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संयतासंयत
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संयतासंयत
११३॥ (ध. १/१,१,१२३/गा. १९२/३७३); (गो. जी./४७६/८८३) रा. बा./२/५/८/१०८/७ विरताविरत परिणामः क्षायोपशमिकः संयमा
संयमः । रा. वा./4/१२/७/५२२/२७ संयमासंयमः अनात्यन्तिकी विरत्तिः ।
-क्षायोपशमिक विरताविरत परिणामको संयमासंयम कहते हैं। अथवा अनात्यन्तिकी विरक्तताको संयमासंयम कहते हैं। घ. १/१,१,१३/१७३/१० संयताश्च ते असंयताच संयतासंयताः।-जो
संयत होते हुए भी असंयत होते हैं, उन्हें संयतासंयत कहते हैं। पु. सि. उ./४१ या त्वेकदेश विरतिनिरतस्तस्यामुपासको भवति ।-जो
एकदेश विरतिमें लगा हुआ है वह श्रावक होता है। दे, तो-[घरके प्रति जिसकी रुचि समाप्त हो चुकी है वह संयत है
और गृहस्थी संयतासंयत हैं।] दे, विरताविरत [बारह बतोंसे सम्पन्न गृहस्थ बिरताविरत हैं।
संयमासंयमका स्वामित्व । मिथ्यादृष्टिको सम्भव नहीं। -दे. चारित्र/३/८ । इसमें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ।
-दे. सत् । मार्गणाओंमें इसके स्वामित्व सम्बन्धी शंका-समाधान ।
-दे, वह बह नाम । इस सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्वरूप ८ प्ररूपणाएँ। -दे. बह वह नाम । सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय ।
-दे. मार्गणा। भोगभूमिमें संयमासंयमके निषेधका कारण।
-दे. भूमि। शद्रको क्षल्लक दीक्षा सम्बन्धी । -दे, वर्णव्यवस्था/४। इसके पश्चात् भव धारणकी सीमा। सर्वलघु कालमें संयमासंयम धारणकी योग्यता।
-दे. संयम/२ पुनः पुनः संयमासंयम प्राप्तिकी सीमा ।
- दे. संयम/२। संयतासंयतोंमें सम्भव भाव।। इसमें क्षायोपशमिक भाव कैसे। इसे औदयिकौपशमिक नहीं कह सकते।
-दे.क्षायोपशमिक/२/३ । | सम्यग्दर्शनके आश्रयसे औपशमिकादि क्यों नहीं।
-दे, संयत/२/६ । इसमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध उदय सत्त।
-दे. वह वह नाम । एकान्तानुवृद्धि आदि संयतासंयत । -दे, लब्धि//८ । स्वर्गमें ही जन्मनेका नियम। -दे. जन्म/४। इसमें आत्मानुभव सम्बन्धी। -दे. अनुभव/५॥
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२. संयम व असंयम युगपत् कैसे ध.१/१,१,१३/१७३/१० यदि संयतः, नासावसंयतः । अथासंयतः, नासौ संयत इति विरोधान्नायं गुणो घटत इति चेदस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः इष्टत्वात. अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात् । न गुणानां सहानवस्थानल धणो विरोधः संभवति. संभवेद्वा न वस्त्वस्ति तस्यानेकान्त निबन्धनत्वात् । यदर्थ क्रियाकारि तद्वस्तु । सा च नै कान्ते एकानेकाभ्यां प्राप्तनिरूपितावस्थाभ्यामर्थ क्रियाविरोधात। न चैतन्याचैतन्याभ्यामनेकान्तस्तयोर्गुणत्वाभावात । सहभुवो हि गुणाः, चानयोः सहभूतिरस्ति असति विबन्धर्यनुपलम्भात । भवति च विरोषः समाननिबन्धनत्वे सति। न चात्र विरोधः संयमासंयमयोरेकद्रव्यवतिनोस्त्रसस्थावर निवन्धनवाद । - प्रश्न-जो संयत होता है, वह असंयत नहीं हो सकता है, और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता है, क्योंकि, संयमभाव और असं समभावका परस्पर विरोध है, इसलिए यह गुणस्थान नहीं बनता है ? उत्तर-१. विरोध दो प्रकारका है-परस्परपरिहारलक्षण विरोध और सहानवस्थालक्षण विरोध । इनमें से एक द्रव्य के अनन्तगुणों में होनेवाला परस्पर परिहारलक्षण बिरोध यहाँ इष्ट ही है, क्योंकि यदि एक दूसरेका परिहार करके गुणों का अस्तित्व न माना जावे तो उनके स्वरूपकी हानिका प्रसंसा आता है । परन्तु इतने मात्रसे गुणों में सहानवस्थालक्षण विरोध सम्भव नहीं है। यदि नाना गुणोंका एक साथ रहना हो बिरोधस्वरूप मान लिया जाये तो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बन सकता है, क्योंकि, बस्तुका सद्भाव अनेकान्त निमित्तक ही होता है। जो अर्थ क्रिया करनेमें समर्थ है है वह वस्तु है और बह एकान्त पक्षमें बन नहीं सकती, क्योंकि यदि अर्थक्रियाको एक रूप माना जावे तो पुनः पुनः उसी अर्थ क्रियाकी प्राप्ति होनेसे, और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष आनेसे एकान्तपक्षमें अर्थ क्रियाके होनेमें विरोध आता है । २. ऊपरके कथनसे चैतन्य और अचैतन्यके साथ भी व्यभिचार नहीं आता है, क्यों कि, चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों गुण नहीं हैं। जो सहभावी होते हैं उन्हें गुण कहते हैं, परन्तु ये दोनों सहभावी नहीं हैं, क्योंकि बन्धरूप अवस्था नहीं रहनेपर चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों एक साथ नहीं पाये जाते हैं। ३. दूसरे विरुद्ध दो धर्मोंकी उत्पत्तिका कारण यदि एक मान लिया जाये तो विरोध आता है, परन्तु संयमभाव और असंयमभाव इन दोनोंको एक आत्मामें स्वीकार कर लेनेपर भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, उन दोनोंकी उत्पत्तिके कारण भिन्न-भिन्न है। संयमभावकी उत्पत्तिका कारण त्रसहिंसासे विरति भाव है और असंयम भावकी उत्पत्तिका कारण स्थावर हिंसासे अविरति भाव है। इसलिए संयतासंयत नामका पाँचवाँ गुणस्थान बन जाता है।
१. संयतासंयतका लक्षण पं.सं./प्रा./२/गा, जो तसवहाउ विरदो णो विरओ अक्रवथावरवहाओ। पडिसमय सो जीबो विरमाबिर ओ जिणेकमई ।१३। जो ण विरदो दू भावो थावरवहइंदियत्थदोसाओ। तसवह बिरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिट्ठो 1१३४। पंच तिय चउबिहेहि अणुगुण-सिक्रवावए हिं संजुत्ता। बुच्चति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा ॥१३॥ -१. जो जीव एक मात्र जिन भगवान्में ही मतिको रखता है, तथा त्रस जीबोंके घातसे विरत है, और इन्द्रिय विषयोंसे एवं स्थावर जीवोंके घातसे विरक्त नहीं है, वह जीम प्रति समय क्रिताविरत है। अर्थात अपने गुणस्थानके कालके भीतर दोनों संज्ञाओं को युगपत धारण करता है ।१३। २. भावोंसे स्थावरवध और पाँचों इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी दोषोंसे विरत नहीं होने किन्तु उस बधसे विरत होनेको संयमासंयम कहते हैं, और उनका धारक जीव नियमसे संयमासंयमी कहा गया है ।१३४॥ ३. पाँच अणुवत, तीन गुणवत और चार शिक्षाबतोंसे संयुक्त होना विशिष्ट संयमास यम है। उसके धारक और असंख्यात गुणश्रेणीरूप निर्जराके द्वारा कर्मों के झाड़नेवाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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