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संयम
१. भेद व लक्षण
निक्षेपोंकी अपेक्षा भेद व लक्षण । सकल व देशसंयमकी अपेक्षा। सकल चारित्र देशचारित्रकी अपेक्षा है यथाख्यातकी अपेक्षा नहीं।
-दे० संयत/२/१ में गो. जी. । | अपहृत व उपेक्षा संयम निर्देश
१. लक्षण व उनकी वीतरागता सम्बधी विशेषताएँ। प्राणी व इन्द्रिय संयमके लक्षण । प्राणि व इन्द्रियसंयमके १७ भेद ।
गुणस्थानोंमें परस्पर संयमोंका आरोहण अवरोहण क्रम।
-दे० स यत/१५ । ४ । बद्धायुष्कोंमें केवल देवायु वाला ही संयम
धारण कर सकता है। -दे० आयु/६। ५ स्त्रीको या सचेलको सम्भव नहीं। -दे० वेद/७/४ । ६ संयम मार्गणामें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान
आदि रूप २० प्ररूपणाएँ। -दे० सत् । ७ ! संयम मार्गणा सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन
काल, अन्तर, भाव व अल्प बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ।
-दे, वह वह नाम। ८ संयमियोंमें कर्मोका बन्ध-उदय-सत्व ।
-दे.यह वह नाम । ९ | सभी मार्गणा स्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम ।
-दे. मार्गणा।
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नियम व शंका समाधान * चारित्रमोहका उपशम क्षय व क्षयोपशम विधान।
-दे० वह वह नाम। * | सम्यक्ष सहित ही होता है। -दे० चारित्र/३॥ व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयमी नहीं।
-दे० चारित्र/३/८ । | सवस्त्रसंयम निषेध ।
-दे० वेद/७/४। संयम व विरतिमें अन्तर। संयम गुप्ति व समिति आदिमें अन्तर ।
चारित्र व संयममें अन्तर । | उत्सर्ग व अपवादसंयम निर्देश। -दे० अपत्राद/४। सयोगकेवलीके संयममें भी कथंचित् मलका सद्भाव।
-दे० केवली/२/२। | संयममें परीषहजयका अन्तर्भाव। -दे० कायक्लेश । इन्द्रियसंयममें जिह्वा व उपस्थकी प्रधानता । इन्द्रिय व मनोजयका उपाय । कषाय निग्रहका उपाय । संयम पालनार्थ भावना विशेष ।
पंचम कालमें सम्भव है। * निगोदसे निकलकर सीधे संयम माप्ति करने सम्बन्धी।
-दे० जन्म/५। | जन्म पश्चात् संयम प्राप्ति योग्य सर्व लघुकाल
सम्बन्धी नियम। | पुनः पुनः संयमादि प्राप्तिकी सीमा। संयमी मरकर देवगतिमें ही जन्मता है।
दे. जन्म/५/६ । संयममार्गणामें क्षायोपशमिक भाव सम्बन्धी।
-दे० संयत/२॥
१. भेद व लक्षण
१. संयमका लक्षण ध.७/२,१,३/७/३ सम्यक् यमो वा संयमः । =सम्यक् रूपसे यम ।
अर्थात नियन्त्रण सो संयम है। दे० चारित्र/३/७ [ सं यमन करनेको संयम कहते हैं । अर्थात भावसंयम."
से रहित द्रव्यसंयम संयम नहीं है।] २. व्यवहार संयमका लक्षण १. व्रत समिति गुप्ति आदिकी अपेक्षा प्र. सा./मू./२४० पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदिय संबुडो जिदकसाया। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।२४०। -पंचसमितियुक्त, पाँच इन्द्रियों के संवरवाला, तीन गुप्ति सहित, कषायोंको जीतने वाला, दर्शन ज्ञानसे परिपूर्ण जो श्रमण है वह संयत कहा गया है। प्र.सा./प्रक्षेपक गा.मू./२४०-१ चागो अणारंभो बिसयविरागोखओ
कसायाण । सो संजमोत्ति भणि दो पज्जाए विसेसेण । बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग, मन वचन कार्यरूप व्यापारसे निवृत्ति सो. अनारम्भ, इन्द्रिय विषयोंसे विरक्तता. कषायोंका क्षय यह सामान्यरूपसे संयमका लक्षण कहा गया है। विशेष रूपसे प्रवज्याकी अवस्थाएँ होती हैं। चा. पा./मू./२८ पंचिंदियसंवरणं पंचवया पंचविसकिरियासु । पंच-' समिदि तयगुत्ती सजमचरणं गिरायारं ॥२८१ = पाँच इन्द्रियोंका ' सवर ( दे. संयम/२) पाँच व्रत और पचीस क्रिया, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनका सद्भाव निरागार संयमाचरण चारित्र है। बा. अ./७६ बदसमिदिपालणाए दंडच्चोएण इंदियजएण। परिणम
माणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ७६। =बत व समितियोंका. पालन, मन वचन कायकी प्रवृत्तिका त्याग, इन्द्रियजय यह सब जिसको होते हैं उसको नियमसे संयम धर्म होता है। पं. स./प्रा. १२७ वदस मिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाणं पंचण्डं। धारणपालणणिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ ।१२७१ - पाँच महावतोंका धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, चारकषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय रूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पाँच इन्द्रियोंका जीतना (दे. संयम/२) सो संयम कहा गया है ।१२७। (ध. १/१, १,४/ गा.१२/१४५); (ध.७/२,१, ३/७/२); (गो.जी./मू./४६५/८७६)। दे० तप/२/१ [ तेरह प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना संयम है।)
संयमका स्वामित्व । सामायिक आदि संयमोंका स्वामित्व ।
-दे० वह वह नाम। क्षायोपशमिकादि संयमोंका स्वामित्व (५-७
तक क्षायोपशमिक और आगे औपशमिक व क्षायिक) -दे. वह वह गुणस्थान ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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