________________
संयम
१. भेद व लक्षण
३. निश्चय संयमका लक्षण प्र. सा./त प्र./१४.२४२ सकलषड् जीवनिकायनिशुम्भनविकसपारगचन्द्रियाभिलाषविकल्पाच व्यावस्यात्मन: शुद्धस्वरूपे संयमनात...१४ाझेयसाततत्त्वतथाप्रती तिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानभतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण शेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि योगपद्येन-.-परिणतस्यात्मनि यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं ।२४२० -१. समस्त छह जीव निकायके हननके विकल्पसे और पंचेन्द्रिय सम्बन्धी अभिलाषाके विकल्पसे आमाको व्यावृत्य करके आत्मा शुद्धस्वरूपमें संयमन करनेसे (संयमयुक्त है ) 1२ शेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी तथा प्रकार प्रतीति, तथा प्रकार अनुभूति और क्रियान्तरसे निवृत्तिके द्वारा रचित उसी तत्त्वमें परिणति, ऐसे लक्षणवाले सम्यग्दर्शन ज्ञान ब चारित्र इन तीनों पर्यायोंकी युगपतताके द्वारा परिणत आत्मामें आत्मनिष्ठता होनेपर जो संयतपना होता है ...। पं. घ./3/१९९७ शुद्धस्वास्मोपलन्धिः स्याव संयमो निष्क्रियस्य च।
-निष्क्रिय आत्माके स्वशुद्धात्माकी उपलब्धि ही संयम कहलाता है। १. संयम मार्गणाकी अपेक्षा भेद व लक्षण घ. वं.१/९.९/सूत्र १२३/३६८ संजमाणुवादेण अस्थि संजदा सामाइय
छेदोक्छावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहमसापरायमुद्धिसंजदा जहाक्वाद बिहारसुद्धिसंजदा संजदासंजदा असंजदा चेदि। ।१२३। - संयम मार्गणाके अनुवादसे सामायिक शुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनांशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्पराय शुद्धिसंयत और यथारूपातविहारशुद्धिसंयत ये पाँच प्रकारके संयत तथा संयत्तासंयत और असंयत जीव होते हैं ।१२३। (द्र. सं./टो./१३/३८/२) । दे, चारित्र/१/३ [सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म
साम्पराय और यथाख्यात ऐसे चारित्र पाँच प्रकार के हैं। नोट-[ इनके लक्षणोंके लिए-वे. वह वह नाम । ]
५. निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद व लक्षण घ.७/१,१.४८/११/५ णायसंजमो ठवणसंजमो दव्य संजमो भावसंजमो
चेदि चउबिहो संजमो......तव्वदिरित्तदव्वसंजमो संजमसाहणपिच्छाहारकवलीपोत्थयादीणि । भावस जमो दुविहो आगमणोआगमभेएण। आगमो गदो। णोआगमो तिविहो खइओ खओवसमिओ उवसमिओ चेदि । -नामसंयम, स्थापनासंयम, द्रव्यसंयम और भावसंयम । इस प्रकार संयम चार प्रकारका है । ( नाम स्थापना आदि भेद-प्रभेद निक्षेपवत जानने)। तद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यसंयम संयमके साधनभूत पिच्छिका, आहार, कमण्डलु, पुस्तक आदिको कहते हैं। भावसंयम आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है-आगमभावसंयम तो गया, अर्थात निक्षेपवत जानना । नोआगम भावसंयम तीन प्रकारका है-क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपमिक। [तहाँ क्षायोपशमिक संयमके लिए।-दे. संयत/२ और औपशमिक व क्षायिकके लिए--दे. श्रेणी ]। ६. सकल व देश संयमकी अपेक्षा चा. पा./मू./२१ दुविहं संजमचरणं साया तह हवे णिरायार । सायारं सर्गथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं १२११-संयम चरण चारित्र दो प्रकारका है-सागार तथा निरागार । सागार तो परिग्रहसहित श्रावक के होता है, बहुरि निरागार परिग्रहसे रहित मुनिक होता है ।२श र.के. पा./५० सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगबिरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम् ।। -वह चारित्र सकल और विकलके भेदसे दो प्रकारका है। समस्त प्रकारके परिग्रहसे रहित मुनियों के सकल चारित्र और गृहस्थों के विकल चारित्र होता है। प्र.सि.उ.४० हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः। कात्स्न्यै
कदेशविर तेश्चारित्र जायते द्विविधम् ।१०। - हिसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचोंके सर्वदेश व एकदेश त्यागसे चारित्र
दो प्रकारका होता है। (दे. व्रत/३/१)। ल, सा/भू./१६७/२२१ दुविहा चरित्तलखी देसे सयले.... चारित्रकी
लन्धि सकल व देशके भेदसे दो प्रकार है। पं. का./ता. वृ./१६०/२३१/१३ चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणग्रन्थविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पञ्चमहावतपञ्चसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपम् गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययन ग्रन्थविहितमार्गेण पञ्चमगुणस्थानयोग्यं दानशील पूजोपवासादिरूप दार्शनिक प्रतिकाद्य कादशनिलयरूपं वा इति। -मुनियोंका चारित्र आचारांग आदि चारित्र विषयक ग्रन्थों में कथित मार्गसे. प्रमरा व अप्रमत्त इन दो गुणस्थानोके योग्य (दे. संयत ) पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, छह आवश्यक आदि रूप होता है (दे. संयम/१/२)
और गृहस्थोंका चारित्र उपासकाध्ययन आदि ग्रन्थों में कथित मार्गसे, पंचमगुणस्थानके योग्य (दे. संयतासंयत ) दान शील, पूजा, उपबास आदि रूप होता है। अथवा दार्शनिक प्रतिमा, बतप्रतिमा
आदि ११ स्थानोंरूप होता है-(दे. श्रावक)। सिद्धान्त प्रवेशिका/२२४-२२५ श्रावकके बतोंको देशचारित्र कहते हैं ।२२४६ मुनियोंके व्रतोंको सकल चारित्र कहते हैं "२२५ ७. अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश १. लक्षण रा. वा./४/६/१५४५६६/२६ संयमो हि द्विविधः--उपेक्षासंयमोऽपहुतसंयमश्चेति । देशकाल विधानज्ञस्य परानुपरोधेन उत्सृष्ट कायस्य त्रिधा गुप्तस्य रागद्वेषानभिष्वङ्गलक्षण उपेक्षासंयमः । अपहतसंयमस्त्रिविधः उत्कृष्टो मध्ममो जघन्यश्चेति। तत्र प्रामुक मस्त्याहारमात्रबाहासाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञान चरणकरणस्य बाह्यजन्तूपनिपाते आत्मानं ततोऽपत्य जीवान् प्रतिपालयत उत्कृष्टः, मृदुना प्रमृज्य जन्तून् परिहरतो मध्यमः, उपकरणान्तरेच्छया जघन्यः। -संयम दो प्रकारका होता है-एक उपेक्षा संयम और दूसरा अपहृत सयम । देश और कालके विधानको समझनेवाले स्वाभाविक रूपमे शरीरसे विरक्त और तीन गुप्तियों के धारक व्यक्तिके राग और वषरूप चित्तवृत्तिका न होना उपेक्षासंयम है। अपहतसंयम उत्कृष्ट मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकार है। प्रामुक, वसति और आहारमात्र हैं। बाह्यसाधन जिनके, तथा स्वाधीन हैं ज्ञान और चारित्ररूप करण जिनके ऐसे साधुका बाह्य जन्तुओंके आनेपर उनसे अपनेको बचाकर संयम पालना उत्कृष्ट अपहृत संयम है। मृदु उपकरणसे जन्तुओंको बुहार देनेवाले मध्यम और अन्य उपकरणोंकी इच्छा रखनेवाले के जघन्य अपहृत संयम होता है। (चा. सा./६९/७-७५/२)( और भी
दे. संयम/१/१ )। नि. सा./ता, बृ./६४ अपहृतसंयमिना संयमज्ञानाच_पकरणग्रहण बिसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम्। उपेक्षासंयमिनां न पुस्तककमण्डलुप्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अतएव बाह्योपकरणनिमुक्ता। यह अपहतसंयमियोंको संयमज्ञानादिक के उपकरण लेते, रखते समय उत्पन्न होनेवाली समितिका प्रकार कहा है। उपेक्षा संयमियोंको पुस्तक, कमण्डलु आदि नहीं
होते, वे परम जिनमनि एकान्तमें निस्पृह होते हैं, इसलिए वे बाह्य - उपकरण रहित होते हैं।
२. दोनोंकी वीतराग व सराग चारित्रके साथ एकार्थता प.प्र./टी/२/६७/१८८/१५ अथवोपेक्षासंयमापहतसयमौ वीतरागसरागापरनामानौ तावपि तेषामेव संभवतः। -उपेक्षासंयम और अपहतसंयम जिनको कि वीतराग व सराग संयम भी कहते हैं, ये दोनो भी उन शुद्धोपयोगियोंको ही होते हैं।
भा०४-१८
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org