्धानस्य । -जिसमें तत्वोंका ज्ञानावृत्त्युदयान्मतिः प्रवचने दोलायिता संशयः । दृष्टि निश्चयनिश्चय नहीं है ऐसे संशयज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले श्रद्धानको माश्रितां मलिनयेत्सा साहिरज्ज्वादिगा-या मोहोदयसंशयात्दरुचिः सशय मिथ्यात्व कहते हैं। जिसको पदार्थोंके स्वरूपका निश्चय स्यात्सा तु संशीतिक ७१३ -मोहोदयके उदयका अस्त होनेसे नहीं है उसको जोबादिकोंका स्वरूप ऐसा ही है अन्य नहीं है यथावत् विश्वास करनेवाले जीवको ज्ञानावरण कर्म के उदयसे तत्त्वोके ऐसी तत्त्व विषयक सच्ची श्रद्धा नहीं रहती है। जब सच्ची श्रद्धा विषयमें दोलायमान बुद्धिको संशय कहते हैं। इस संशयको ही शंका होती है तब निश्चय ज्ञान होता है।
नामक अतिचार कहते हैं वही निश्चय सम्यग्दर्शनको मलिन करती घ.८/३.६/२०/८ सम्बत्थ संदेहो चेव णिच्छओ रियत्ति अहिणिवेसो है। सर्प रज्जु आदिके विषयमें उत्पन्न शंका उसको मलिन नहीं
संसयमिच्छत्तं । -सर्वत्र सन्देह ही है, निश्चय नहीं है, ऐसे अभि- करती। अर्थात जिस शंकासे सम्यग्दर्शन मलिन हो उसे शंका निवेशको संशय मिथ्यात्व कहते हैं।
अतिचार कहते हैं । जो शंका मोहनोय कर्मके उदयसे उत्पन्न हो और नि. सा./ता. वृ./५१ संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । जिससे सर्वज्ञोक्त तत्त्वोंमें अश्रद्धा हो उसको संशय मिथ्यात्व -जिनदेव होंगे या शिवदेव होंगे, यह संशय है।
कहते हैं। गो, जी./जी प्र./१६/४१/४.इन्द्रो नाम श्वेताम्बरगुरुः तदादयः संशयमिथ्यादृष्टयः। - इन्द्र नामक श्वेताम्बरोंके गुरुको आदि देकर
* संशय मिथ्यात्व व मिश्र गुणस्थानमें अन्तर संशय मिथ्यादृष्टि है।
-वे. मिश्र/२। द्र. सं./टी./४२/१८०/६ शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं किं वीत- * सम्यग्दृष्टिको भी कदाचित् पदार्थके स्वरूपमें संशय रागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति, संशयः । = शुद्ध
-दे. निःशंकित । आत्मतत्त्वादिका प्रतिपादक तत्त्वज्ञान, क्या वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है या अन्य मतियों द्वारा कहा हुआ सत्य है, यह
* सम्यग्दृष्टिको संशयके समय कथंचित् अन्धनद्धान संशय है।
या अश्रद्धान-दे, श्रद्धान/३। भा०४-१९
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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