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संयम
२. नियम व शंका-समाधान आ
व स्थावर जीवों में से किसीके भी वधके लिए मन, वचन व काय उद्यत न होना सो प्राणिसंयम है ।११२२॥
९. प्राणि व इन्द्रिय संयमके १७ भेद मू. आ./४१६-४१७ पुढविदगतेउवाऊवणप्फदीसंजमो य बोधव्वो विगतिचदुपंचेंदिय अजीवकायेस संजमण ।४१६३ अप्पडिलेह दुर डिलेहमुवेरखावहरण दु संजमो चेव । मणवयणकायसंजम सत्तरस विध दुणादयो ।४१७४ -पृथिवी, अप, तेज, वायु व वनस्पति ये पाँ स्थावरकाय और दो, तीन, चार व पाँच इन्द्रियवाले चार त्रस जी. इनकी रक्षामें प्रकार तो प्राणि संयम है, सूखे तृण आदिका छेदः न करना ऐसा १ भेद अजीवकायकी रक्षारूप है ।४१६। अप्रतिलेखन दुष्प्रतिलेखन, उपेक्षासंयम, अपहृतसंयम, मन, वचन व काय संयम इस प्रकार कुल मिलकर १७ संयम होते हैं ।।१७। (यहाँ पीछी द्रव्यका शोधन सो प्रतिलेख संयम है और अप्रमाद रहित यत्नपूर्वक शोधन दुष्प्रतिलेख संयम है।)
२. नियम व शंका-समाधान आदि
१. संयम व विरतिमें अन्तर ध. १४/५,६,१६/१२/१ संजम-विरईण को भेदो। ससमिदिमहव्वयाणुव्वयाई संजमी। समईहि विणा महव्ययाणुव्वमा विरई। प्रश्न-- संयम और विरतिमें क्या भेद है ! उत्तर-समितियों के साथ महावत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं। और समितियों के बिना महाव्रत
और अणुव्रत विरति कहलाते हैं । (चा. सा./४०/१) दे. संवर/२/२ विरति प्रवृत्तिरूप होती है और संयम निवृत्ति रूप]
२.संयम गुप्ति व समितिमें अन्तर
दे. चारित्र/९/१४,१५ [अपवाद, व्याहारनय, एकदेश परित्याग, अपहृतसंयम, सरागचारित्र, शुभोपयोग ये सब शब्द, तथा उत्सर्ग, निश्चयनय सर्व परित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र, शुद्धोपयोग ये सब शब्द एकार्थवाची हैं। ३. अपहृतसंयमको विशेषताएँ दे. संयम/२/२ ( अपहृत संयम दो प्रकारका है-इन्द्रिय स यम और
प्राणि संयम ।] दे. शुद्धि/२ [ इस अपहृत संयममें भाव, काय, विनय आदिके भेदसे आठ
शुद्धियोंका उपदेश है। ]
८. प्राणि व इन्द्रिय संयमके लक्षण दे, असं यम [ असंयम दो प्रकारका है- प्राणि असंयम और इन्द्रिय
असं यम । तहाँ षट् काय जीवोंकी विराधना प्राणि असंयम है और इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति इन्द्रिय असंयम है। (इससे विपरीत प्राणि व इन्द्रिय संयम हैं-यथा)] मू. आ./४१८ पंचरस पंचवण्ण दोगधे अठ्ठफास सत्तसरा। मणसा चोदसजीवा इदियपाणा य संजमो णेओ। - पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गन्ध, आठ स्पर्श, षड्ज आदि सात स्वर ये सब मनके २८ विषय हैं । इनका निरोध सो इन्द्रिय संयम है और चौदह प्रकारकी जीवों
की (दे, जीव समास) रक्षा करना सो प्राणिसंयम है। पं.सं./प्रा./२/१२८ सगवण्ण जीव हिंसा अट्ठावीसिंदियस्थ दोसा य । तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ।१२८। = पहले जीवसमास प्रकरणमे जो सत्तावन प्रकारके जीव बता आये है (दे. जीवसमास). उनकी हिंसासे तथा अठाईस प्रकारके इन्द्रिय विषयों के (दे. सन्दर्भ सं.१)दोषोंसे विरति भावका होना संयम है ।१२८॥ स. सि./६/१२/३३१/११ प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः । स सि.//६/४१२/१ समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारस्संयमः ।
१. प्राणियों व इन्द्रियों के विषयों में अशुभ प्रवृत्तिके त्यागको संयम कहते हैं। (रा. वा./६/१२/६/५२२/२१)। २. समितियों में प्रवृत्ति करनेवाले मुनिके उनका परिपालन करनेके लिए जो प्राणियोंका और इन्द्रियों का परिहार होता है, वह संयम है। (रा. वा./६/६/१४/६६६/२६); (चा. सा./७१/१); (त. सा./६/१८); (पं.वि./१/६६) रा.वा./६/६/१४/६६६/२७ एकेन्द्रियादिप्राणिपीडापरिहारः प्राणिसं यमः।
शब्दादिष्विन्द्रियार्थेषु रागानभिष्वङ्ग इन्द्रियसंयमः।-एकेन्द्रियादि प्राणियोंको पीड़ाका परिहार प्राणिसंयम है और शब्दादि जो इन्द्रियों के विषय उनमें रागका अभाव सो इन्द्रिय संयम है। (चा,
स./७५/१); (अन. ध./६/३७-३८/५६१) का.अ./मू./३६६ जो जीवरक्रवणपरो गमणागमणादिसब्वकज्जेस । तणछेदं पिण इच्छदि संजमधम्मो हवे तस्स । -जीव रक्षामें तत्पर जा मुनि गमनागमन आदि सब कार्यों में तृणका भी छेद नहीं करना चाहता उस मुनिके (प्राणि) संयम धर्म होता है ।३६६। नि. सा./ता.व./१२३ संयमः सकले न्द्रियव्यापारपरित्यागः1 - समस्त
इन्द्रियोंके व्यापारका परित्याग सो संयम है। पं.ध./उ./१११८-११२२ पञ्चानामिन्द्रियाणां च मनसश्च निरोधनात् । स्यादिन्द्रियनिरोधारख्यः संयमः प्रथमो मतः ।१११८। स्थावराणां च पञ्चानां त्रसस्यापि च रक्षणात् । अनुसंरक्षणारख्यः स्यादद्वितीयः प्राणसंयमः ११११६। सत्यमक्षार्थ संबन्धाज्ज्ञानं नासंयमाय यत । तत्र रागादिबुद्धिर्या संयमस्तनिरोधन ११२१। त्रसस्थावरजीवानां न वधायोद्यतं मनः । न बचो न वपुः क्वापि प्राणिसंरक्षणं स्मृतम् ।११२२ - पाँचों इन्द्रियों व मनके रोकनेसे इन्द्रिय संयम और त्रस स्थावरों की रक्षा प्राणसंयम है ।१११८-१११६. इन्द्रियों द्वारा जो अर्थविषयक ज्ञान हाता है वह असंयम नहीं है, बल्कि उन विषयों में राग वृद्धिका न होना इन्द्रिय संयम है ।११२१और इसी प्रकार त्रस
रा. वा./8/६/११-१५५६६/१५ अथ क. संयमः। कश्चिदाह-भाषादिनिवृत्तिरिति। न भाषादिनिवृत्तिः संयमः गुप्त्यन्तर्भावात ॥११॥ गुप्तिहि निवृत्तिप्रवणा, अतोऽत्रान्तर्भावात संयमाभावः स्यात् । अपरमाह-कायादिप्रवृत्ति विशिष्टा संयम इति । नापि कायादिप्रवृत्तिविशिष्टाः समितिप्रसङ्गात् ।१२। समितयो हि कायादिदोषनिवृत्तयः, अतस्तत्रान्तर्भाव: प्रसज्यते । त्रसस्थावरबधप्रतिषेध आत्यन्तिकः संयम इति चेत्, न; परिहारविशुद्धिचारित्रान्तर्भावात १२॥ ...कस्ताहि संयमः। समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयम. १४९ अतोऽहतसं यमभेदसिद्धिः ॥१५ -१. कोई भाषादिकी निवृत्तिको संयम कहता है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि उसका गुप्तिमें अन्तर्भाव हो जाता है। गुप्ति निवृत्तिप्रधान होती है इसलिए उपरोक्त लक्षण में संयमका अभाव है। २. काय आदिकी प्रवृत्तिको भी संयम कहना ठीक नहीं है; क्योंकि काय आदि दोषोंकी निवृत्ति करना समिति है। इसलिए इस लक्षणका समितिमें अन्तर्भाव हो जानेसे वह संयम नहीं हो सकता। ३. सस्थावर जीवों के वधका आत्यन्तिक प्रतिषेय भी संयम नहीं है, क्योंकि परिहार विशुद्धि चारित्रमे अन्तर्भाव हो जाता है। ४. प्रश्न -तत्र फिर संयम क्या है ! उत्तर-समितियों में प्रवर्तमान जीवके प्राणिवध व इन्द्रिय विषयोंका परिहार संयम कहलाता है। इससे अपहत संयमके भेदोंकी सिद्धि होती है। (अर्थात अपहृत संयम दो प्रकारका है-प्राणिसंयम व इन्द्रिय संयम ।) (चा. सा./७५/१); (अन. ध./६/१७/५६१) ३. चारित्र व संयममें अन्तर रा.वा./8/१८/५/६१७/७ स्यादेतत् दशविधो धर्मो व्याख्यातः, तत्र संयमेऽन्तर्भावोऽस्य प्राप्नोतीति: तन्नः किं कारणम् । अते वचनस्य कृत्स्नकर्मक्षयहेतुत्वात्। धर्मे अन्तर्भूतमपि चारित्रमन्ते गृह्यते मोक्ष
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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