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संयम
प्राप्ते. साक्षात्कारणमिति ज्ञापनाय । प्रश्न- दश प्रकारका धर्म कहा गया है। तहाँ संयम नामके धर्म में चारित्रका अन्तर्भाव प्राप्त होता है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, सकलकर्मों के क्षयका कारण होनेसे चारित्र मोक्षका साक्षात्कारण है । और इसीलिए सूत्र में उसका अन्त में ग्रहण किया गया है।
दे. पारिज/१/६ [ चारित्र जीवका स्वभाव है पर संयम नहीं ।]
४. इन्द्रिय संयममें जिला व उपस्थकी प्रधानत
मू. आ./१८८- ६८६ जिग्भोवत्यणिमित्तं जीवो दुक्खं अणादिसंसारे । पत्ती अनंतसो तो जिन्भोतत्थे जह दाणि । १८८। चदुरं गुला च जिन्भा अहा चदुरं गुलो उबरथो वि । अठ्ठ्ठगुलदोसेण दु जीवो दुबखं हु पप्पादि इस अनादिसंसारमें इस जीवने जिहा व उपस्थ इन्द्रियके कारण अनन्त बार दुःख पाया । इसलिए अब इन दोनोंको जीत चार अंगुल प्रमाण तो अशुभ यह जिह्वा इन्द्रिय और चार ही अंगुल प्रमाण अशुभ यह उपस्थ इन्द्रिय, इन आठ अंगुलों के दोषसे ही यह जीव दुःख पाता है | ८ |
कुरल काव्य / १३ / ७ अन्येषां विजयो मास्तु संयतां रसनां कुरु । असंयतो यतो जिह्वा बहुपायैरधिष्ठिता । ७ =और किसो इन्द्रियको चाहे मत रोको, पर अपनी जिह्नाको अवश्य लगाम लगाओ, क्योंकि बेलगामकी जिह्वा बहुत दुःख देती है ॥७॥
३. रसपरित्याग / २ ( जिहाके या होनेपर रूम इन्द्रियों वश हो जाती है।]
५. इन्द्रिय व मनोजयका उपाय
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भ. आ./मू./१८३७-१८३८ इंदियदुदं तस्सा णिग्घिप्पति दमणाणखतिपहिंगामी पिभिति खसि मिसाईदिवसप्पाणि जिनेदिं तर ति बिज्जामंत सहगव आसी विसा सप्पा | १०३८। उन्मार्गगामी दुष्ट पोड़ोंका जैसे लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं वैसे ही तत्त्वज्ञान की भावना से इन्द्रियरूपी अश्वोंका निग्रह हो सकता है । १८३७१ विद्या, औषध और मन्त्र से रहित मनुष्य जैसे आशीविष सर्पोंको वश करनेको समर्थ नहीं होते वैसे ही इन्द्रियं सर्प भी मनकी एकाग्रता नष्ट होनेसे ज्ञानके द्वारा नष्ट नहीं किये जा सकते । १८३८१
चा. पा./मू./२१ अमण्णुष्णेय मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य । ण करे रायदो दियसंवरो अगिओपौष इद्रियोंके विषयभूत अमनोज्ञ पदार्थों में तथा स्त्री-पुत्रादि जोवरूप और धन आदि अजीवरूप ऐसे मन पदार्थों राम-पान करना ही पाँच इन्द्रियों संवर] है. आ./१७-२१)।
कुरल काव्य /३० / २ निग्रहं कुरु पचानामिन्द्रियाणां विकारिणाम् । विधेषु संमोह त्यागस्वार्थ शुभश्रमः | ३|अपनी पाँचों इन्द्रियोंका दमन करो और जिन पदार्थोंसे तुम्हें सुख मिलता है उन्हें बिलकुल ही त्याग दो |३|
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अनु./७६ संचिन्तयन्नमेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुराः जयश्ये मनः साधुरिन्द्रियार्थ परामुखः [६] - जो साधु भने प्रकार अनु का सदा चिन्तवन करता है, स्वाध्यायमे उद्यमी और इन्द्रिय विषयोंसे प्रायः मुख मोड़े रहता है वह अवश्य ही मनको जीतता ७६
६. कषाय निग्रहका उपाय
भ. आ./मू./१८३६ उवसमदयादमाउहक रेण रक्खा कसायचोरेहिं । सक्का काउं आउहकरेण रक्खा व चोराणं । १८३६। जैसे सशस्त्रपुरुष चोरोंसे अपना रक्षण करता है, उसी प्रकार उपशम दया और निग्रह रूप तीन शस्त्रोंको धारण करनेवाला कषायरूपी चोरोंसे अवश्य अपनी रक्षा करता है।
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२. नियम व शंका-समाधान आदि
भ.आ./मू./२६०-२६८ कोधं खयाए माणं च मद्दवेणाज्जवं च मायं च । संगियो बारिस से मो पनि कायग्यित्युमक्ति
जोसम
कसाया | २६२॥ तम्हा हु कसायग्गी पावं उप्पज्जमानयं चेव । इच्छामिच्छादुक्कडवं दणसलिलेण विज्झाहि । २६७ - हे क्षपक ! तू क्षमारूप परिणामों से क्रोधको, मार्दवसे मानको, आर्जवसे मायाको और सन्तोष से लोभ कषायको जीतो ॥ २६० | जिस वस्तु के निमित्तसे कषायरूपी अग्नि होती है वह त्याग देनी चाहिए और कषायका शमन करनेवाली वस्तुका आश्रय करना चाहिए | २६२॥ [ धीरे-धीरे बढते हुए कषाय अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्व तकका कारण बन जाती है ] इसलिए यह कषायाग्नि अब पापको उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही, हे भगवन् आपका उपदेश ग्रहण करता । मेरे पाप मिथ्या होवें मैं आपका बन्दन करता ऐसे वचनरूप जलसे शान्त करना चाहिए | २६७ प.प./मू./२/१०४ मिठु-जह मणि सहण व जाह तो लहु भावहि बंभु पर जिं मणु झत्ति विलाइ | १८४१ = हे जीव | जो कोई अविवेकी किसीको कठोर वचन कहे, उसको सुनकर जो न सह सके तो कषाय दूर करनेके लिए परब्रह्मका मनमें शीघ्र ध्यान करो ।
आ. अनु. / २१३ हृदयसरसि यावन्निर्मलेऽप्यत्यगाधे, वसति खलु कषायग्राहचक्रं समन्तात् । श्रयति गुणगणोऽयं तन्न तावद्विशङ्क', सयमशमविशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व । निर्मल और अथाह हृदयरूप सरोवरमें जबतक पायरूप हिंस जलजन्तुओं का समूह निवास करता है. तब तक निश्चयसे यह उत्तम क्षमादि गुणोंका समुदाय निःशंक होकर उस हृदयरूप सरोवरका आश्रय नहीं लेता है। इसलिए हे भव्य ! तू व्रतों के साथ तीव्र मध्यमादि उपशम भेदोंसे उन कषायों के जीतनेका प्रयत्न कर । २१३|
ससा / आ./२०६/क. १०६ इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञान जानाति तेन सः । रागादोन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः । १७६ | - ज्ञानी ऐसे अपने स्वभावको जानता है. इसलिए वह रागादिको निरूप नहीं करता, अतः वह रामादिकका कहीं नहीं है | १०६ (दे. चेतना / ३ / २.३) ।
मो.सा./अ./५/७ विशुद्धदर्शनज्ञानचारित्रमयमुज्ज्यत्तस्यो ध्यायच्यारमानात्मानं कार्य क्षपयरसी अपनी आत्मा से ही विशुद्ध दर्शनज्ञान चारित्रमयी उज्ज्वलस्वरूप अपनी आत्माका जो ध्यान करता है वह अवश्य ही समस्त कषायों का नाश कर देता है। दे. राग /५/३ [ राग और द्वेषका मूल कारण परिग्रह है। अतः उसका त्याग करके रागद्वेषको जीत सेता है।
७. संयमपालनार्थ भावना विशेष
रा.वा./६/६२७/५६६/१६ संयमो ह्यात्महितः तमुतिष्ठन्निव पूज्यते परत्र किमस्ति वय असंयतः प्राणिवधविषयरणेषु नित्यप्रवृत्तः कर्माशुभं संचिनुते । संयमी पुरुषको यहीं पूजा होती है, परलोक की तो बात ही क्या 1 असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होनेसे अशुभ कर्मो का संचय करता है।
वि./१/१० मानुष्यं हि दुर्लभ भवभूतस्तत्रापि कारणादयस्तेष्वे वाचा सुतिः स्थितिरतस्तस्याश्च ग्बोधने प्राप्ते अतिनिर्म अपि परं स्यातां न येनोज्झिते, स्वर्मोक्षैकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयमः । = इस संसारी प्राणीको मनुष्यत्व, उत्तम जाति आदि, जिनवाणी श्रवण, लम्बी आयु, सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान ये सब मिलने उत्तरोत्तर अधिक अधिक दुर्लभ हैं। ये सब भी संयमके बिना स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फलको नहीं दे सकते, इसलिए संयम कैसे प्रशंसनीय नहीं है। और भी दे. अनु/१/१९)
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